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रविवार, 9 मई 2010

निरुपमा का गुनहगार तो पूरा समाज है

निरुपमा पाठक को किसने मारा? कानून की नजर में अभी यह सवाल उलझा है। पर देखा जाए तो इसका जवाब साफ है। वह उस समाज और सिस्टम की शिकार हुई, जिसकी सोच और कार्यशैली अभी भी आदिम जमाने की है। उसका असली गुनहगार यह समाज और सिस्टम ही है।

दिल्ली निरुपमा का कर्मक्षेत्र था। वह एक अकबार में पत्रकार थी। वह झारखंड में अपने घर गई थी। यह उसकी अंतिम यात्रा साबित हुई। उसके घर में उसकी लाश पड़ी मिली। बताया जा रहा है कि ब्राह्मण निरुपमा को किसी च्नीचीज् जाति के लड़के प्रियभांशु से प्यार हो गया था। उसके पेट में करीब तीन महीने का गर्भ भी था। वह प्रियभांशु से शादी करना चाहती थी। परिवार वाले इसके लिए राजी नहीं थे। सो, उसे इज्जत के नाम पर कुर्बान कर दिया गया।

किसी की जिंदगी लेना सबसे बड़ा पाप है। फिर भी लोग लोगों को मारते हैं। यहां तक कि अपने ही जने की जान ले लेते हैं। सच है कि संकीर्ण मानसिकता हावी हो जाए तो आदमी बड़ा से बड़ा पाप यह समझ कर कर गुजरता है कि वह अच्छा काम कर रहा है।

ऑनर किलिंग की जड़ में समाज की ओछी और पुरातनपंथी सोच ही है। सो, निरुपमा के परिवार वालों को सजा मिल जाना ही काफी नहीं होगा। हरियाणा की अदालत ने हाल ही में ऑनर किलिंग के आरोप में कई लोगों को कड़ी सजा सुनाई है। उसके बाद भी ऐसे मामले सामने आ रहे हैं।

निरुपमा के गर्भ में अगर कोई नन्ही जान पल रही थी, तो यह भी सोच से ही जुड़ा मामला है। वह सोच जिसके तहत पश्चिमी संस्कृति को आंख मूंद कर अपनाने की होड़ बढ़ती जा रही है। शादी से पहले शारीरिक सुख भोगने का चलन पश्चिम में आम है। हमारे यहां, खास कर मध्यवर्गीय समाज में, यह मौत का सबब भी बन जाता है।

निरुपमा का गुनहगार हमारा सिस्टम भी है। कानून की नजर में उसके हत्यारे को खोजने के लिए जि मेदार सिस्टम की खामियां ही मामले को उलझा रही हैं। पहले हत्या के शक में लड़की की मां गिरफ्तार होती है, फिर उसके प्रेमी पर बलात्कार और आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में मुकदमा दर्ज हो जाता है। पोस्टमार्टम करने वाला डाक्टर बताता है कि अनुभव की कमी के चलते उससे कुछ गलतियां हो गई हैं। सिस्टम की खामी का इससे अच्छा उदाहरण शायद ही मिले।

ऐसे में जो लोग निरुपमा को इंसाफ दिलाना चाहते हैं, उन्हें समाज और सिस्टम की खामियों के खिलाफ ही खड़ा होना होगा। तभी निरुपमा को भी न्याय मिलेगा और आगे किसी निरुपमा को न्याय दिलाने के लिए लड़ने की जरूरत भी नहीं रह जाएगी।

गुरुवार, 6 मई 2010

अपना राहुल गांधी खोजें

बैंक डकैती के एक दृश्य की कल्पना करें। अपने साथियों से घिरा लुटेरों के गिरोह का मुखिया बैंक मैनेजर पर बंदूक तानकर कहता है, ‘सारा माल मुझे दे दो, नहीं तो मैं तुम्हें गोली से उड़ा दूंगा।’ बैंक मैनेजर केवल मुस्करा देता है।

गिरोह का मुखिया बंदूक दागता है ठांय-ठांय, लेकिन गोली नहीं चलती। बैंक मैनेजर मुखिया से गुजारिश करता है कि वह फिर बंदूक लोड करे। गिरोह का मुखिया बंदूक लोड करता है और फिर से फायर करता है। लेकिन इस बार मैनेजर पर नहीं, खुद पर। गोली से वह जख्मी हो जाता है। दर्द से कराहता हुआ वह साथियों से मदद की गुहार करता है। लेकिन यह क्या, उसके साथी तो पहले ही बैंक मैनेजर के गले से लिपटे हुए हैं।

नहीं, यह किसी कॉमेडी फिल्म का हास्य दृश्य नहीं है। संसद में भाजपा के कटौती प्रस्ताव के दौरान कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। आखिर में हुआ यही कि मुसीबत उलटे भाजपा के ही गले आ पड़ी। भाजपा पहले भी कई बार ऐसा कर चुकी है। उसके कई मजाक अब इतने मजेदार नहीं होते। लेकिन जिस तरह हम मुश्किल में पड़े लोगों का मजाक बनाना पसंद नहीं करेंगे, उसी तरह हमें भाजपा को भी अकेला छोड़ देना चाहिए। भाजपा साधारण सी किताबों के कुछ साधारण से अंशों के आधार पर ही अपने वरिष्ठ-से-वरिष्ठ नेताओं को निष्कासित कर देने वाली पार्टी है।

उनका लगभग हर जाना-माना नेता प्रधानमंत्री पद का दावेदार है। उनके नेता अपनी ही रैलियों में गश खाकर गिर जाते हैं और उनके सहयोगी दल ‘भूलवश’ उन्हीं के खिलाफ वोट डाल देते हैं। साथ ही किसी को नहीं पता कि उनकी राजनीति हिंदूवादी है या हिंदुत्ववादी, सांप्रदायिक है, सांप्रदायिकता विरोधी है या मुस्लिम विरोधी है। एकमात्र चीज जो साफ है, वह यही है कि वे खुद के ही खिलाफ हैं।

लेकिन अगर इस मजाक को दरकिनार कर दें तो हम तो यही चाहेंगे कि भाजपा कुछ बेहतर करे। इसके तीन मुख्य कारण हैं। पहला यह कि नई वैश्विक दुनिया में भाजपा के दक्षिणपंथी और व्यापार की पक्षधर उदारवादी नीतियों की राष्ट्र को चलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। दुर्भाग्यवश भाजपा की आर्थिक नीतियों पर लगभग कभी बात ही नहीं की गई है। उनके बारे में बनाई जाने वाली लगभग सभी धारणाओं पर भगवा रंग छाया रहता है।

दूसरे यह कि भाजपा अपनी विचारधारा में अधिक स्पष्टवादी और कम पाखंडी है। भले ही अभी वह भ्रम की स्थिति में हो। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि हमारे लोकतंत्र की बेहतरी के लिए भाजपा का मजबूत होना बेहद जरूरी है। हमें दो सशक्त राजनीतिक पार्टियों की आवश्यकता है, क्योंकि एक पार्टी के वर्चस्व की स्थिति में बेहतर इरादों के बावजूद एकाधिकार की प्रवृत्ति पनप सकती है। भारत इस तरह की स्थिति से दो-चार हो चुका है। इन्हीं कारणों के चलते हम आशा करते हैं कि भाजपा खुद को संगठित कर सकेगी।

हालांकि राजनीति में मेरी विशेषज्ञता नहीं है, फिर भी कुछ सुझाव दे सकता हूं। ये सुझाव भाजपा के बारे में युवाओं की धारणाओं पर आधारित हैं। मैं यह साफ कर दूं कि मैं किसी विशेष राजनीतिक दल का समर्थन नहीं कर रहा हूं। मेरी मंशा यही है कि दोनों दल मजबूत स्थिति में हों। यह देश के लिए ही अच्छा होगा। अगले कटौती प्रस्ताव के बारे में सोचने से पहले भाजपा को इन छह बिंदुओं पर विचार कर लेना चाहिए।

अपनी नीतियां स्पष्ट करें

यदि कोई युवा भाजपा से पूछे कि वह किन नीतियों का प्रतिनिधित्व करती है और उसमें और कांग्रेस में क्या अंतर है और वह कांग्रेस से किस तरह बेहतर है तो ऐसे में उसका दो-टूक जवाब क्या होगा? जवाब स्पष्ट और सुनिश्चित होना चाहिए, जो कि अभी नहीं है। अंदरूनी बातचीत से इसे स्पष्ट किया जा सकता है। यहां यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि युवाओं का सबसे ज्यादा सरोकार विकास से है। इसलिए ‘हम जिन्ना की किताबों पर प्रतिबंध लगाएंगे’ या ‘हम हिंदू इतिहास के समर्थक हैं’ जैसी पुरातनपंथी बातों से काम नहीं चलेगा। न ही कोई पार्टी ‘दूसरों’ के प्रति घृणा की जमीन पर चल सकती है। अतीत नहीं, आने वाले कल की बात करें। आप नेता हैं, इतिहास के प्राध्यापक या उपदेशक नहीं।

अहंकार त्यागें

भाजपा के कई नेताओं की पहुंच श्रेष्ठ हिंदू गुरुओं तक है। इसके बावजूद यह हैरानी की बात है कि वे अहंकार के परित्याग का दर्शन नहीं समझ सके। एक दर्जन नेताओं द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी जताना तो गीता के उपदेशों के अनुरूप नहीं है। भाजपा की अंदरूनी लड़ाइयां किसी से छिपी नहीं हैं, लेकिन अब उसे एकजुट होना ही पड़ेगा।

योग्य नेता की तलाश करें

एकजुट होकर काम करने के बावजूद किसी-न-किसी नेता की दरकार तो होगी ही। पार्टी में सिरे से मूल्यांकन करें कि कौन यह जिम्मेदारी संभाल सकता है। नेता का मूल्यांकन तीन तथ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए- जनाधार, मीडिया में व्यक्ति का सम्मान और उसकी बुनियादी योग्यताएं। अपने सभी नेताओं का मूल्यांकन इन मानदंडों पर करें और आपको उत्तर मिल जाएगा।

अपने राहुल गांधी को खोज निकालें

राहुल गांधी के प्रशंसक ही नहीं, बल्कि विरोधी भी कभी उनके बारे में कोई नकारात्मक बात नहीं कहते। वे संतुलित हैं, मेहनती हैं और अपनी ताकत का बिल्कुल रौब नहीं जमाते। भाजपा को खुद से यह पूछना चाहिए कि उनका राहुल गांधी कहां है। सीधी सी बात है, यदि उनके पास राहुल गांधी जैसा कोई नहीं है तो वे कामयाब नहीं हो सकेंगे।

काम करें

बहुत कम राज्यों में अब भी भाजपा की सरकार है। कुछ जगहों पर जरूर अच्छा काम किया गया है, लेकिन कुल मिलाकर विकास के क्षेत्र में उनकी उपलब्धि कुछ खास नहीं है। खूब मेहनत से अच्छा काम करके दिखाएं, वोट अपने आप मिलने लगेंगे।

सहयोगी दलों पर निर्भर न रहें

भारत में सहयोगी दलों की मदद के बिना सरकार बनाना अब तकरीबन नामुमकिन हो चला है। लेकिन बेहतर स्थिति वह होगी, जब आप अपने सहयोगी दलों से ज्यादा मजबूत हों। सच्चाई तो यह है कि अगर आप ताकतवर हैं तो सहयोगी दल खुद-ब-खुद चले आएंगे।

जाहिर है, यह सब रातोंरात नहीं किया जा सकता। लेकिन यदि इन नीतियों का लगातार पालन किया जाता रहे तो दूरगामी नतीजे हासिल होंगे। तब तक भाजपा के लिए यही बेहतर होगा कि वह कांग्रेस की सराहना करे और हर संभव मौके पर कटौती प्रस्ताव लाने की बजाय उससे कुछ सीखने की कोशिश करे।

और अगली बार किसी बैंक डकैती की योजना बनाने से पहले बंदूक का इस्तेमाल करना सीखें, उसे पहले से ही लोड करके रखें और कुछ बेहतर साथियों का जुगाड़ करें। फिर भी सबसे अच्छा तो यही है कि बैंक न लूटें। सिर्फ कड़ी मेहनत करें और पुराने जाने-पहचाने तरीकों से ही कामयाबी हासिल करें।