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सोमवार, 1 जून 2009

सौ दिन का एजेंडा

इस सूचना से उत्साहित नहीं हुआ जा सकता कि संप्रग सरकार ने सौ दिन का अपना एजेंडा तय कर लिया है। फिलहाल यह जानना कठिन है कि इस एजेंडे में क्या शामिल है और क्या नहीं, लेकिन कोई भी अनुमान लगा सकता है कि उन समस्याओं का समाधान प्राथमिकता के आधार पर खोजने की रूप-रेखा बनाई गई होगी जो राष्ट्र के समक्ष उपस्थित हैं और जिन्हें गंभीर माना जा रहा है। यह भी स्पष्ट है कि मंदी का माहौल को दूर करना और पाकिस्तान से उबर रहे खतरे से बचे रहना इस एजेंडे का हिस्सा का होंगे, लेकिन इन समस्याओं के अतिरिक्त जो अन्य अनेक जटिल मुद्दे सतह पर हैं वे ऐसे नहीं कि केवल सौ दिन में उन्हें सुलझाया जा सके। इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि संप्रग शासन के पास न तो कोई जादू की छड़ी है और न हो सकती है। यह संभव है कि केंद्र सरकार सौ दिन के एजेंडे के बहाने कुछ ऐसी घोषणाएं करने में समर्थ हो जाए जो जनता का ध्यान आकर्षित करने और उसमें उम्मीदों का संचार करने वाली हों, लेकिन यदि संप्रग सरकार दूसरी पारी में वास्तव में कुछ ठोस और बेहतर करना चाहती है तो फिर उसे शासन के तौर-तरीके बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। भारत की शासन व्यवस्था जिस तरह से चलाई जा रही है उसमें आमूल-चूल परिवर्तन समय की मांग है। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले पांच वर्षो में विभिन्न समस्याओं का समाधान समितियों और आयोगों के जरिये खोजने की जो तरकीब अपनाई गई उससे देश को कुछ हासिल नहीं हुआ। पिछले पांच वर्षो में विभिन्न समितियों और आयोगों की सिफारिशें सामने तो आई, लेकिन वे विचार-विमर्श के बहाने ठंडे बस्ते में चली गई। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को भी ठंडे बस्ते में डालने का काम किया गया। इसी तरह न्यायिक सुधार की बातें तो खूब की गई, लेकिन कुछ ठोस कदम उठाने से इनकार किया गया। कुछ आवश्यक कार्य ऐसे थे जो सत्ता में आते ही किए जाने चाहिए थे, लेकिन उनकी सुधि तब ली गई जब चुनाव सिर पर आ गए। इसी तरह कुछ कार्य तो पूरी तरह भुला ही दिए गए। दरअसल महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरकार ने सौ दिन के लिए क्या एजेंडा तय किया है, बल्कि यह है कि वह अपने कामकाज का रंग-ढंग बदलने जा रही है या नहीं? अच्छा तो यह होगा कि वह सौ दिन के अंदर उन तौर-तरीकों से छुट्टी पा ले जो सिर्फ लालफीताशाही के अस्तित्व में होने की कहानी कहते हैं। केंद्रीय सत्ता को उन अनेक परंपराओं से भी पीछा छुड़ा लेना चाहिए जिनकी आज के युग में कहीं कोई अहमियत नहीं रह गई है। बगैर ऐसा किए केंद्रीय शासन को गतिशील नहीं किया जा सकता और यदि केंद्रीय सत्ता के कामकाज में सुधार नहीं होगा तो राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली में शायद ही कोई परिवर्तन आए। भले ही सत्ता में वापसी के आधार पर कांग्रेस और उसके सहयोगी दल यह दावा करें कि यह संप्रग शासन की कार्य कुशलता और दक्षता का परिणाम है, लेकिन समझदारी इसी में है कि पिछले पांच वर्ष के कार्यकाल की नाकामियों पर ध्यान दिया जाए। यदि यह मानकर चला जाएगा कि नरेगा जैसी जन कल्याणकारी योजनाएं सही तरह चल रही हैं तो इसे यथार्थ की अनदेखी ही कहा जाएगा।

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