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इस बार लोकसभा चुनावों में भी भाजपा की वैसी ही स्थिति उभरकर सामने आई, जैसी कि पिछले लोकसभा चुनाव में आई थी। शायनिंग इण्डिया का नारा अंधेरे में दबकर रह गया था। अपनी इतनी बड़ी हार से भाजपा में बौखलाहट का बड़ा वातावरण भी दिखाई दिया। इस बार भी दावे तो आसमान से नीचे ही नहीं उतरे, किन्तु भाजपा चारों खाने चित्त हो गई। लालजी ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि यदि मैं पी.एम. नहीं बना तो घर लौट जाऊंगा।
न पी.एम. ही बने, न घर ही लौटे। भाजपा की यह सबसे बड़ी भूल साबित हुई कि उनको इतना पहले से ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस सम्मान को पचा सकना उनके लिए असंभव हो गया। इस पूरे काल में उनके तेवर भी प्रधानमंत्री जैसे ही रहे। अन्तत: जनता ने ही उनके नेतृत्व को नकार दिया। चुनाव प्रचार के दौरान ही एक और समझदार नेता ने अपने पिटारे से मोदी का नाम छोड़ दिया। इसका एक अर्थ यह था भाजपा के एक धड़े को भी आडवाणी का नेतृत्व स्वीकार नहीं है और वह भी ऎन चुनाव के पहले। भाजपा का इससे बड़ा नुकसान तो कांग्रेस ने भी नहीं किया। इस घोषणा से नरेन्द्र मोदी भी फुफकारने लग गए। सभी नेताओं की वाणी से विष उगला जा रहा था। इसका परिणाम भी वही होना था। भाजपा के सहयोगी दलों ने भी मोदी को नकार दिया।
दिल्ली के गढ़ में भाजपा का एक संतरी भी नहीं बचा। उत्तराखण्ड में भी भाजपा को बैरंग लौटना पड़ा। राजस्थान में अकाल पड़ गया। मात्र चार सीटों पर संतोष करना पड़ा। चुनाव प्रचार में यहां भी बयानबाजी का बड़ा दौर चला था। गुलाब चन्द कटारिया की रथ यात्रा आगे बढ़ती गई और पीछे-पीछे भाजपा की चादर सिमटती चली गई। पहले ही दिन से उदयपुर की पांच सीटें कांग्रेस को जाती दिखाई दे रही थीं, राजसमन्द को छोड़कर। भाजपा के लोग इस बात को मानने को तैयार नहीं थे। राजस्थान में हम इन चुनावों के आंकड़ों को पिछले चुनाव के आंकड़ों से मिलाएं तो पता चल जाएगा कि भाजपा का मतदाता उदासीन होता जा रहा है। सन् 2003 में विधानसभा और सन् 2008 के विधानसभा में कांग्रेस के पक्ष का मतदान मात्र 1 प्रतिशत बढ़ा था, जबकि भाजपा के पक्ष में लगभग 5 प्रतिशत मतदाता घटे थे। सन् 2004 के और सन् 2009 के लोकसभा चुनाव कहानी को और आगे ले गए। कांग्रेस के पक्ष में 5.75 प्रतिशत वोट बढ़े, किन्तु भाजपा के पक्ष में टूट 12.44 प्रतिशत की हुई। शेष मतदाता वोट डालने नहीं आए।
कांग्रेस के हारे हुए विधायक सी.पी. जोशी और लालचन्द कटारिया सांसद चुने गए, जबकि भाजपा के जीते हुए विधायक घनश्याम तिवाड़ी, किरण माहेश्वरी और राव राजेन्द्र सिंह चुनाव हार गए। एक बात और भी है कि गांवों में रोजगार गारण्टी योजना का प्रभाव भी दिखाई पड़ा। भाजपा की कई योजनाएं लागू ही नहीं हो पाई।
किसी की नहीं मानना भी भाजपा के लिए शान की बात हो गई है। चाहे राजनाथ सिंह हो, चाहे आडवाणी, सुषमा स्वराज या वसुन्धरा राजे। इनके लिए तो सही उतना ही है जो इनको सही लगता है। इस पर भी जातिवाद का भूत भीतर इतना उतर गया है कि लोगों को राष्ट्रवाद छोटा सा जान पड़ता है। लोग अपनी-अपनी जाति के बाहर नेतृत्व देने को ही तैयार नहीं है। प्रचार के दौरान भाजपा की छवि गिरती चली गई और किसी के भी कान खड़े नहीं हुए। भ्रष्टाचार और अपराधियों को शरण देने में भी किसी पार्टी से पीछे नहीं रही। आज भी भाजपा अपनी साम्प्रदायिक छवि से उबर नहीं पाई है। नई पीढ़ी का मतदाता शान्ति चाहता है।
राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका क्या हो, इस पर वह सोचे। आज भाजपा से न कार्यकर्ता संतुष्ट है, न ही देश। भाजपा ही देश की दूसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी भी है। हर बार इसी तरह मार खानी हो तो इसकी मर्जी, किन्तु कुछ करने लायक बनना है तो पार्टी का पुनर्गठन एवं नीतियों का आकलन करना होगा। सभी पुराने चेहरों को सलाहकार का दर्जा देकर पीछे की सीट पर बिठा देना चाहिए। कांग्रेस में भी ऎसे ही लोग "घुण" का कार्य कर रहे हैं। वहां तो नीचे पोल ही पोल है। भाजपा में तो ऎसा नहीं है। केवल अहंकार है।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि दो बड़े दलों में से एक पटरी से उतर गया है। वरना तीसरे मोर्चे की जरूरत ही देश को नहीं पड़ती। सब जानते हैं कि तीसरा और चौथा मोर्चा किन लोगों का गठबन्धन है और देश को क्या दे सकता है। भाजपा में यदि आवश्यक सुधार नहीं हुआ तो ये लोग ही लोकतंत्र के नायक होंगे।
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