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बुधवार, 8 सितंबर 2010

शिखरों पर शून्य

मोटे तौर पर देखें तो भारत में सब ठीक-ठाक ही चल रहा है। न हम किसी युद्ध में फंसे हैं, न कोई दंगे हो रहे हैं, न चीन और पाकिस्तान की तरह हजारों लोग बाढ़ में मर रहे हैं, न सरकार के गिरने की कोई नौबत है। विकास दर में बढ़ोतरी हो रही है, महंगाई थोड़ी घटी है, करोड़पतियों की संख्या बढ़ी है, श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों को हम करोड़ों रुपए यों ही दे देते हैं। हमारे दिल्ली जैसे शहर यूरोपीय शहरों से होड़ ले रहे हैं।

हजारों करोड़ रुपए हम खेलों पर खर्च कर रहे हैं तो फिर रोना किस बात का है? देश में एक अजीब-सा माहौल क्यों बनता जा रहा है? खासतौर से तब जबकि देश के दो प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा पक्ष और विपक्ष की भूमिका निभाने की बजाय पक्ष और अनुपक्ष की तरह गड्ड-मड्ड हो रहे हैं?

ऐसा क्या है, जो देश को दिख तो रहा है, लेकिन समझ में नहीं आ रहा है?,जो समझ में नहीं आ रहा, वह एक पहेली है। पहेली यह है कि देश में संसद है, सरकार है, राजनीतिक दल हैं, लेकिन कोई नेता नहीं है? सोनिया गांधी लगातार चौथी बार कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गईं। रिकॉर्ड बना, लेकिन कोई लहर नहीं उठी। डॉ मनमोहन सिंह ने भी रिकॉर्ड कायम किया। नेहरू और इंदिरा के बाद तीसरे सबसे दीर्घकालीन प्रधानमंत्री हैं, लेकिन वे हैं या नहीं हैं, यह भी देश को पता नहीं चलता।

आध्यात्मिक दृष्टि से यह सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। ऐसी स्थिति, जिसमें होना न होना एक बराबर ही होता है। इसमें जरा भी शक नहीं कि सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच जैसा सहज संबंध है, वैसा सत्ता के गलियारों में लगभग असंभव होता है। भारत में सत्ता के ये दो केंद्र हैं या एक, यह भी पता नहीं चलता। न तो उनमें कोई तनाव है और न ही स्वामी-दास भाव है, जैसा कि हम व्लादिमीर पुतिन और दिमित्री मेदवेदेव के बीच मास्को में देखते हैं।

इसी प्रकार सत्ता पक्ष और विपक्ष देश में है तो सही, लेकिन कहीं कोई चुनौती दिखाई नहीं पड़ती। छोटे-मोटे क्षेत्रीय दल जो कांग्रेस के साथ हैं, उनके नेता भ्रष्टाचार के ऐसे मुकदमों में फंसे हुए हैं कि कांग्रेस ने जरा स्क्रू कसा नहीं कि वे सीधे हो जाते हैं।

जिस बात का वे निरंतर विरोध करते हैं, उसी पर दौड़कर समर्थन दे देते हैं। जैसा कि परमाणु सौदे पर पिछली संसद में हुआ था। कांग्रेस का हाल भी वही है। वह उनके ब्लैकमेल के आगे तुरंत घुटने टेक देती है। जिस जातीय गणना का कांग्रेस ने 1931 में और आजाद भारत में सदा विरोध किया, अब कुछ जातिवादी क्षेत्रीय दलों के दबाव में आकर उसने अपनी नेता की भूमिका तज दी और अब वह उन अपने समर्थक दलों की पिछलग्गू बन गई है।

सत्तारूढ़ कांग्रेस सत्ता पर आरूढ़ जरूर है, लेकिन कई मुद्दों पर वह पत्ता भी नहीं हिला सकती। इससे भी ज्यादा दुर्दशा विपक्षी दलों की है। कम्युनिस्ट पार्टियां अभी भी मुखर हंै, लेकिन पिछले चुनाव में वे अपने गढ़ों में ही पिट गईं। उनका आपसी लत्तम-धत्तम इतना प्रखर हो गया है कि उनके मुखर होने पर देश का ध्यान ही नहीं जाता। जोशी-डांगे-मुखर्जी और नंबूदिरिपाद की कम्युनिस्ट पार्टियों में आज के जैसा संख्या-बल नहीं था, लेकिन वाणी-बल था, जो सारे देश में प्रतिध्वनित होता था।

नेहरू जैसे नेता को भी उस पर प्रतिक्रिया करनी पड़ती थी। आजकल यही पता नहीं चलता कि वामपंथ का असली प्रवक्ता कौन है। मार्क्‍सवादी पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने परमाणु-हर्जाना विधेयक का विरोध जरूर किया, लेकिन वह नक्कारखाने में तूती की तरह डूब गया। वे दिन गए, जब लोहिया के पांच-सात लोग पूरी संसद को अपनी चिट्टी उंगली पर उठाए रखते थे। अब दिन में दीया लेकर ढूंढ़ने निकलो तो भी कोई समाजवादी नहीं मिलता।

इतनी बड़ी संसद में क्या एक भी सांसद ऐसा है, जो लोहिया की तरह पूछ सके कि प्रधानमंत्रीजी, आप पर 25000 रुपए प्रतिमाह कैसे खर्च हो रहे हैं और आम आदमी तीन आने रोज पर कैसे गुजारा करेगा? अब तो पूंजीवादी, समाजवादी, साम्यवादी, दक्षिणपंथी और वामपंथी- सभी एक पथ के पथिक हो गए हैं।

सबसे बड़े विपक्षी दल के तौर पर भाजपा जबर्दस्त भूमिका निभा सकती थी, लेकिन वह बिना पतवार की नाव बन गई है। उसका अध्यक्ष भी कांग्रेस अध्यक्ष की तरह आसमान से उतरने लगा है। वह अपने नेताओं के कंधों पर बैठा है, लेकिन उसके पांव नहीं हैं। उसे पांव की जरूरत भी क्या है?

भाजपा में हाथ-पांव ही हाथ-पांव हैं। यह कार्यकर्ताओं की पार्टी ही तो है। इसमें गलती से एक नेता उभर आया था। उसे जिन्ना ले बैठा। अब कांग्रेस की तरह भाजपा के शिखर पर भी शून्य हो गया है। ये शून्य-शिखर आपस में जुगलबंदी करते रहते हैं। शून्य-शिखरों की इस जुगलबंदी में से कुछ समझौते निकलते हैं और कुछ शिष्टाचार निभते हैं, लेकिन कोई वैकल्पिक समाधान नहीं निकलते। भारत की राजनीति में से द्वंद्वात्मकता का तिरोधान हो गया है।

यह एकायामी (वन डायमेंशनल) राजनीति नौकरशाहों और सरकारी बाबुओं के कंधों पर टिकी हुई है। इसमें पार्टियों की भूमिका गौण हो गई है। जनता और सरकार के बीच पार्टी नाम का सेतु लगभग अदृश्य हो गया है। जब पार्टी ही अप्रासंगिक हो गई है तो नेता की जरूरत कहां रह गई है? बिना नेता के ही यह देश चला जा रहा है। यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा अजूबा है। बाबुओं के दम पर बाबुओं का राज चल रहा है। आम जनता के प्रति हमारे बाबुओं का जो रवैया होता है, वही आज हमारे नेताओं का है।

देश में अगर आज कोई नेता होता तो क्या वह अनाज को सड़ने देता? यह ठीक है कि उच्चतम न्यायालय को ऐसे मामलों में टांग नहीं अड़ानी चाहिए, लेकिन भूखों को मुफ्त बांटने के विरुद्ध ऐसे तर्क वही दे सकता है, ‘जाके पांव फटी न बिवाई’! सरकार तो सरकार, विपक्ष क्या कर रहा है?

वह उन गोदामों के ताले क्यों नहीं तुड़वा देता? धरने क्यों नहीं देता? सत्याग्रह क्यों नहीं करता? भ्रष्टाचार क्या सिर्फ केंद्र में है? क्या राज्य सरकारें दूध की धुली हुई हैं? भाजपा और जनता दल के राज्यों में कोई चमत्कारी कदम क्यों नहीं उठाया जाता? माओवादियों से पांच-सात राज्य ऐसे लड़ रहे हैं, जैसे वे पांच-सात स्वतंत्र राष्ट्र हों। क्यों हो रहा है, ऐसा? इसीलिए कि देश में कोई समग्र नेतृत्व नहीं है। चीनियों के आगे भारत को क्यों घिघियाना पड़ रहा है?

कश्मीर में कोरे शब्दों की चाशनी क्यों घुल रही है? कोई बड़ी पहल क्यों नहीं हो रही है? इसीलिए कि भारत की राजनीति के बगीचे में सिर्फ गुलदस्ते सजे हुए हैं। इन गुलदस्तों में न कोई कली चटकती है और न फूल खिलते हैं। जो फूल सजे हुए हैं, उनमें खुशबू भी नहीं है। भारत का नागरिक समाज या चौथा खंभा भी इतना मजबूत नहीं है कि वह नेतृत्व कर सके। इसके बावजूद भारत है कि चल रहा है। अपनी गति से चल रहा है। शिखरों पर शून्य है तो क्या हुआ? मूलाधार में तो कोई न कोई कुंडलिनी लगी हुई है।

रविवार, 9 मई 2010

निरुपमा का गुनहगार तो पूरा समाज है

निरुपमा पाठक को किसने मारा? कानून की नजर में अभी यह सवाल उलझा है। पर देखा जाए तो इसका जवाब साफ है। वह उस समाज और सिस्टम की शिकार हुई, जिसकी सोच और कार्यशैली अभी भी आदिम जमाने की है। उसका असली गुनहगार यह समाज और सिस्टम ही है।

दिल्ली निरुपमा का कर्मक्षेत्र था। वह एक अकबार में पत्रकार थी। वह झारखंड में अपने घर गई थी। यह उसकी अंतिम यात्रा साबित हुई। उसके घर में उसकी लाश पड़ी मिली। बताया जा रहा है कि ब्राह्मण निरुपमा को किसी च्नीचीज् जाति के लड़के प्रियभांशु से प्यार हो गया था। उसके पेट में करीब तीन महीने का गर्भ भी था। वह प्रियभांशु से शादी करना चाहती थी। परिवार वाले इसके लिए राजी नहीं थे। सो, उसे इज्जत के नाम पर कुर्बान कर दिया गया।

किसी की जिंदगी लेना सबसे बड़ा पाप है। फिर भी लोग लोगों को मारते हैं। यहां तक कि अपने ही जने की जान ले लेते हैं। सच है कि संकीर्ण मानसिकता हावी हो जाए तो आदमी बड़ा से बड़ा पाप यह समझ कर कर गुजरता है कि वह अच्छा काम कर रहा है।

ऑनर किलिंग की जड़ में समाज की ओछी और पुरातनपंथी सोच ही है। सो, निरुपमा के परिवार वालों को सजा मिल जाना ही काफी नहीं होगा। हरियाणा की अदालत ने हाल ही में ऑनर किलिंग के आरोप में कई लोगों को कड़ी सजा सुनाई है। उसके बाद भी ऐसे मामले सामने आ रहे हैं।

निरुपमा के गर्भ में अगर कोई नन्ही जान पल रही थी, तो यह भी सोच से ही जुड़ा मामला है। वह सोच जिसके तहत पश्चिमी संस्कृति को आंख मूंद कर अपनाने की होड़ बढ़ती जा रही है। शादी से पहले शारीरिक सुख भोगने का चलन पश्चिम में आम है। हमारे यहां, खास कर मध्यवर्गीय समाज में, यह मौत का सबब भी बन जाता है।

निरुपमा का गुनहगार हमारा सिस्टम भी है। कानून की नजर में उसके हत्यारे को खोजने के लिए जि मेदार सिस्टम की खामियां ही मामले को उलझा रही हैं। पहले हत्या के शक में लड़की की मां गिरफ्तार होती है, फिर उसके प्रेमी पर बलात्कार और आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में मुकदमा दर्ज हो जाता है। पोस्टमार्टम करने वाला डाक्टर बताता है कि अनुभव की कमी के चलते उससे कुछ गलतियां हो गई हैं। सिस्टम की खामी का इससे अच्छा उदाहरण शायद ही मिले।

ऐसे में जो लोग निरुपमा को इंसाफ दिलाना चाहते हैं, उन्हें समाज और सिस्टम की खामियों के खिलाफ ही खड़ा होना होगा। तभी निरुपमा को भी न्याय मिलेगा और आगे किसी निरुपमा को न्याय दिलाने के लिए लड़ने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी।

गुरुवार, 6 मई 2010

अपना राहुल गांधी खोजें

बैंक डकैती के एक दृश्य की कल्पना करें। अपने साथियों से घिरा लुटेरों के गिरोह का मुखिया बैंक मैनेजर पर बंदूक तानकर कहता है, ‘सारा माल मुझे दे दो, नहीं तो मैं तुम्हें गोली से उड़ा दूंगा।’ बैंक मैनेजर केवल मुस्करा देता है।

गिरोह का मुखिया बंदूक दागता है ठांय-ठांय, लेकिन गोली नहीं चलती। बैंक मैनेजर मुखिया से गुजारिश करता है कि वह फिर बंदूक लोड करे। गिरोह का मुखिया बंदूक लोड करता है और फिर से फायर करता है। लेकिन इस बार मैनेजर पर नहीं, खुद पर। गोली से वह जख्मी हो जाता है। दर्द से कराहता हुआ वह साथियों से मदद की गुहार करता है। लेकिन यह क्या, उसके साथी तो पहले ही बैंक मैनेजर के गले से लिपटे हुए हैं।

नहीं, यह किसी कॉमेडी फिल्म का हास्य दृश्य नहीं है। संसद में भाजपा के कटौती प्रस्ताव के दौरान कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। आखिर में हुआ यही कि मुसीबत उलटे भाजपा के ही गले आ पड़ी। भाजपा पहले भी कई बार ऐसा कर चुकी है। उसके कई मजाक अब इतने मजेदार नहीं होते। लेकिन जिस तरह हम मुश्किल में पड़े लोगों का मजाक बनाना पसंद नहीं करेंगे, उसी तरह हमें भाजपा को भी अकेला छोड़ देना चाहिए। भाजपा साधारण सी किताबों के कुछ साधारण से अंशों के आधार पर ही अपने वरिष्ठ-से-वरिष्ठ नेताओं को निष्कासित कर देने वाली पार्टी है।

उनका लगभग हर जाना-माना नेता प्रधानमंत्री पद का दावेदार है। उनके नेता अपनी ही रैलियों में गश खाकर गिर जाते हैं और उनके सहयोगी दल ‘भूलवश’ उन्हीं के खिलाफ वोट डाल देते हैं। साथ ही किसी को नहीं पता कि उनकी राजनीति हिंदूवादी है या हिंदुत्ववादी, सांप्रदायिक है, सांप्रदायिकता विरोधी है या मुस्लिम विरोधी है। एकमात्र चीज जो साफ है, वह यही है कि वे खुद के ही खिलाफ हैं।

लेकिन अगर इस मजाक को दरकिनार कर दें तो हम तो यही चाहेंगे कि भाजपा कुछ बेहतर करे। इसके तीन मुख्य कारण हैं। पहला यह कि नई वैश्विक दुनिया में भाजपा के दक्षिणपंथी और व्यापार की पक्षधर उदारवादी नीतियों की राष्ट्र को चलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। दुर्भाग्यवश भाजपा की आर्थिक नीतियों पर लगभग कभी बात ही नहीं की गई है। उनके बारे में बनाई जाने वाली लगभग सभी धारणाओं पर भगवा रंग छाया रहता है।

दूसरे यह कि भाजपा अपनी विचारधारा में अधिक स्पष्टवादी और कम पाखंडी है। भले ही अभी वह भ्रम की स्थिति में हो। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि हमारे लोकतंत्र की बेहतरी के लिए भाजपा का मजबूत होना बेहद जरूरी है। हमें दो सशक्त राजनीतिक पार्टियों की आवश्यकता है, क्योंकि एक पार्टी के वर्चस्व की स्थिति में बेहतर इरादों के बावजूद एकाधिकार की प्रवृत्ति पनप सकती है। भारत इस तरह की स्थिति से दो-चार हो चुका है। इन्हीं कारणों के चलते हम आशा करते हैं कि भाजपा खुद को संगठित कर सकेगी।

हालांकि राजनीति में मेरी विशेषज्ञता नहीं है, फिर भी कुछ सुझाव दे सकता हूं। ये सुझाव भाजपा के बारे में युवाओं की धारणाओं पर आधारित हैं। मैं यह साफ कर दूं कि मैं किसी विशेष राजनीतिक दल का समर्थन नहीं कर रहा हूं। मेरी मंशा यही है कि दोनों दल मजबूत स्थिति में हों। यह देश के लिए ही अच्छा होगा। अगले कटौती प्रस्ताव के बारे में सोचने से पहले भाजपा को इन छह बिंदुओं पर विचार कर लेना चाहिए।

अपनी नीतियां स्पष्ट करें

यदि कोई युवा भाजपा से पूछे कि वह किन नीतियों का प्रतिनिधित्व करती है और उसमें और कांग्रेस में क्या अंतर है और वह कांग्रेस से किस तरह बेहतर है तो ऐसे में उसका दो-टूक जवाब क्या होगा? जवाब स्पष्ट और सुनिश्चित होना चाहिए, जो कि अभी नहीं है। अंदरूनी बातचीत से इसे स्पष्ट किया जा सकता है। यहां यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि युवाओं का सबसे ज्यादा सरोकार विकास से है। इसलिए ‘हम जिन्ना की किताबों पर प्रतिबंध लगाएंगे’ या ‘हम हिंदू इतिहास के समर्थक हैं’ जैसी पुरातनपंथी बातों से काम नहीं चलेगा। न ही कोई पार्टी ‘दूसरों’ के प्रति घृणा की जमीन पर चल सकती है। अतीत नहीं, आने वाले कल की बात करें। आप नेता हैं, इतिहास के प्राध्यापक या उपदेशक नहीं।

अहंकार त्यागें

भाजपा के कई नेताओं की पहुंच श्रेष्ठ हिंदू गुरुओं तक है। इसके बावजूद यह हैरानी की बात है कि वे अहंकार के परित्याग का दर्शन नहीं समझ सके। एक दर्जन नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी जताना तो गीता के उपदेशों के अनुरूप नहीं है। भाजपा की अंदरूनी लड़ाइयां किसी से छिपी नहीं हैं, लेकिन अब उसे एकजुट होना ही पड़ेगा।

योग्य नेता की तलाश करें

एकजुट होकर काम करने के बावजूद किसी-न-किसी नेता की दरकार तो होगी ही। पार्टी में सिरे से मूल्यांकन करें कि कौन यह जिम्मेदारी संभाल सकता है। नेता का मूल्यांकन तीन तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए- जनाधार, मीडिया में व्यक्ति का सम्मान और उसकी बुनियादी योग्यताएं। अपने सभी नेताओं का मूल्यांकन इन मानदंडों पर करें और आपको उत्तर मिल जाएगा।

अपने राहुल गांधी को खोज निकालें

राहुल गांधी के प्रशंसक ही नहीं, बल्कि विरोधी भी कभी उनके बारे में कोई नकारात्मक बात नहीं कहते। वे संतुलित हैं, मेहनती हैं और अपनी ताकत का बिल्कुल रौब नहीं जमाते। भाजपा को खुद से यह पूछना चाहिए कि उनका राहुल गांधी कहां है। सीधी सी बात है, यदि उनके पास राहुल गांधी जैसा कोई नहीं है तो वे कामयाब नहीं हो सकेंगे।

काम करें

बहुत कम राज्यों में अब भी भाजपा की सरकार है। कुछ जगहों पर जरूर अच्छा काम किया गया है, लेकिन कुल मिलाकर विकास के क्षेत्र में उनकी उपलब्धि कुछ खास नहीं है। खूब मेहनत से अच्छा काम करके दिखाएं, वोट अपने आप मिलने लगेंगे।

सहयोगी दलों पर निर्भर न रहें

भारत में सहयोगी दलों की मदद के बिना सरकार बनाना अब तकरीबन नामुमकिन हो चला है। लेकिन बेहतर स्थिति वह होगी, जब आप अपने सहयोगी दलों से ज्यादा मजबूत हों। सच्चाई तो यह है कि अगर आप ताकतवर हैं तो सहयोगी दल खुद-ब-खुद चले आएंगे।

जाहिर है, यह सब रातोंरात नहीं किया जा सकता। लेकिन यदि इन नीतियों का लगातार पालन किया जाता रहे तो दूरगामी नतीजे हासिल होंगे। तब तक भाजपा के लिए यही बेहतर होगा कि वह कांग्रेस की सराहना करे और हर संभव मौके पर कटौती प्रस्ताव लाने की बजाय उससे कुछ सीखने की कोशिश करे।

और अगली बार किसी बैंक डकैती की योजना बनाने से पहले बंदूक का इस्तेमाल करना सीखें, उसे पहले से ही लोड करके रखें और कुछ बेहतर साथियों का जुगाड़ करें। फिर भी सबसे अच्छा तो यही है कि बैंक न लूटें। सिर्फ कड़ी मेहनत करें और पुराने जाने-पहचाने तरीकों से ही कामयाबी हासिल करें।

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

अब हफ्ते में 45 घंटे पढ़ाना होगा

जयपुर. राज्य के सरकारी स्कूलों में अब शिक्षकों के लिए पांचवीं कक्षा तक एक सत्र में 200 कार्य दिवस से कम पढ़ाना कानूनन जुर्म होगा। कक्षा छह से आठवीं तक के लिए यह अवधि 220 दिन होगी।

नए अनिवार्य शिक्षा कानून के तहत बनने जा रहे नए नियमों में यह प्रावधान किया जा रहा है कि हर शिक्षक को एक अकादमिक वर्ष में पांचवीं कक्षा तक 800 घंटे और छठी से आठवीं तक 1000 घंटे तक छात्र-छात्राओं को उचित तरीके से शिक्षित करना होगा।

शिक्षा विभाग के अधिकारियों का कहना है कि हर शिक्षक को औसतन हर हफ्ते कम से कम 45 घंटे पढ़ाना होगा। नए प्रावधानों के अनुसार हर कक्षा के छात्रों को जरूरी शैक्षिक उपकरण मुहैया करवाना भी जरूरी किया जा रहा है।

राज्य के निजी स्कूलों के लिए यह प्रावधान भी किया जा रहा है कि वहां जांच प्रक्रिया के नाम पर बच्चों या उनके माता-पिता से न तो साक्षात्कार होगा और न ही डोनेशन लिया जाएगा। इस बारे में राज्य सरकार को केंद्र की ओर से मॉडल शिक्षा नियम मिल गए हैं।

पहली से पांचवीं कक्षा:

60 बच्चों पर: दो शिक्षक जरूरी
61 से 90 पर: 3 शिक्षक जरूरी
91 से 120 पर: 4 शिक्षक जरूरी
121 से 200 : 5 शिक्षक
150 से ज्यादा बच्चों पर 5 शिक्षक तथा एक हैडमास्टर

छठी से आठवीं कक्षा तक:
प्रति कक्षा के लिए एक शिक्षक एवं साइंस, मैथ्स, सामाजिक विज्ञान, और अन्य भाषाओं के लिए अलग-अलग शिक्षक
प्रत्येक 35 बच्चों पर एक शिक्षक सौ से ज्यादा बच्चें पर पूर्णकालीक हैडमास्टर, कला शिक्षा, स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षक एवं कार्य शिक्षा के लिए पार्ट टाइम शिक्षक जरूरी

भवन अनिवार्यता

हर शिक्षक के हिसाब से एक कमरा, हैडमास्टर रूम, बॉयज एवं गल्र्स के अलग से टॉयलेट, पीने के पानी की सुविधा, मीड डे मिल के लिए रसोईघर, खेल मैदान।

गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश अगले साल

जयपुर. राज्य के कमजोर और पिछड़े वर्ग के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा कानून के तहत निजी स्कूलों की पहली कक्षा में 25 प्रतिशत सीटों पर प्रवेश के लिए अभी एक साल इंतजार करना होगा। राज्य में इस कानून का यह प्रावधान 1 अप्रैल, 2011 से लागू होगा।

वजह यह है कि कुछ निजी स्कूल प्रबंधकों ने अपनी प्रवेश प्रक्रिया 31 मार्च तक पूरी कर लेने का तर्क दिया था, लेकिन इसी बीच केंद्र व राज्य सरकार ने यह फैसला लिया कि अगले साल एक अप्रैल से कोई स्कूल इस कानून को लागू नहीं करेगा तो उसकी मान्यता समाप्त हो जाएगी। फिर भी कोई स्कूल काम जारी रखता है तो उस पर एक लाख का जुर्माना होगा और उसके बाद हर दिन एक हजार रुपए का जुर्माना देना होगा। उधर राज्य सरकार ने कानून के बाकी प्रावधानों को लागू करने की तैयारियां शुरू कर दी हैं।

स्कूली शिक्षा के प्रमुख सचिव ललित पंवार ने बताया कि अनिवार्य शिक्षा के तहत प्रत्येक एक किलोमीटर की परिधि में प्राथमिक, 3 किमी की परिधि में मिडिल तथा 5 एवं 10 किलोमीटर की परिधि में सेकंडरी एवं सीनियर सेकंडरी स्कूल का प्रावधान है। शिक्षा के अधिकार की प्रभावी क्रियान्विति के लिए प्रारंभिक शिक्षा निदेशक की अध्यक्षता में गठित कमेटी की गई है।

कमेटी तय करेगी कि इसे विभिन्न स्तरों के सरकारी और निजी स्कूलों में किस प्रकार लागू किया जाए। पंवार ने बताया कि राज्य के सभी निजी स्कूलों को एक वर्ष के अंदर मान्यता लेना अनिवार्य होगा। ऐसा नहीं करने पर विभाग कार्रवाई करेगा। स्कूलों में बच्चों की पिटाई प्रतिबंधित करने के लिए भी जल्द ही आदेश जारी किए जाएंगे। राज्य में शिक्षा के अधिकार के तहत उठाए जाने वाले सभी मामलों की मॉनिटरिंग एसएसए आयुक्त करेंगी।

सरकारी शिक्षकों के ट्यूशन लेने पर लगेगा प्रतिबंध

राज्य में बच्चों के मुफ्त अनिवार्य शिक्षा कानून की भावना को देखते हुए नए शिक्षा सत्र से सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के ट्यूशन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है। बच्चों को ट्यूशन के लिए उकसाने पर संबंधित शिक्षक के खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा की दिशा में शिक्षा विभाग ने यह कदम उठाया है। इसकी कार्ययोजना तैयार कर ली गई है। स्कूली शिक्षा के प्रमुख सचिव के अनुसार ट्यूशन प्रतिबंधित करने के लिए जल्द ही आदेश जारी कर दिए जाएंगे।

इसी साल खर्च होंगे 500 करोड़ रुपए

प्रदेश में अनिवार्य शिक्षा विधेयक लागू करने में करीब 500 करोड़ इसी साल खर्च होने की संभावना है। केंद्र अगले तीन साल में 6000 करोड़ रुपए देगा। 3 साल में राज्य को करीब 35 हजार स्कूल और 70 हजार से ज्यादा शिक्षकों की जरूरत होगी। इनमें 15 हजार प्राइमरी, 15 हजार मिडिल, 3 हजार सेकंडरी एवं 2 हजार सीनियर सेकंडरी स्कूलों की जरूरत होगी।

राज. के 10 लाख बच्चों ने नहीं देखा स्कूल

जयपुर. देशभर में गुरुवार से बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार अनिवार्य भले ही हो गया हो, लेकिन राजस्थान में स्कूली शिक्षा की तस्वीर बेहद धुंधली है। राज्य सरकार की मानें तो यहां के 10 लाख बच्चे अब भी शिक्षा से दूर हैं। जनसंख्या आंकड़े तो इस संख्या को कहीं ज्यादा बताते हैं।

केंद्रीय सहायता से राज्य सरकार शिक्षा का ढांचा बेहद मजबूत करेगी। राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. सुभाष गर्ग कहते हैं, शिक्षा का अधिकार पिछड़े एवं गरीब तबकों के लिए वरदान साबित होगा। बस आवश्यकता इस बात की रहेगी कि केंद्र से इसके लिए पर्याप्त सहायता मिलती रहे। शिक्षाविद एस.एल. बोहरा राज्य में प्राथमिक शिक्षा के स्तर को बेहद जर्जर मानते हैं। उनका कहना है कि शिक्षा के अधिकार की गारंटी इस बात पर निर्भर करेगी कि राज्य में योगय शिक्षकों के साथ ही संसाधनों की कमी को जल्द से कितना जल्द पूरा किया जाता है।

ऐसे हैं 40 लाख बच्चे स्कूलों से दूर:

2001 की जनगणना के अनुसार राज्य में 4 साल तक के बच्चों की संख्या 72, 33, 220 थी। वर्तमान में ये बच्चे 11 से 14 वर्ष उम्र के हैं। इधर प्रारंभिक शिक्षा विभाग के प्रतिवेदन को आधार माना जाए तो राजकीय एवं गैर राजकीय स्कूलों में इस उम्र के नामांकित बच्चों की संख्या 31, 73272 है। ऐसे में करीब 40 लाख 60 हजार बच्चे स्कूलों से दूर हैं।

शनिवार, 27 मार्च 2010

Animal Slaughter Festival In Nepal





November 24, about one million people gathered in a small village in Bariyapur, Nepal, they witness a large-scale sacrifice ceremony, tens of thousands of animals will be slaughtered, the festival was widely criticized. Followers travel long distances to attend this traditional Gadhimai festival, some of the devotees who come from neighboring India. Gadhimai Festivals worship Goddess symbol of power, it hold in southern Nepal every five years. It is the world's largest animal slaughter festival, in the past each time, hundreds of thousands of cattle, pigs, sheep, chickens and other animals were killed in two days, this year the number is as high as 300,000. Then the crowd flock to the ground near the temple Gadhimai, there are 250 butchers waiting for the ceremony. Followers take approximate 20000 buffalo, then the animal was slaughtered.Animal organization alleging such cruel activities ceremony is unnecessary ,but the Government of Nepal refuses to prohibit this religious tradition which has already lasted for several centuries.