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शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

संघ का संकट और पटेल-नेहरू से सबक

इतिहास इंसानों से बनता है लेकिन उसमें इंसानों की तरह अहं नहीं होता। ये सबक इतिहास ही देता है इसलिए इतिहास सत्य की खोज के साथ-साथ बदलता रहता है।

इतिहास में अजीब तरह का लचीलापन होता है जो अमूमन वैचारिक पार्टियों और जिद्दी इंसानो में नहीं दिखाई देता है। इतिहास चिरंतन अपनी गति से चलता रहता है और समयानुसार अपने में बदलाव भी करता है बिना अहं बीच में लाए। और इतिहास को अगर ध्यान से देखें तो उसमें एक ध्रुव पर वल्लभभाई पटेल दिखते हैं तो दूसरे पर जवाहर लाल नेहरू।

....पटेल बीमार हैं और नेहरू उनको देखने गए हैं। पटेल नेहरू से कहते है कि 'तुम मुझपर विश्वास नहीं करते।' नेहरू पलट के कहते हैं कि 'मेरा तो खुद पर से ही भरोसा उठ गया है'... नेहरू और पटेल की ये बात भारतीय इतिहास का वह बिंदु है जो इतिहास को बना भी रहा था और इतिहास को बिगाड़ भी सकता था। दोनों नेताओं के बीच भयानक मतभेद थे और दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंदी भी थे लेकिन अपने मतभेदों को इस हद तक नहीं ले गए कि टूट का संकट पैदा हो जाए।

बीजेपी और संघ परिवार के मौजूदा विवाद को इतिहास की नजर से देखने और समझने के लिए इतिहास के इस टुकड़े को समझना बेहद आवश्यक है। क्योंकि जिन्ना विवाद हो या फिर संघ परिवार की गुटबाजी बेहद खतरनाक आयाम लेती जा रही है जो कांग्रेस के बरक्स एक वैकल्पिक सत्ता की अकाल मौत का कारण हो सकती है जो देश के लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा।

इस विवाद ने कई चीजें साफ कर दी हैं। एक, संघ परिवार एक लंबे संकट से गुजर रहा है। चूंकि बीजेपी उसका सबसे बड़ा चेहरा है इसलिए बीजेपी पर इस संकट की सबसे बड़ी छाप दिखाई दे रही है। दूसरे, संघ परिवार का ये संकट पटेल नेहरू की तरह वैचारिक ज्यादा है। बीजेपी में दो तरह की धारायें एक दूसरे से टकरा रही हैं। एक वो धारा जो मान रही है कि बीजेपी लगातार दो चुनाव हारी क्योंकि वो अपने मूल वैचारिक चरित्र से भटकी यानी उसने उग्र हिंदूत्ववाद से समझौता किया। और दूसरी वो धारा है जो ये मानती है कि संघ परिवार को सर्वस्वीकार्य बनने के लिये जरूरी है कि वो अपने में बदलाव करे और उग्र हिंदूत्ववाद में लचीलापन लाए और अल्पसंख्यक तबके को अपना बनाने की कोशिश करे।

तीसरा, ये संकट इस बात का भी प्रतीक है कि संघ में दो धाराओं के साथ-साथ दो पीढ़ियों का भी टकराव है। नई पीढ़ी अपने हिसाब से संघ को चलाना चाहती है लेकिन पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को वो जगह नही दे रही है जो उसे मिलनी चाहिए। साफ शब्दो में कहें तो संघ प्रमुख मोहन भागवत और लाल कृष्ण आडवाणी के बीच सत्ता संघर्ष है। दिलचस्प बात ये है कि आडवाणी से उम्र में कम होने के बावजूद भागवत संघ और बीजेपी को उग्र हिंदूत्ववाद की तरफ ले जाना चाहते है और पुरानी पीढ़ी के आडवाणी बदलते समाज और लोकतंत्र की जरूरत के मुताबिक विचारधारा के स्तर पर बदलाव की वकालत कर रहे हैं।

चौथे, संघ परिवार सामाजिक और राजनीतिक संगठन का फर्क भी नहीं समझ पा रही है, वो बीजेपी को एक सामाजिक संगठन की तरह चलाना चाहती है जो संभव नहीं है। सामाजिक संगठन में संगठनात्मक मजबूती तो होती है लेकिन राजनीतिक संगठन की तरह सर्वशक्तिमान होने की संभावना नहीं होती है। आरएसएस एक सामाजिक संगठन है, उसकी ताकत अपार है, उसके बिना बीजेपी काफी कमजोर हो जाएगी लेकिन बीजेपी अगर सत्ता में आ जाए तो उसका नेता देश का प्रधानमंत्री होगा और एक प्रधानमंत्री कितना भी कमजोर होगा आरएसएस प्रमुख की ताकत उसका मुकाबला नहीं कर पाएगी।

ये बात जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो सुदर्शन को समझ नहीं आई और उनको लगता था कि वो नागपुर से बीजेपी और वाजपेयी को हांक सकते है। शुरू में जसवंत सिंह को वित्त मंत्री न बनने देकर लगा वो कामयाब होंगे लेकिन जब प्रधानमंत्री ने अपनी ताकत दिखाय़ी तो संघ परिवार के पास वाजपेयी के सामने नतमस्तक होने के अलावा कोई चारा नही था।

सुदर्शन और अशोक सिंघल लाख कहते रहे कि तब प्रधानमंत्री कार्यालय में अमेरिकी एजेंट है लेकिन चीखने के सिवाय कुछ कर नहीं पाए। आरएसएस को ये बात समझनी चाहिए लेकिन वो उस भारतीय परंपरा में जवाब तलाशते हैं जिसमें चक्रवर्ती सम्राट किसी संत मुनि के आने के बाद अपने सिंहासन से उठ कर उनका स्वागत करता है।

संघ परिवार ये मानता है कि नैतिक सत्ता के आगे राजनीतिक सत्ता को झुकना चाहिए लेकिन वैदिक काल और कलयुग का अंतर न समझने की वजह से ही भागवत अब आडवाणी को अपने सामने झुकाना चाहते हैं जो संभव नहीं। पांच, इस नासमझी की वजह से संघ परिवार ने जिद ठान ली है और वो पार्टी के अंदर हार के बाद होने वाले वैचारिक मंथन को भी बगावत की नजर से देख रहा है।

विचारधारा स्वाभावत: तानाशाही होती है चाहे वो साम्यवाद हो या फिर हिंदूवाद या फिर हिटलर का फांसीवाद या अल कायदा का रैडिकल इस्लाम। संघ को ये समझना होगा कि देश बदला है और आम जनमानस में जबर्दस्त परिवर्तन आया है, वो विचारों की स्वतंत्रता में अपने और अपने समाज की अस्मिता खोजती है और ऐसे में विचार पर पाबंदी लग जाये वो कतई नहीं चाहेगी। संघ परिवार को अपने आराध्य इतिहास देव वल्लभभाई पटेल से सबक लेना चाहिए और शायद नेहरू से भी जिनको 'डी - कंस्ट्रक्ट' करने का कोई भी मौका वो गंवाना नहीं चाहती।

सबको पता है कि नेहरू समाजवाद से प्रभावित थे तो पटेल दक्षिणपंथ से या यों कहें हिंदूवाद से। चाहे वो कश्मीर का मुद्दा हो या फिर चीन का या फिर अल्पसंख्यक नीति, दोनों नेता अलग-अलग ध्रुव पर खड़े थे। दोनों नेताओं के अपने अपने समर्थक थे जो दोनों को अपने-अपने हिसाब से प्रभावित करने के उधेड़बुन में लगे रहते थे। रफी अहमद किदवई ने तो एक बार पटेल और उनकी दक्षिणपंथी नीतियों के चलते नेहरू को ये सुझाव भी दिया था कि उन्हें इन दकियानूसी लोगों का साथ छोड़ समाजवादी पार्टी बनानी चाहिए थी।

हिंदूस्तान टाइम्स के संपादक 'दुर्गा दास' अपनी किताव 'इंडिया फ्राम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर' में लिखते हैं कि रफी अहमद को पूरा भरोसा था कि अगर नेहरू नई पार्टी बनाएंगे तो वो पहले आम चुनाव में आसानी से बहुमत ले आएंगे और समाजवादी नीतियों को लागू करने मे कोई दिक्कत नहीं आएगी। नेहरू ने तब जवाब दिया था कि 'अभी जरूरत आजादी को मजबूत करने की है' और ये जानते थे कि वो और पटेल ये काम मिलकर कर सकते है अकेले नहीं।

ऐसा नहीं था कि दोनों में तकरार नहीं होती थी। कई बार दोनों नेताओं ने इस्तीफे तक देने की धमकी दे डाली थी। नेहरू की इच्छा के विरुद्ध पुरुषोत्तम दास टंडन जब कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो नेहरू ने पार्टी और सरकार दोनों से इस्तीफा देने का मन बना लिया था लेकिन ऐसा हुआ नहीं, कुछ नेहरू के इतिहासबोध की वजह से और कुछ टंडन के बड़प्पन के कारण।

एक बार कैबिनेट की बैठक में नेहरू और पटेल के बीच कहासुनी हो गई, नेहरू ने मेज पर मुक्का मारते हुए कहा 'पटेल तुम्हारे जो मन में आये करो'। पटेल बहुत नाराज हो गए, उन्होंने दुर्गादास से कहा 'नेहरू पागल हो गये है और अब मैं उनको बर्दास्त करने को तैयार नहीं हूं'।

दुर्गादास के मुताबिक पटेल ने उनसे कहा कि वो गांधीजी के पास जा रहे हैं और उनसे कहेंगे कि वो इस्तीफा दे देंगे। दुर्गादास ने कहा कि 'गांधी जी उनको कभी भी छो़ड़ने नहीं देगे क्योंकि गांधी जी मानते हैं कि पटेल और नेहरू दो बैलों की जोड़ी हैं जो सरकार को खींच रहे हैं'। तब झल्ला कर पटेल बोले 'बुड्ढा सठिया गया है, वो समझते हैं कि माउंटबेटेन हमारे और नेहरू के बीच बीचबचाव कर सकते हैं'।

पटेल ने अपनी मौत से कुछ दिन पहले एक जगह कहा भी है कि 'मैं नेहरू से बेहद स्नेह करता था लेकिन नेहरू ने कभी भी मुझे इस लायक नहीं समझा'। ये झगड़ा गांधी के समय भी था और उनके बाद भी बना रहा लेकिन अगर इस झगड़े में अहं का टकराव होता और अपने दरबारियों की बात में आकर दोनों अपने रास्ते अलग कर लेते तो शायद भारत का इतिहास कुछ और होता और या शायद हम आज लोकतंत्र भी नहीं होते।

ये वो वक्त था जब तमाम मतभेदों के बीच संविधान बन रहा था, दंगे हो रहे थे, विभाजन का दर्द झेलते लाखों करोड़ो लोगों का खयाल रखना था, पांच सौ से ज्यादा छोटे-छोटे राजाओं को देश में मिलाना था, साम्यवादियों का तेलंगाना आंदोलन दबाना था, कश्मीर पर पाकिस्तान का हमला निपटना था और सबसे बड़ी बात, आजादी की नींव को मजबूत करना था।

दोनों ने अपने अहं को अहमियत नहीं दी इतिहास में अपनी भूमिका को पहचाना और अपने उसूलों से समझौता किए बिना दो बैलों की जोड़ी बने रहे। शायद आज आडवाणी और भागवत को इसी इतिहास दृष्टि से काम लेना होगा नहीं तो संघ परिवार तो रहेगा लेकिन इतिहास सम्मान की नजर से इन्हें देखेगा इसमे संदेह है। क्योंकि ये सही है कि इतिहास में अहं नहीं होता लेकिन वो भूलता भी नहीं है और खासतौर से उनको जो इतिहास को नहीं समझते और न ही उससे सबक लेते हैं।

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