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रविवार, 21 जून 2009

स्वीकार्य नहीं गुजकोका

केन्द्र सरकार ने दूसरी बार गुजरात संगठित अपराध नियंत्रण कानून (गुजकोका) को अमान्य कर दिया है। पिछली बार मनमोहन मंत्रिमंडल ने जब इसे राज्य विधानसभा को वापस भेजने की सिफारिश राष्ट्रपति से की थी, तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने "वोट बैंक राजनीति" और "विरोधी दलों की सरकारों के साथ कांग्रेस के भेदभाव" का आरोप लगाया था, पर शायद इस बार वे ऎसा नहीं कर पाएंगे।
दरअसल केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच पत्र व्यवहार का संवेदनशील ब्यौरा उजागर नहीं करने की परम्परा है। शुक्रवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक के बाद "गुजकोका" को वापस भेजने के निर्णय की संवाददाताओं को जानकारी देते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम् ने इस पर तीन आपत्तियां बताईं। इससे मोदी के इस दावे की पोल खुल गई कि संशोधित "गुजकोका" भी कर्नाटक और महाराष्ट्र के आतंक-विरोधी कानूनों की तरह है। हकीकत यह है कि गुजरात सरकार "गुजकोका" के जरिये ऎसे अपरिमित अधिकार चाहती है, जो मानवाधिकारों का सम्मान करने वाली कोई लोकतांत्रिक सरकार स्वीकार नहीं कर सकती।
गुजकोका के प्रावधानों पर केन्द्र की पहली आपत्ति यह है कि इसमें पुलिस अधिकारी के समक्ष इकबालिया बयान को अदालत में स्वीकार्य बनाया गया है। सभी जानते हैं कि पुलिस मामूली चोरी को भी कबूल करवाने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाती है। यही नहीं गुजकोका में एक प्रावधान यह भी किया गया है कि यदि लोक अभियोजक विरोध करे तो अदालत जमानत मंजूर नहीं कर सकती। यह तो हद हो गई! फिर अदालत की जरू रत ही क्या है मुल्जिम को लोक अभियोजक के समक्ष पेश कर ही जमानत पर फैसला करवा लिया जाए। केन्द्र सरकार को गुजकोका की धारा 20 (2) पर भी आपत्ति है। इस धारा में प्रावधान संभवत: इतना "संवेदनशील" है कि चिदम्बरम् को चुप्पी ही साधनी पडी। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ये तीन संशोधन गुजरात सरकार कर दे, तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल उसे राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज सकता है। क्या मोदी अब भी यही दावा करेंगे कि केन्द्र सरकार "भेदभाव" कर रही है भले ही गुंडे, डाकू, उग्रवादी, फिरकापरस्त और आतंककारी मानवाधिकारों की इज्जत नहीं करते, पर लोकतांत्रिक समाज तो उन्हें इनसे कतई वंचित नहीं कर सकता। गुजरात सरकार को भी यह बात माननी ही पडेगी

सोमवार, 1 जून 2009

आरटीआई क्षेत्र में बेहतर काम का मिलेगा पुरस्कार

सूचना अधिकार कानून आजाद भारत में आम आदमी को मिला शायद सबसे धारदार हथियार है। यह ऐसा अधिकार है जो गांव की गली में बिछे खड़ंजे की लागत से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों की माली हैसियत पर भी सवाल पूछने की ताकत देता है। यह कानून जिन लोगों के दम पर चला और दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते बेहाल हुए इंसान के हक की आवाज बन सका, लगन के धनी ऐसे लोगों को अब राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा सकेगा। पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन (पीसीआरएफ) देश भर के चुनिंदा आरटीआई एक्टीविस्ट को नवंबर में पुरस्कृत करेगी। सूचना का अधिकार कानून को और लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से शुरू सूचना का अधिकार-राष्ट्रीय पुरस्कार 2009 में पहले दो पुरस्कार सरकारी दफ्तरों में तैनात उन जनसूचना अधिकारियों के लिए होंगे, जिन्होंने आवदेक को बिना दौड़ाए उसे जानकारी उपलब्ध करा दी। एक पुरस्कार आवेदनों पर फैसला लेने वाले सूचना आयुक्तों के लिए होगा और दो पुरस्कार सूचना आवेदकों के लिए होंगे। सभी पांचों विजेताओं को दो-दो लाख रुपये नकद, ट्राफी और सम्मान पत्र दिया जाएगा। इन पांच के अलावा अंतिम सूची में स्थान बनाने वाले प्रतिभागियों को भी संस्था एक ट्राफी देगी। देश में अपनी तरह के इन पहले पुरस्कारों के सूत्रधार अरविंद केजरीवाल के मुताबिक सभी आवेदन पहली जून से 30 जून तक स्वीकार किए जाएंगे। प्रविष्टियों पर विचार देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह, इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति, अभिनेता आमिर खान, पूर्व राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियन पुलेला गोपीचंद, नृत्यांगना मल्लिका साराभाई, वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन, दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्त, एनडीटीवी के अध्यक्ष डा. प्रणय राय और वरिष्ठ पत्रकार मधु त्रेहन का निर्णायक मंडल करेगा।अब आते हैं पुरस्कारों के आधार पर। सूचना आयुक्तों और जनसूचना अधिकारियों के लिए मानक का आधार तो उनके दायित्वों का उचित निर्वहन ही होगा। लेकिन सूचना आवेदन करने वालों की दो श्रेणियां होंगी। केजरीवाल के अनुसार पहली श्रेणी उन लोगों की होगी जिनके आवेदन पर दिसंबर 2008 तक कोई बड़ा फैसला आया हो या उसका बड़ा इंपैक्ट हुआ हो। दूसरी श्रेणी में वे लोग होंगे जिनके आवेदन का जवाब तो नहीं आया, लेकिन उस पर असर उतना ही व्यापक हुआ। आशय यह कि कई बार सरकारी विभाग जवाब देने से तो डरते हैं लेकिन चुपचाप वांछित कार्रवाई भी कर देते हैं। सूचना आवेदकों की इन दोनों श्रेणियों को यह छूट भी है कि वे 2005 में सूचना कानून लागू होने से लेकर दिसंबर 2008 तक के अपने आवदेनों का ब्यौरा भेज सकते हैं।

सौ दिन का एजेंडा

इस सूचना से उत्साहित नहीं हुआ जा सकता कि संप्रग सरकार ने सौ दिन का अपना एजेंडा तय कर लिया है। फिलहाल यह जानना कठिन है कि इस एजेंडे में क्या शामिल है और क्या नहीं, लेकिन कोई भी अनुमान लगा सकता है कि उन समस्याओं का समाधान प्राथमिकता के आधार पर खोजने की रूप-रेखा बनाई गई होगी जो राष्ट्र के समक्ष उपस्थित हैं और जिन्हें गंभीर माना जा रहा है। यह भी स्पष्ट है कि मंदी का माहौल को दूर करना और पाकिस्तान से उबर रहे खतरे से बचे रहना इस एजेंडे का हिस्सा का होंगे, लेकिन इन समस्याओं के अतिरिक्त जो अन्य अनेक जटिल मुद्दे सतह पर हैं वे ऐसे नहीं कि केवल सौ दिन में उन्हें सुलझाया जा सके। इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि संप्रग शासन के पास न तो कोई जादू की छड़ी है और न हो सकती है। यह संभव है कि केंद्र सरकार सौ दिन के एजेंडे के बहाने कुछ ऐसी घोषणाएं करने में समर्थ हो जाए जो जनता का ध्यान आकर्षित करने और उसमें उम्मीदों का संचार करने वाली हों, लेकिन यदि संप्रग सरकार दूसरी पारी में वास्तव में कुछ ठोस और बेहतर करना चाहती है तो फिर उसे शासन के तौर-तरीके बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। भारत की शासन व्यवस्था जिस तरह से चलाई जा रही है उसमें आमूल-चूल परिवर्तन समय की मांग है। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले पांच वर्षो में विभिन्न समस्याओं का समाधान समितियों और आयोगों के जरिये खोजने की जो तरकीब अपनाई गई उससे देश को कुछ हासिल नहीं हुआ। पिछले पांच वर्षो में विभिन्न समितियों और आयोगों की सिफारिशें सामने तो आई, लेकिन वे विचार-विमर्श के बहाने ठंडे बस्ते में चली गई। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को भी ठंडे बस्ते में डालने का काम किया गया। इसी तरह न्यायिक सुधार की बातें तो खूब की गई, लेकिन कुछ ठोस कदम उठाने से इनकार किया गया। कुछ आवश्यक कार्य ऐसे थे जो सत्ता में आते ही किए जाने चाहिए थे, लेकिन उनकी सुधि तब ली गई जब चुनाव सिर पर आ गए। इसी तरह कुछ कार्य तो पूरी तरह भुला ही दिए गए। दरअसल महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरकार ने सौ दिन के लिए क्या एजेंडा तय किया है, बल्कि यह है कि वह अपने कामकाज का रंग-ढंग बदलने जा रही है या नहीं? अच्छा तो यह होगा कि वह सौ दिन के अंदर उन तौर-तरीकों से छुट्टी पा ले जो सिर्फ लालफीताशाही के अस्तित्व में होने की कहानी कहते हैं। केंद्रीय सत्ता को उन अनेक परंपराओं से भी पीछा छुड़ा लेना चाहिए जिनकी आज के युग में कहीं कोई अहमियत नहीं रह गई है। बगैर ऐसा किए केंद्रीय शासन को गतिशील नहीं किया जा सकता और यदि केंद्रीय सत्ता के कामकाज में सुधार नहीं होगा तो राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली में शायद ही कोई परिवर्तन आए। भले ही सत्ता में वापसी के आधार पर कांग्रेस और उसके सहयोगी दल यह दावा करें कि यह संप्रग शासन की कार्य कुशलता और दक्षता का परिणाम है, लेकिन समझदारी इसी में है कि पिछले पांच वर्ष के कार्यकाल की नाकामियों पर ध्यान दिया जाए। यदि यह मानकर चला जाएगा कि नरेगा जैसी जन कल्याणकारी योजनाएं सही तरह चल रही हैं तो इसे यथार्थ की अनदेखी ही कहा जाएगा।