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शनिवार, 23 मई 2009

अरक्षित दलित


शहरों में सामाजिक बदलाव की बयार के बीच गांवों में अब भी दलित समाज मुख्यधारा में से अलग थलग पडा हुआ है। दलितों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाने के बावजूद उन्हें अब भी सामाजिक समानता हासिल नहीं हो पा रही। भीलवाडा जिले में दलित अत्याचार की बढती घटनाओं ने प्रशासन की चिन्ता बढा दी है। दलित समुदाय में अरक्षा के भाव पनपने से गांवों में सामाजिक सौहार्द का माहौल भी बिगडने का खतरा है। जहाजपुर तहसील के ऊंचा गांव में दलित दूल्हे की बिन्दोली पर तेजाब फेंकने से दूल्हे सहित छह जने झुलस गए। कुछ दिन पूर्व हमीरगढ क्षेत्र के तख्तपुरा गांव में भी एक दलित दूल्हे को घोडी से उतार दिया गया। भीलवाडा जिले में एक यज्ञ में दलितों को शामिल करने को लेकर भी विवाद की स्थिति है। दलितों पर अत्याचार की घटनाएं अन्य जिलों में भी सामने आती रहती हैं। ऎसी घटनाओं पर स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले नेताओं व संगठनों की भी कमी नहीं है। इनसे दलितों को भी सावधान रहना होगा। सरकार को भी यह समझना होगा कि दलित सुरक्षा के कानून बना देने से उनको समाज में व्यावहारिक धरातल पर समानता का हक नहीं हासिल होगा। इसके लिए जरूरत सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की है। दलित समाज की बिन्दोली को रोकने के पीछे के कारणों को खोजना होगा। दलितों को बराबरी का नहीं मानने वाले लोगों को कानून की लाठी से हांकने के बजाय सामाजिक स्तर पर उनकी मानसिकता बदलनी होगी। गांव में दलितों को बराबरी का हक नहीं देने वालों को भी अब समझ लेना होगा कि जमाना बदल चुका। अब किसी जाति या व्यक्ति को अछूत या नीचे के स्तर का नहीं माना जा सकता। दलितों में सुरक्षा का भाव जागृत करने के लिए प्रशासन के साथ गांव के प्रभावशाली तबकों को भी पहल करनी होगी।

मंगलवार, 19 मई 2009

भटकती भाजपा


इस बार लोकसभा चुनावों में भी भाजपा की वैसी ही स्थिति उभरकर सामने आई, जैसी कि पिछले लोकसभा चुनाव में आई थी। शायनिंग इण्डिया का नारा अंधेरे में दबकर रह गया था। अपनी इतनी बड़ी हार से भाजपा में बौखलाहट का बड़ा वातावरण भी दिखाई दिया। इस बार भी दावे तो आसमान से नीचे ही नहीं उतरे, किन्तु भाजपा चारों खाने चित्त हो गई। लालजी ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि यदि मैं पी.एम. नहीं बना तो घर लौट जाऊंगा।

न पी.एम. ही बने, न घर ही लौटे। भाजपा की यह सबसे बड़ी भूल साबित हुई कि उनको इतना पहले से ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस सम्मान को पचा सकना उनके लिए असंभव हो गया। इस पूरे काल में उनके तेवर भी प्रधानमंत्री जैसे ही रहे। अन्तत: जनता ने ही उनके नेतृत्व को नकार दिया। चुनाव प्रचार के दौरान ही एक और समझदार नेता ने अपने पिटारे से मोदी का नाम छोड़ दिया। इसका एक अर्थ यह था भाजपा के एक धड़े को भी आडवाणी का नेतृत्व स्वीकार नहीं है और वह भी ऎन चुनाव के पहले। भाजपा का इससे बड़ा नुकसान तो कांग्रेस ने भी नहीं किया। इस घोषणा से नरेन्द्र मोदी भी फुफकारने लग गए। सभी नेताओं की वाणी से विष उगला जा रहा था। इसका परिणाम भी वही होना था। भाजपा के सहयोगी दलों ने भी मोदी को नकार दिया।

दिल्ली के गढ़ में भाजपा का एक संतरी भी नहीं बचा। उत्तराखण्ड में भी भाजपा को बैरंग लौटना पड़ा। राजस्थान में अकाल पड़ गया। मात्र चार सीटों पर संतोष करना पड़ा। चुनाव प्रचार में यहां भी बयानबाजी का बड़ा दौर चला था। गुलाब चन्द कटारिया की रथ यात्रा आगे बढ़ती गई और पीछे-पीछे भाजपा की चादर सिमटती चली गई। पहले ही दिन से उदयपुर की पांच सीटें कांग्रेस को जाती दिखाई दे रही थीं, राजसमन्द को छोड़कर। भाजपा के लोग इस बात को मानने को तैयार नहीं थे। राजस्थान में हम इन चुनावों के आंकड़ों को पिछले चुनाव के आंकड़ों से मिलाएं तो पता चल जाएगा कि भाजपा का मतदाता उदासीन होता जा रहा है। सन् 2003 में विधानसभा और सन् 2008 के विधानसभा में कांग्रेस के पक्ष का मतदान मात्र 1 प्रतिशत बढ़ा था, जबकि भाजपा के पक्ष में लगभग 5 प्रतिशत मतदाता घटे थे। सन् 2004 के और सन् 2009 के लोकसभा चुनाव कहानी को और आगे ले गए। कांग्रेस के पक्ष में 5.75 प्रतिशत वोट बढ़े, किन्तु भाजपा के पक्ष में टूट 12.44 प्रतिशत की हुई। शेष मतदाता वोट डालने नहीं आए।

कांग्रेस के हारे हुए विधायक सी.पी. जोशी और लालचन्द कटारिया सांसद चुने गए, जबकि भाजपा के जीते हुए विधायक घनश्याम तिवाड़ी, किरण माहेश्वरी और राव राजेन्द्र सिंह चुनाव हार गए। एक बात और भी है कि गांवों में रोजगार गारण्टी योजना का प्रभाव भी दिखाई पड़ा। भाजपा की कई योजनाएं लागू ही नहीं हो पाई।

किसी की नहीं मानना भी भाजपा के लिए शान की बात हो गई है। चाहे राजनाथ सिंह हो, चाहे आडवाणी, सुषमा स्वराज या वसुन्धरा राजे। इनके लिए तो सही उतना ही है जो इनको सही लगता है। इस पर भी जातिवाद का भूत भीतर इतना उतर गया है कि लोगों को राष्ट्रवाद छोटा सा जान पड़ता है। लोग अपनी-अपनी जाति के बाहर नेतृत्व देने को ही तैयार नहीं है। प्रचार के दौरान भाजपा की छवि गिरती चली गई और किसी के भी कान खड़े नहीं हुए। भ्रष्टाचार और अपराधियों को शरण देने में भी किसी पार्टी से पीछे नहीं रही। आज भी भाजपा अपनी साम्प्रदायिक छवि से उबर नहीं पाई है। नई पीढ़ी का मतदाता शान्ति चाहता है।

राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका क्या हो, इस पर वह सोचे। आज भाजपा से न कार्यकर्ता संतुष्ट है, न ही देश। भाजपा ही देश की दूसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी भी है। हर बार इसी तरह मार खानी हो तो इसकी मर्जी, किन्तु कुछ करने लायक बनना है तो पार्टी का पुनर्गठन एवं नीतियों का आकलन करना होगा। सभी पुराने चेहरों को सलाहकार का दर्जा देकर पीछे की सीट पर बिठा देना चाहिए। कांग्रेस में भी ऎसे ही लोग "घुण" का कार्य कर रहे हैं। वहां तो नीचे पोल ही पोल है। भाजपा में तो ऎसा नहीं है। केवल अहंकार है।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि दो बड़े दलों में से एक पटरी से उतर गया है। वरना तीसरे मोर्चे की जरूरत ही देश को नहीं पड़ती। सब जानते हैं कि तीसरा और चौथा मोर्चा किन लोगों का गठबन्धन है और देश को क्या दे सकता है। भाजपा में यदि आवश्यक सुधार नहीं हुआ तो ये लोग ही लोकतंत्र के नायक होंगे।

मंगलवार, 12 मई 2009

चुनाव में मीडिया की संदिग्ध भूमिका पर नागरिकों का मत

हम नागरिक, लोक सभा चुनाव २००९ के दौरान राजनीतिक पार्टियों एवं चुनाव प्रत्याशियों द्वारा किये गए मीडिया के दुरूपयोग से, बहुत चिंतित हैं. हमें इस बात से भी आपत्ति है कि मीडिया ने अपना दुरूपयोग होने दिया है. यह पाठक के उस मूल विश्वास को तोड़ता है जिसके आधार पर निष्पक्ष एवं संतुलित खबर पढ़ने के लिए पाठक पैसा दे कर समाचार पत्र खरीदता है. मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में माना गया है परन्तु मीडिया के द्वारा प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया की चुनाव के दौरान पत्रकारिता हेतु मार्गनिर्देश (१९९६) के निरंतर होते उल्लंघन ने उसकी लोकतंत्र में सकारात्मक भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.

समाचार, विचार और प्रचार के बीच भेद ही नहीं रह गया है. पाठक को यह बताने के लिए कि प्रकाशित सामग्री समाचार, विचार या चुनाव प्रचार है, छोटे अक्षरों में 'ए.डी.वी.टी' या 'मार्केटिंग मीडिया इनिशिएटिव' छापना पर्याप्त नहीं है. कुछ समाचार पत्र तो यह भी छापने का कष्ट नहीं उठाते हैं.

मोटे तौर पर कहा जाए तो खबर से सम्बंधित निर्णय लेने में संपादक की भूमिका पर अब मार्केटिंग वाले सहकर्मी हावी हो रहे हैं. छोटे जिलों या शहर-नगर-कस्बों में तो अक्सर जो व्यक्ति संवाददाता होता है उसी को विज्ञापन इकठ्ठा करने की जिम्मेदारी भी दे दी जाती है, जिसके फलस्वरूप वो विज्ञापन-दाताओं की खबर को महत्व देता है और अक्सर विज्ञापन न देने वाले लोगों की खबर को नज़रंदाज़ कर देता है.

विज्ञापन, 'विज्ञापन-जैसे-संपादकीय', 'मार्केटिंग मीडियाइनिशिएटिव' और अन्य ऐसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीकों से जो खबर मीडिया में आती है, उसपर हुआ व्यय, अक्सर चुनाव आयोग द्वारा तय की गई २५ लाख रूपये के अधिकतम चुनाव खर्च सीमा से, अधिक होता है. इसलिए मीडिया अब इन प्रत्याशियों की मिलीभगत से चुनाव के दौरान लागू आचार संहिता का उलंघन कर रही है.

मीडिया में छप रहे विज्ञापनों, विज्ञापन-जैसी-ख़बरों आदि पर हुए पूरे व्यय निर्वाचन अधिकारीयों को नहीं दिए जाते हैं. मीडिया को यह रपट देनी चाहिए जिससे यह पता चल सके कि किस राजनीतिक पार्टी ने और किस चुनाव प्रत्याशी ने मीडिया पर कितना व्यय किया है. 

राजनीतिक पार्टियों के संचालन हेतु कोई भी कानून नहीं है, ऐसा कानून बनना चाहिए। चुनाव में अधिकतम खर्च-सीमा के उलंघन की सज़ा भी अधिक सख्त होनी चाहिए और मौजूदा चुनाव में ही लागू होनी चाहिए. वर्त्तमान में चुनाव में अधिकतम-खर्च सीमा के उलंघन की सज़ा सिर्फ़ अगले चुनाव में ही लागू होती है, जो पर्याप्त अंकुश नहीं है.

इलेक्ट्रोनिक मीडिया (टीवी) के लिए भी प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी नियामक संस्था होनी चाहिए।

समाचार पत्रों को 'ओम्बुड्समैन' या विश्वसनीय लोकपाल नियुक्त करने के लिए देश-भर में उठ रही मांग का हम समर्थन करते हैं।

मूल रूप से हम नागरिक यह चाहते है कि मीडिया लोकतंत्र में निगरानी करने वाली निष्पक्ष भूमिका को पुन: ग्रहण करे. आर्थिक स्वार्थ के लिए मीडिया को अपनी स्वायत्ता को दाव पर नहीं लगानी चाहिए. जब लोगों का लोकतान्त्रिक संस्थाओं में विश्वास उठ रहा हो, तो मीडिया को इस पतन में शामिल होने के बजाय, लोकतंत्र में नागरिकों के विश्वास को पुनर्स्थापित करना चाहिए.

सोमवार, 11 मई 2009

कैसे लौटे काली कमाई


दिल्ली में बनने वाली नई केन्द्रीय सरकार के समक्ष एक चुनौती यह भी होगी कि स्विट्जरलैंड जैसे देशों की बैंकों में जमा भारतीयों की काली कमाई को कैसे वापस स्वदेश लाया जाए। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्वतंत्रता के बाद से ही विश्व के 70 देशों की बैंकों में भारत का कालाधन जमा होता रहा है। समय-समय पर इसके अनुमान तो लगाए जाते हैं, लेकिन उनके सही होने को कोई प्रमाणित नहीं कर सकता। पिछले साल अखबारों में स्विस बैंकर्स एसोसिएशन की 2006 की वार्षिक रिपोर्ट के हवाले से छपा था कि स्विस बैंकों में भारत के नागरिकों के 1.45 खरब अमरीकी डालर जमा हैं। यह रकम किसी अन्य देश के नागरिकों की रकम की तुलना में बहुत ज्यादा है। दरअसल विश्लेषकों ने हिसाब लगाया कि शेष सभी देशों के नागरिकों की वहां कुल जमा रकम से भी यह अधिक है।

अर्थशाçस्त्रयों का मत है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहले चार दशकों में तो आयकर की दरें बहुत अधिक थीं और कर वसूली ढांचा कमजोर, इसलिए कर चोरी की संस्कृति विकसित हुई। आयात पर बेतहाशा करों के कारण तस्करी खूब होती थी, जिससे समानांतर काली अर्थव्यवस्था मजबूत हुई। सरकार के सभी विभागों में भ्रष्टाचार का स्तर बेहद बढ़ने और कर चोरों के लिए स्वर्ग माने जाने वाले देशों में बैंकों से गोपनीयता के नाम पर सुरक्षा मिलने के कारण उनमें भारतीयों द्वारा कालाधन जमा कराने का सिलसिला शुरू हुआ। जैन हवाला कांड में बरामद मोटी रकम और दस्तावेजों से बढ़ते हवाला कारोबार का खुलासा हुआ था। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और कर की दरें घटने के बाद पिछली सदी के आखिरी दशक में उम्मीद बंधी थी कि कर चोरी और भारत से बाहर कालाधन भेजने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगी। लगता है कि यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है। हालांकि करदाता और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों से मिलने वाली रकम में कई गुना बढ़ोतरी हुई है, लेकिन स्पष्ट है कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ करने की जरू रत है। विदेशी मुद्रा विनिमय कानून के उल्लंघनों का पता लगाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) पहले ही बना हुआ है। 

खेद की बात है कि इसका रिकार्ड और उपलब्धियां बहुत खराब रही हैं। यह समय-समय पर विवादों में घिरता रहा है और इसके आला अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोपों में उलझते रहे हैं। इसकी एक बड़ी कमी यह रही है कि इसका प्रमुख कोई आई.ए.एस. ही हो सकता है। मैं इसके कई निदेशक अधिकारियों को व्यक्तिगत रू प से जानता हूं। वे नि:संदेह होशियार, समर्पित और ईमानदार अधिकारी रहे हैं, लेकिन वे इस काले धंधे की गहराई तक नहीं पहुंच पाते। दो वर्ष का कार्यकाल किसी विशिष्ट जांच एजेंसी के प्रमुख के लिए बहुत कम होता है। इस काम को कस्टम, आयकर और पुलिस के अधिकारी ज्यादा बेहतर तरीके से अंजाम दे सकते हैं।

प्रवर्तन निदेशालय के जांचकर्ता के लिए विशेषज्ञता और क्षमता का जो स्तर अपेक्षित है, उसे निर्मित नहीं किया जा सकता। इस बुराई पर काबू पाने में भारतीय रिजर्व बैंक, कस्टम्स, सीबीआई और सेबी की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। नई सरकार को इसके लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति दर्शानी होगी तथा ईडी को मजबूत और सक्षम बनाने के लिए गंभीरता से प्रयास करने होंगे, तभी इस मोटी रकम का एक अंश भारत वापस लाने में सफलता मिल पाएगी। विशेषज्ञों की टोली बनाकर इस काम के लिए ठोस योजना बनानी होगी।

राम जेठमलानी, केपीएसगिल, सुभाष कश्यप आदि ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह मामला उठाया है। इस मामले की सुनवाई के दौरान पुणे के हसन अली खां और उनके सहयोगी कोलकाता के काशीनाथ तापडि़या के मामले का उल्लेख हुआ। वर्ष 2007 में आयकर छापे के दौरान खां के घर से बरामद कम्प्यूटर में स्विट्जरलैंड के यूबीएस बैंक में जमा 70 हजार करोड़ रूपए का ब्यौरा था।

उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने इस तथ्य पर नाराजगी जताई कि खां वगैरह के खिलाफ कालेधन कानून के तहत कार्रवाई क्यों शुरू नहीं की गई। कर चोरी और अवैध तरीकों से जुटाई गई रकम दूसरे देशों के बैंकों में जमा करने का मामला हाल ही जी-20 देशों की बैठक में भी उठा था। सदस्य देशों ने इस प्रवृत्ति पर गहरी चिंता जताते हुए ऎसी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संबद्ध देशों पर गोपनीयता नियमों में संशोधन के वास्ते दबाव बनाने का निर्णय किया था। विभिन्न देशों के कानूनों में संशोधन में लम्बा समय लगेगा, इसलिए सक्रिय पहल के जरिए इस समस्या से निपटा जा सकता है। अमरीका के आंतरिक राजस्व विभाग के अधिकारियों की कोशिशों के चलते अमरीका की एक अदालत ने यूबीएस बैंक पर 78 करोड़ डालर का जुर्माना ठोका है। बैंक जुर्माना देने के साथ ही अपने 47 हजार अमरीकी खातेदारों के नाम बताने को राजी हो गया है। इसके लिए उसने कुछ मोहलत मांगी है। आयरलैंड ने भी जर्मनी की बैंकों से 60 लाख डालर वसूले हैं। यह काम दुष्कर जरू र है लेकिन किसी व्यक्ति की असली परीक्षा तभी होती है जब उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यही बात राष्ट्रों पर भी लागू होती है। यह वक्त ही बताएगा कि क्या नई सरकार अपने इरादे और क्षमता दिखाकर कुछ करती है या इसे भी रोजमर्रा की समस्याओं की तरह मानती है। कई अहम मसलों पर भूतकाल में पूरे मनोयोग से कदम नहीं उठाए गए। उच्चतम न्यायालय में भी इस मामले पर सुनवाई होनी है। हाल के दिनों में देश से जुड़े ऎसे ही महत्वपूर्ण मुद्दों पर अदालत कदम उठा चुकी है। देखते हैं कि इस मामले में वह क्या करती है।

चुनावी चौसर पर रक्तपात


यह घोर विडम्बना है कि राजनीति में नैतिकता के मन्त्र-द्रष्टा महात्मा गांधी के इस देश में बाहुबलियों एवं अपराधियों का जोर बढ रहा है। लोक दिखावे के लिए राजनीति के अपराधीकरण की सभी पार्टियां निन्दा कर चुकी हैं, परन्तु हाथी के दांत खाने और दिखाने के और। नैतिकता की दुहाई देने वाली राजनीतिक पार्टियों को चुनाव में अपराधी गिरोहों का सहयोग लेने में कोई हिचक महसूस नहीं हो रही है। लोकसभा चुनावों में इस बार भी नामी-गिरामी गैंगस्टरों, हिस्ट्रीशीटरों, माफिया डॉनों की भरमार रही। अब तो राजस्थान जैसे शांत प्रदेश में भी खुलकर गोलियां चलीं तथा हथियारों और बाहुबल का जमकर उपयोग और प्रदर्शन हुआ।
आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों की तीन श्रेणियां हैं- वे जो सजायाफ्ता हैं, वे जिनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल हैं और वे जो आरोपी हैं। कई सजायाफ्ता या आरोपी नेताओं ने इस बार अपनी बीवियों को पार्टियों के टिकट दिला दिए हैं। बिहार इसमें अग्रणी है। वहां बाहुबलियों का बोलबाला है और घोटालों का घटाटोप है। राजद सुप्रीमो लालू स्वयं 950 करोड के चारा घोटाले में फंसे हैं। इसी दल के निवर्तमान सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन सजायाफ्ता होने की वजह से सीवान से चुनाव नहीं लड पाए, तो उन्होंने बेगम हिना शहाब को राजद का टिकट दिलवा दिया। राजद सांसद एवं हत्या के आरोप में वर्षो से जेल में बंद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव फिलहाल जमानत पर रिहा हैं। चुनाव लडने की उन्हें इजाजत नहीं मिली, तो उनकी पत्नी रंजीत रंजन अब कांग्रेस टिकट पर सुपौल से चुनाव मैदान में उतर गई। माफिया डॉन सूरजभान भी चुनावी जंग में उतरने के लिए पूरी तरह से तैयार थे, परन्तु हाईकोर्ट से इजाजत न मिलने पर उन्होंने अपनी पत्नी को लोजपा का टिकट दिलवा दिया। उत्तर प्रदेश भी माफिया डॉनों के लिए कुख्यात है। चौदहवीं लोकसभा में उत्तर प्रदेश के 80 सांसदों में से 23 के खिलाफ आपराधिक मामले लम्बित थे। इस बार भी 30 से अधिक "माफिया डॉन" चुनावी अखाडे में उतरे। समाजवादी पार्टी को गुण्डों का दल कहने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश में आपराधिक छवि वाले नेताओं को जमकर टिकट बांटे। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति सम्बन्धी याचिका उच्चतम न्यायालय में लम्बित है। इसमें उनके पुत्रों- अखिलेश यादव (सांसद) व प्रतीक यादव को भी पक्षकार बनाया गया है। सपा ने भी बाहुबलियों को टिकट से नवाजा है, जिनमें गोंडा से बृजभूषण सिंह, फतेहपुर से राकेश सचान, फैजाबाद से मित्रसेन यादव, धारहारा से ओ.पी. गुप्ता, मिर्जापुर से ददुआ डकैत का भाई बालकुमार प्रमुख हैं।
चुनाव में बाहुबलियों के दखल और धनबल के प्रभाव में नजर आ रही वृद्धि भी केवल "टिप ऑफ द आइसबर्ग" है। स्पष्ट है कि पहले राजनीतिज्ञ बाहुबलियों से धन और बल की मदद लेते थे और बदले में उन्हें संरक्षण देते थे। जब बाहुबलियों ने देखा कि राजनेता उनकी मदद से ही विधायक या सांसद बन रहे हैं तो उन्होंने सोचा कि क्यों न वे स्वयं ही धन और बाहुबल के माध्यम से सीधे चुने जाएं। इसलिए राजनीति की अपराधीकरण के शैशवकाल में जो अपराधी अपने बचाव के लिए राजनीतिज्ञ का दामन थामता था, उसने आज चुनाव प्रक्रिया के द्वारा स्वयं राजमुकुट धारण कर लिया है। आज भ्रष्ट राजनीतिज्ञ, धनलोलुप उद्योगपति, रिश्वतखोर राज्य कर्मचारी एवं माफिया डॉन का गठजोड बन गया है, जो समाज को लील रहा है। एन.एन. वोरा ने अपनी खोजपूर्ण रिपोर्ट में राजनीति के अपराधीकरण एवं अपराधीजगत के राजनीतिकरण का सांगोपांग विवेचन करते हुए लिखा था कि इस गठजोड ने एक "समानान्तर सरकार" स्थापित कर ली है, जो न्याय-व्यवस्था एवं राष्ट्र की सुरक्षा के लिए घातक है, परन्तु आज तो "माफिया" सरकार को ही "हाईजैक" करना चाहता है।
आज राजनीतिक दलों के टिकट बांटने का पैमाना बदल चुका है। बाहुबली, धन कुबेरों, कबीलाई सरदारों को बिन मांगे टिकट मिलने लगा है। जब ऎसे लोग चुनकर आएंगे तो संसद में क्या होगा।

शुक्रवार, 8 मई 2009

संसदीय प्रणाली कितनी सफल


इंग्लैण्ड में अभी तक अलिखित संविधान के कारण परम्पराओं पर वहां का प्रशासन चल रहा है। उसके विपरीत भारत में बहुत विचार-विमर्श के बाद विधान निर्मात्री सभा ने लिखित संविधान का निर्माण किया। उनसठ वर्ष पहले हमने संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया था। अब समय आ गया है कि हम इस प्रणाली के परिणामों पर गंभीरता से विचार करें और तय करें कि क्या भारतीय जनतंत्र को मजबूत करने वाली और भी कोई प्रणाली देश में लागू की जा सकती है। ब्रिटेन में इस प्रणाली की सफलता का बहुत बडा कारण है कि वह छोटा सा देश है, जिसमें भारत जैसी समस्याएं नहीं हैं। अपने देश में अनेक भाषाएं, अनेक पंथ, अनेक जातियां हैं। पर्वतीय प्रदेशों में सर्दी, देश के उत्तर-दक्षिणी हिस्सों में गर्मी और पूर्वोत्तर प्रदेशों में वर्षा होती एक साथ देखी जा सकती है। इसलिए भारत में इस प्रणाली का सबसे बुरा असर देश की राजनीति पर हुआ, जो दिन-प्रतिदिन ह्रासोन्मुख है। प्रजातंत्र को कमजोर करने वाली प्रवृत्तियों ने राजनीतिक हलकों में घर कर लिया है। राजनीतिक पार्टियों में प्रजातंत्र समाप्त होकर तानाशाही प्रवृत्ति बढ रही है। पार्टियों पर एक या एक से अधिक व्यक्ति का अधिकार होता जा रहा है। प्रजातांत्रिक तरीकों के बजाय पार्टी के नेता मनमाने ढंग से नियुक्तियां करते हैं। पार्टियों में चुनाव होते ही नहीं हैं। यदि दिखावे के लिए होते भी हैं तो आंतरिक चुनावों का केवल ढोंग किया जाता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों का भी चुनाव नहीं होता, उनकी नियुक्तियां पार्टी के एकछत्र नेता की इच्छानुसार होती है। राजनीतिक पार्टियां अपनी ही पार्टी के विधान का पालन नहीं करती हैं।
चुनावों में खंडित जनादेश आ रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों की दुर्दशा हो रही है। व्यक्तिवाद व परिवारवाद पनपने के साथ ही राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है। जातिवाद पनपाने में सभी राजनीतिक दल लगे हैं, जिससे प्रजातंत्र के बजाय भीडतंत्र उभर रहा है। खंडित जनादेशों के कारण केंद्र में भी अस्थिर सरकारें बन-बिगड रही हैं। आम मतदाताओं की समस्याओं का समाधान नहीं होने से उनका प्रजातंत्र से मोह भंग हो रहा है। इस कारण मतदान का प्रतिशत घटता जा रहा है। अस्थिर सरकारें विकास के कार्य पूरे नहीं करवा सकतीं, इसलिए देश में विकास धीमी गति से हो रहा है। देश में राष्ट्रीय भावना व देशभक्ति की भावनाओं के बजाय क्षेत्रीय व जातिवादी भावनाओं का जोर बढ रहा है। 
दूसरी ओर अमरीका को 4 जुलाई 1775 को ब्रिटिश साम्राज्य से छुटकारा मिला। वहां सभी यूरोपीय देशों के प्रवासी रहते हैं, जिनकी अपनी-अपनी भाषाएं हैं। अमरीका के संविधान के निर्माण में 10 वर्ष लगे और संविधान 1787 में लागू हुआ। अमरीका के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी जार्ज वाशिंगटन ने ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को अमरीका जैसे बडे देश में अनुपयुक्त बताया तथा अध्यक्षीय प्रणाली की वकालत की। उनका तर्क था कि ब्रिटेन एक छोटा देश है, वहां संसदीय प्रणाली सफल हो सकती है, परन्तु अमरीका जैसे बडे देश में संसदीय प्रणाली सफल नहीं हो सकती, अमरीका में अब तक 41 राष्ट्रपति हुए हैं, उनमें केवल एक राष्ट्रपति निक्सन को त्यागपत्र देना पडा था। शेष सभी राष्ट्रपतियों ने अपना कार्यकाल पूरा किया। इस कारण विकास की गति में अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ और अमरीका एक विकसित देश बना। इतना ही नहीं विभिन्न यूरोपीय देशों के प्रवासियों व अमरीका के मूल निवासियों में मजबूत राष्ट्रीय भावना पनपी, जिसके कारण देश मजबूत हुआ।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि संसदीय प्रणाली को स्वीकार करने पर भी भारत ने उतनी प्रगति नहीं की जितनी की आवश्यकता है। इस प्रणाली के कारण देश प्रगति के बजाय या तो स्थिर है या अधोगति की ओर जा रहा है। इसलिए समय आ गया है कि हम इस विषय पर गंभीरता से विचार करें एवं देश की परिस्थितियों के अनुकूल प्रणाली की खोज करें, ताकि देश त्वरित गति से आगे बढे।

बुराइयां पहले


ये बुराइयां पहले की अपेक्षा कम नहीं हुई हैं, बल्कि बढी हैं। इनके रू प, प्रकार और किस्मों में अन्तर आया है। द्यूत अब कई रू पों में देखने को मिलता है। लॉटरी आदि के जरिए सरकार खुद इस तरह के उपक्रम करती है। टीवी के कई चैनल भी इस तरह के इनामी प्रोग्राम संचालित करते हैं। मांस उत्पादन के कई प्रांतों में कारखाने लगे हुए हैं। इसकी खपत को देखते हुए सरकार कत्लखानों की संख्या बढाने पर विचार कर रही है। वेश्यावृति का धंधा करने वालों की बडे शहरों में एक पूरी कॉलोनी बस गई है। आज की भाषा में इसे "रैड लाइट एरिया" कहते हैं। देश में यौन रोगों के और असाध्य रोगों के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी ये ही हैं। शराब के बारे में कुछ न कहना ही ठीक है। सरकार द्वारा कानूनी मान्यता प्राप्त हो जाने के बाद इसकी खपत शहरों और गांवों में समान रू प से है। समाज में अपराध और हिंसा को सर्वाधिक बढावा इस नशीले पदार्थ से ही मिला है। बहुधा ऎसा होता है कि हमारे गांव में प्रवेश करने से पूर्व स्वागत द्वार के पहले "देशी शराब की दुकान" का बोर्ड दिखाई देता है। राजस्थान में कहावत है- "गांव की साख बाडां भरै।" बाड गांव का पहला दरवाजा या प्रवेश द्वार होती है। गांव में शराब का ठेका है तो सच्चरित्रता और नैतिकता को वहां कितना महत्व मिलेगा, यह सोचने की बात है। अभी इन दिनों में एक-दो सप्ताह के बीच हम गांवों में गए तो वहां मेरे पास कुछ बहिनें आई, कुछ भाई भी आए। उनकी ओर से प्रार्थना की गई कि महाराज! जैसे भी हो, शराब की लत से छुटकारा दिलाएं। मैंने कहा- "क्या हुआ उन बहनों ने बताया कि शराब पीकर घर में उत्पात करना और हम लोगों की, बच्चों की पिटाई करना रोज की बात है। घर जैसे नरक बन गया है।"

प्रचंड का पैंतरा


अगर नेपाल के माओवादी प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचण्ड को जरा भी एहसास होता कि सेनाप्रमुख रूकमांगुद कटवाल को बर्खास्त करने से उनकी सरकार का अस्तित्व ही खतरे में पड जाएगा, तो वे ऎसी जल्दबाजी नहीं दिखाते। हालांकि माओवादी सरकार के घटक दलों सहित सभी राजनीतिक दलों ने पहले ही प्रचण्ड को चेता दिया था कि वे जनरल कटवाल को हटाने के खिलाफ हैं, लेकिन उनके विरोध का स्वर इतना मुखर होगा इसका आभास तो प्रचण्ड को नहीं रहा होगा। 

राष्ट्रपति रामबरन यादव ने जनरल कटवाल की बर्खास्तगी पर मुहर लगाने से इनकार कर और सरकार में शामिल सहयोगी दलों ने अपना समर्थन वापस लेकर प्रचण्ड के पास प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के अतिरिक्त कोई भी विकल्प नहीं छोडा था। नेपाल के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम से वहां शांति प्रक्रिया पटरी से उतरने की आशंका बढी है।

वर्तमान संकट की जड में माओवादी सरकार और सेना के बीच गहराता तनाव है। गौरतलब है कि राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने से पहले माओवादियों ने नेपाल की सेना के खिलाफ ही लडाई लडी थी। इसलिए 2006 में शांति प्रक्रिया के बाद से ही माओवादियों और सेना के रिश्ते अत्यन्त असहज रहे हैं। सबसे बडा विवाद माओवादियों की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के विद्रोहियों को सेना में शामिल करने को लेकर है। सेना ने यह तर्क देते हुए करीब 19 हजार माओवादी गुरिल्लों को सेना में भर्ती करने से इनकार कर दिया है कि विशेष राजनीतिक विचारधारा से ओत-प्रोत होने के कारण वे सेना के पेशेवर स्तर में गिरावट लाएंगे।

माओवादी नेताओं का आरोप है कि जनरल कटवाल ने हाल ही में सरकारी आदेशों के विपरीत जाकर करीब तीन हजार नए सैनिकों की भर्ती कर ली। कटवाल पर यह आरोप भी था कि उन्होंने सरकार से सलाह किए बिना ही उन आठ वरिष्ठ सेनाघिकारियों को बहाल कर दिया, जिनको रक्षा मंत्रालय ने बर्खास्त किया था। हालांकि जनरल कटवाल ने यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही किया था। माओवादी किसी भी कीमत पर सेना को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे, क्योंकि ऎसा किए बिना नेपाल की सत्ता पर पूरी तरह कब्जा करना संभव नहीं था। लेकिन अपने वफादार को सेनाप्रमुख बनाने की जल्दबाजी में प्रचण्ड चार महीने का इंतजार तक नहीं कर पाए। 

दरअसल प्रचण्ड पर जनरल कटवाल को हटाने के लिए दबाव लगातार बढ रहा था। 30 अप्रेल को माओवादियों की एक अहम बैठक में प्रचण्ड को इस बारे में काफी आलोचना सहनी पडी। जानकार मानते हैं कि अगर प्रचण्ड सेनाप्रमुख को नहीं हटाते तो अपने दल पर उनका नियंत्रण शिथिल हो जाता।

माओवाद और विवाद का तो पुराना रिश्ता है। शांति प्रक्रिया की शुरूआत से ही माओवादी अपने मनमाने रवैये के कारण विवादों में घिरे रहे हैं। ऎसी उम्मीद थी कि लोकतांत्रिक पद्धति से साथ जुडाव समय गुजरने के साथ माओवादियों की अघिनायकवादी सोच को बदल देगा लेकिन जिस इकतरफा तरीके से सेनाप्रमुख को हटाया गया, उसने न केवल माओवादियों के लिए मुश्किलें बढा दी हैं, बल्कि उससे उपजे घटनाक्रम ने शांति प्रक्रिया पर भी सवालिया निशान लगा दिया है।

आज नेपाल की राजनीति दो खेमों में बंट चुकी है। एक तरफ तो सभी राजनीतिक दल हैं, तो दूसरी तरफ पूरी तरह अलग-थलग पड चुके माओवादी। प्रचण्ड के त्यागपत्र के बाद माओवादियों के समक्ष सबसे बडी चुनौती अंतरिम संसद में अपना बहुमत बरकरार रखने की होगी लेकिन सत्ता का गणित उनके पक्ष में नहीं है।

प्रचण्ड के त्यागपत्र के बाद माओवादियों के समक्ष सबसे बडी चुनौती अंतरिम संसद में अपना बहुमत बरकरार रखने की होगी लेकिन सत्ता का गणित उनके पक्ष में नहीं है

राहुल की चुनावी चाल

राहुल गांधी शायद बोलने में कुछ जल्दबाजी कर गए। उन्हें घटनाक्रम के राह पकड़ने तक इंतजार करना चाहिए था या कम से कम मतदान की प्रक्रिया तो पूरी हो जाने देते। राजनीति में धीरज रखने का फायदा मिलता है और दस दिन का समय कोई ज्यादा नहीं होता। वामपंथियों और विशेष रू प से माकपा से बार-बार समर्थन मांगना उनकी घबराहट दर्शाता है। साथ ही वे नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू के रू प में नए दोस्त बनाना चाहते हैं। उन्हें नीतीश से दो टूक जवाब भी मिल गया है। उन्हें वामपंथियों और नीतीश कुमार से सहयोग मांगने में इतनी बेताबी नहीं दिखानी चाहिए थी।

जमीनी हकीकत यह है कि माक्र्सवादी पश्चिम बंगाल और केरल में अपनी सीटें घटने को लेकर आशंकित हैं। यह साफ नजर आ रहा है कि प्रकाश कारत के डींगें हांकने के बावजूद वे लोकसभा में अपनी मौजूद सदस्य संख्या बरकरार नहीं रख पाएंगे। वे कितने भी आशावादी हों तथाकथित तीसरा मोर्चा या गैर -कांग्रेस, गैर- भाजपा मोर्चा ठोस स्वरू प नहीं ले पाया है। यदि तीसरा मोर्चा आगे भी आ जाए तो प्रधानमंत्री के सवाल पर उनमें घमासान मच जाएगा। मायावती पहले ही कह चुकी हैं कि प्रधानमंत्री के लिए वे सबसे अधिक योग्य हैं। यदि नेता का मसला सुलट भी जाए तो किसी को नहीं लगता कि कोई गैर -कांग्रेस गैर- भाजपा सरकार एक साल से ज्यादा चल पाएगी। इसके अलावा माकपा नेतृत्व में चुनाव के बाद कांग्रेस को समर्थन देने के मसले पर तीखे मतभेद हैं। माकपा की प. बंगाल इकाई और विशेष रू प से मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और सीताराम येचुरी भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए जरू रत पड़ने पर कांग्रेस को समर्थन देने के पक्षधर हैं। दूसरी ओर कारत अड़े हुए हैं कि कांग्रेस से कोई सम्बन्ध नहीं रखा जाएगा।

चुनाव प्रक्रिया अंतिम चरण में पहुंचने के साथ ही कई पार्टियों ने चुनाव के बाद होने वाले समझौतों के लिए एकाधिक विकल्प खुले रखे हैं। राहुल को नीतीश कुमार की ओर सार्वजनिक रू प से दोस्ती का हाथ बढ़ाने के बजाय पर्दे के पीछे प्रारम्भिक बातचीत करनी चाहिए थी और उसमें उनका मूड भांपकर अगला कदम उठाना चाहिए था। उन्होंने समर्थन मांगा तो नीतीश के पास यह कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था कि इन अफवाहों में कोई दम नहीं है कि वे राजग छोड़कर चुनावों के बाद संप्रग में शामिल हो सकते हैं। 

नायडू की तारीफ के पुल बांधकर राहुल ने मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी को मुश्किल में डाल दिया है, जो तेदेपा के अपने इस प्रबल प्रतिद्वंद्वी से कड़ी और लम्बी लड़ाई लड़े हैं। रेड्डी का इन चुनावों में बहुत कुछ दांव पर है क्योंकि आंघ्रप्रदेश में लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव भी हो रहे हैं।

राहुल की मंगलवार को दिल्ली में हुई प्रेस कांफ्रेस से साफ है कि वे अब कांग्रेस का चेहरा बनने के साथ उसके रणनीतिकार के रू प में उभर रहे हैं। वे अपनी पार्टी के पहले ऎसे नेता हैं जो अपने प्रतिद्वंद्वियों (नीतीश और चन्द्रबाबू) की प्रशंसा कर रहे हैं, साथ ही कांग्रेस पार्टी का वामपंथियों के साथ समान धरातल तलाश रहे हैं। यह भाजपा को अलग-थलग करने, तीसरे मोर्चे की हवा निकालने और 16 मई को नतीजे आने के बाद कांग्रेस को गठबंधन का केंद्रबिन्दु बनाने का स्पष्ट प्रयास है।

उनके शब्दों में "राजग तो धरातल पर कहीं है नहीं, उसका अस्तित्व तो केवल भाजपा के दिमाग में है"। इस टिप्पणी के बाद उन्होंने नीतीश और नायडू की प्रशंसा की। उन्होंने अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता का भी उल्लेख किया, जिन्होंने कहा था कि चुनावों के बाद कांग्रेस को कुछ नए सहयोगी मिल सकते हैं।

राहुल ने वामपंथियों की शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी अवधारणाओं से तो सहमति जताई, लेकिन साथ ही कहा कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मनमोहन सिंह ही हैं, वे सर्वश्रेष्ठ दावेदार हैं, उन्हें बदलने का प्रश्न ही नहीं उठता। वामपंथियों ने संप्रग को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने की सम्भावना से स्पष्ट इनकार किया है। कारत का कहना है कि सवाल अकेले वामपंथियों का नहीं है। वामपंथियों का अन्य दलों के साथ गठबंधन है। हम अन्य सभी सहयोगियों के साथ गैर-कांग्रेस गैर- भाजपा सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं।

राहुल ने उत्तर प्रदेश के बारे में कहा कि वहां लोग बसपा, सपा और भाजपा से ऊब चुके हैं। अगले तीन साल में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर एक बड़ी शक्ति बन जाएगी।
चुनाव बाद के परिदृश्य पर वामपंथी दलों में गहरे मतभेद हैं। कारत और उनके साथी जमीनी हकीकत से दूर हैं। वे मानते हैं कि पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को ज्यादा नुकसान नहीं होगा। वामपंथी दलों को देश भर में 42 से 48 सीटें मिल जाएंगी। येचुरी ज्यादा व्यवहारिक दिखते हैं। उन्होंने कारत के साथ एक तरह से असहमति जताते हुए कहा है कि चुनाव के बाद क्या होगा, इस बारे में अभी अटकलें लगाना ठीक नहीं है।