Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

Top Highlights

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

संघ का संकट और पटेल-नेहरू से सबक

इतिहास इंसानों से बनता है लेकिन उसमें इंसानों की तरह अहं नहीं होता। ये सबक इतिहास ही देता है इसलिए इतिहास सत्य की खोज के साथ-साथ बदलता रहता है।

इतिहास में अजीब तरह का लचीलापन होता है जो अमूमन वैचारिक पार्टियों और जिद्दी इंसानो में नहीं दिखाई देता है। इतिहास चिरंतन अपनी गति से चलता रहता है और समयानुसार अपने में बदलाव भी करता है बिना अहं बीच में लाए। और इतिहास को अगर ध्यान से देखें तो उसमें एक ध्रुव पर वल्लभभाई पटेल दिखते हैं तो दूसरे पर जवाहर लाल नेहरू।

....पटेल बीमार हैं और नेहरू उनको देखने गए हैं। पटेल नेहरू से कहते है कि 'तुम मुझपर विश्वास नहीं करते।' नेहरू पलट के कहते हैं कि 'मेरा तो खुद पर से ही भरोसा उठ गया है'... नेहरू और पटेल की ये बात भारतीय इतिहास का वह बिंदु है जो इतिहास को बना भी रहा था और इतिहास को बिगाड़ भी सकता था। दोनों नेताओं के बीच भयानक मतभेद थे और दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंदी भी थे लेकिन अपने मतभेदों को इस हद तक नहीं ले गए कि टूट का संकट पैदा हो जाए।

बीजेपी और संघ परिवार के मौजूदा विवाद को इतिहास की नजर से देखने और समझने के लिए इतिहास के इस टुकड़े को समझना बेहद आवश्यक है। क्योंकि जिन्ना विवाद हो या फिर संघ परिवार की गुटबाजी बेहद खतरनाक आयाम लेती जा रही है जो कांग्रेस के बरक्स एक वैकल्पिक सत्ता की अकाल मौत का कारण हो सकती है जो देश के लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होगा।

इस विवाद ने कई चीजें साफ कर दी हैं। एक, संघ परिवार एक लंबे संकट से गुजर रहा है। चूंकि बीजेपी उसका सबसे बड़ा चेहरा है इसलिए बीजेपी पर इस संकट की सबसे बड़ी छाप दिखाई दे रही है। दूसरे, संघ परिवार का ये संकट पटेल नेहरू की तरह वैचारिक ज्यादा है। बीजेपी में दो तरह की धारायें एक दूसरे से टकरा रही हैं। एक वो धारा जो मान रही है कि बीजेपी लगातार दो चुनाव हारी क्योंकि वो अपने मूल वैचारिक चरित्र से भटकी यानी उसने उग्र हिंदूत्ववाद से समझौता किया। और दूसरी वो धारा है जो ये मानती है कि संघ परिवार को सर्वस्वीकार्य बनने के लिये जरूरी है कि वो अपने में बदलाव करे और उग्र हिंदूत्ववाद में लचीलापन लाए और अल्पसंख्यक तबके को अपना बनाने की कोशिश करे।

तीसरा, ये संकट इस बात का भी प्रतीक है कि संघ में दो धाराओं के साथ-साथ दो पीढ़ियों का भी टकराव है। नई पीढ़ी अपने हिसाब से संघ को चलाना चाहती है लेकिन पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को वो जगह नही दे रही है जो उसे मिलनी चाहिए। साफ शब्दो में कहें तो संघ प्रमुख मोहन भागवत और लाल कृष्ण आडवाणी के बीच सत्ता संघर्ष है। दिलचस्प बात ये है कि आडवाणी से उम्र में कम होने के बावजूद भागवत संघ और बीजेपी को उग्र हिंदूत्ववाद की तरफ ले जाना चाहते है और पुरानी पीढ़ी के आडवाणी बदलते समाज और लोकतंत्र की जरूरत के मुताबिक विचारधारा के स्तर पर बदलाव की वकालत कर रहे हैं।

चौथे, संघ परिवार सामाजिक और राजनीतिक संगठन का फर्क भी नहीं समझ पा रही है, वो बीजेपी को एक सामाजिक संगठन की तरह चलाना चाहती है जो संभव नहीं है। सामाजिक संगठन में संगठनात्मक मजबूती तो होती है लेकिन राजनीतिक संगठन की तरह सर्वशक्तिमान होने की संभावना नहीं होती है। आरएसएस एक सामाजिक संगठन है, उसकी ताकत अपार है, उसके बिना बीजेपी काफी कमजोर हो जाएगी लेकिन बीजेपी अगर सत्ता में आ जाए तो उसका नेता देश का प्रधानमंत्री होगा और एक प्रधानमंत्री कितना भी कमजोर होगा आरएसएस प्रमुख की ताकत उसका मुकाबला नहीं कर पाएगी।

ये बात जब वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो सुदर्शन को समझ नहीं आई और उनको लगता था कि वो नागपुर से बीजेपी और वाजपेयी को हांक सकते है। शुरू में जसवंत सिंह को वित्त मंत्री न बनने देकर लगा वो कामयाब होंगे लेकिन जब प्रधानमंत्री ने अपनी ताकत दिखाय़ी तो संघ परिवार के पास वाजपेयी के सामने नतमस्तक होने के अलावा कोई चारा नही था।

सुदर्शन और अशोक सिंघल लाख कहते रहे कि तब प्रधानमंत्री कार्यालय में अमेरिकी एजेंट है लेकिन चीखने के सिवाय कुछ कर नहीं पाए। आरएसएस को ये बात समझनी चाहिए लेकिन वो उस भारतीय परंपरा में जवाब तलाशते हैं जिसमें चक्रवर्ती सम्राट किसी संत मुनि के आने के बाद अपने सिंहासन से उठ कर उनका स्वागत करता है।

संघ परिवार ये मानता है कि नैतिक सत्ता के आगे राजनीतिक सत्ता को झुकना चाहिए लेकिन वैदिक काल और कलयुग का अंतर न समझने की वजह से ही भागवत अब आडवाणी को अपने सामने झुकाना चाहते हैं जो संभव नहीं। पांच, इस नासमझी की वजह से संघ परिवार ने जिद ठान ली है और वो पार्टी के अंदर हार के बाद होने वाले वैचारिक मंथन को भी बगावत की नजर से देख रहा है।

विचारधारा स्वाभावत: तानाशाही होती है चाहे वो साम्यवाद हो या फिर हिंदूवाद या फिर हिटलर का फांसीवाद या अल कायदा का रैडिकल इस्लाम। संघ को ये समझना होगा कि देश बदला है और आम जनमानस में जबर्दस्त परिवर्तन आया है, वो विचारों की स्वतंत्रता में अपने और अपने समाज की अस्मिता खोजती है और ऐसे में विचार पर पाबंदी लग जाये वो कतई नहीं चाहेगी। संघ परिवार को अपने आराध्य इतिहास देव वल्लभभाई पटेल से सबक लेना चाहिए और शायद नेहरू से भी जिनको 'डी - कंस्ट्रक्ट' करने का कोई भी मौका वो गंवाना नहीं चाहती।

सबको पता है कि नेहरू समाजवाद से प्रभावित थे तो पटेल दक्षिणपंथ से या यों कहें हिंदूवाद से। चाहे वो कश्मीर का मुद्दा हो या फिर चीन का या फिर अल्पसंख्यक नीति, दोनों नेता अलग-अलग ध्रुव पर खड़े थे। दोनों नेताओं के अपने अपने समर्थक थे जो दोनों को अपने-अपने हिसाब से प्रभावित करने के उधेड़बुन में लगे रहते थे। रफी अहमद किदवई ने तो एक बार पटेल और उनकी दक्षिणपंथी नीतियों के चलते नेहरू को ये सुझाव भी दिया था कि उन्हें इन दकियानूसी लोगों का साथ छोड़ समाजवादी पार्टी बनानी चाहिए थी।

हिंदूस्तान टाइम्स के संपादक 'दुर्गा दास' अपनी किताव 'इंडिया फ्राम कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर' में लिखते हैं कि रफी अहमद को पूरा भरोसा था कि अगर नेहरू नई पार्टी बनाएंगे तो वो पहले आम चुनाव में आसानी से बहुमत ले आएंगे और समाजवादी नीतियों को लागू करने मे कोई दिक्कत नहीं आएगी। नेहरू ने तब जवाब दिया था कि 'अभी जरूरत आजादी को मजबूत करने की है' और ये जानते थे कि वो और पटेल ये काम मिलकर कर सकते है अकेले नहीं।

ऐसा नहीं था कि दोनों में तकरार नहीं होती थी। कई बार दोनों नेताओं ने इस्तीफे तक देने की धमकी दे डाली थी। नेहरू की इच्छा के विरुद्ध पुरुषोत्तम दास टंडन जब कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो नेहरू ने पार्टी और सरकार दोनों से इस्तीफा देने का मन बना लिया था लेकिन ऐसा हुआ नहीं, कुछ नेहरू के इतिहासबोध की वजह से और कुछ टंडन के बड़प्पन के कारण।

एक बार कैबिनेट की बैठक में नेहरू और पटेल के बीच कहासुनी हो गई, नेहरू ने मेज पर मुक्का मारते हुए कहा 'पटेल तुम्हारे जो मन में आये करो'। पटेल बहुत नाराज हो गए, उन्होंने दुर्गादास से कहा 'नेहरू पागल हो गये है और अब मैं उनको बर्दास्त करने को तैयार नहीं हूं'।

दुर्गादास के मुताबिक पटेल ने उनसे कहा कि वो गांधीजी के पास जा रहे हैं और उनसे कहेंगे कि वो इस्तीफा दे देंगे। दुर्गादास ने कहा कि 'गांधी जी उनको कभी भी छो़ड़ने नहीं देगे क्योंकि गांधी जी मानते हैं कि पटेल और नेहरू दो बैलों की जोड़ी हैं जो सरकार को खींच रहे हैं'। तब झल्ला कर पटेल बोले 'बुड्ढा सठिया गया है, वो समझते हैं कि माउंटबेटेन हमारे और नेहरू के बीच बीचबचाव कर सकते हैं'।

पटेल ने अपनी मौत से कुछ दिन पहले एक जगह कहा भी है कि 'मैं नेहरू से बेहद स्नेह करता था लेकिन नेहरू ने कभी भी मुझे इस लायक नहीं समझा'। ये झगड़ा गांधी के समय भी था और उनके बाद भी बना रहा लेकिन अगर इस झगड़े में अहं का टकराव होता और अपने दरबारियों की बात में आकर दोनों अपने रास्ते अलग कर लेते तो शायद भारत का इतिहास कुछ और होता और या शायद हम आज लोकतंत्र भी नहीं होते।

ये वो वक्त था जब तमाम मतभेदों के बीच संविधान बन रहा था, दंगे हो रहे थे, विभाजन का दर्द झेलते लाखों करोड़ो लोगों का खयाल रखना था, पांच सौ से ज्यादा छोटे-छोटे राजाओं को देश में मिलाना था, साम्यवादियों का तेलंगाना आंदोलन दबाना था, कश्मीर पर पाकिस्तान का हमला निपटना था और सबसे बड़ी बात, आजादी की नींव को मजबूत करना था।

दोनों ने अपने अहं को अहमियत नहीं दी इतिहास में अपनी भूमिका को पहचाना और अपने उसूलों से समझौता किए बिना दो बैलों की जोड़ी बने रहे। शायद आज आडवाणी और भागवत को इसी इतिहास दृष्टि से काम लेना होगा नहीं तो संघ परिवार तो रहेगा लेकिन इतिहास सम्मान की नजर से इन्हें देखेगा इसमे संदेह है। क्योंकि ये सही है कि इतिहास में अहं नहीं होता लेकिन वो भूलता भी नहीं है और खासतौर से उनको जो इतिहास को नहीं समझते और न ही उससे सबक लेते हैं।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

सफलता के सात फार्मूले


कोई व्यक्ति ऊंचा काम कैसे पाता है। भाग्य, प्रतिभा या निष्ठा के कारण। जीवन के हर क्षेत्र में ऊंचा काम करने वालों के कुछ गुण और स्वभाव समान होते हैं। इसे कोई भी सीख सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी कंपनी के अध्यक्ष पद तक पहुंच सकता है या ओलिंपिक पदक जीत सकता है। जीवन में सफलता पाने के लिए गारफील्ड ने सूत्र दिए हैं। वे इस प्रकार हैं-

सुनियोजित जीवन : हम प्राय: सुनते हैं कि जीवन में सफलता उन्हीं लोगों को मिलती है, जो काम के दीवाने होते हैं। ऎसे लोग जो दफ्तर में ज्यादा काम करते हैं, वे अपने आराम का ख्याल नहीं रखते। वे आराम से ज्यादा काम को तवज्ाों देते हैं, ऎसे व्यक्ति अपने कार्य क्षेत्र के शिखर पर पहुंच तो जल्दी जाते हैं, लेकिन टिक नहीं पाते। इसके विपरीत सफल व्यक्ति जी-तोड मेहनत करने को तो तैयार रहते हैं, लेकिन सीमा में उनके लिए काम ही सब कुछ नहीं होता।

काम अपनी रूचि का चुनिए : अपनी रूचि के अनुसार काम चुनना चाहिए। जो पसंद हो वही काम करें। इससे काम में आनंद आता है। इससे सफलता के रास्ते खुलते हैं।

चुनौतीभरे काम की तैयारी : किसी भी कठिन काम को करने के लिए पहले से अभ्यास करना जरूरी है। आमतौर पर हम सिर्फ सपने देखते हैं। हवाई किले बनाते हैं। बैठे-बैठे किले बनाने से सफलता नहीं मिलती। इसलिए सकारात्मक काम करने की जरूरत है।

परिणाम पर ध्यान रखें : अनेक महत्वाकांक्षी तथा परिश्रमी व्यक्ति आदर्श काम करने की भावना से इतने ग्रस्त रहते हैं कि ज्यादा काम नहीं कर पाते। सर्वश्रेष्ठ कार्य वही लोग कर पाते हैं, जो पूर्णत: त्रुटिहीन काम करने के दबाव में नहीं रहते। वे अपनी गलतियों को असफलता नहीं मानते, उनसे अगली बार बेहतर काम करना सीखते हैं।

जोखिम उठाने तैयारी : व्यक्ति के जीवन में नीरसता आए या काम औसत दर्जे का हो तो वे जोखिम उठाने की जगह सुरक्षा को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। ऊंचाई पर जाने वाले लोग जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। वे इसके लिए पहले से ही मानसिक रूप से तैयार होते हैं।

अपनी सामथ्र्य को कम ने आंकें : ज्यादातर लोग यह समझते हैं कि उन्हें अपनी सीमाएं मालूम हैं, लेकिन हमें जितना कुछ मालूम होता है वह जानकारी नहीं है। वह मिथ्या विश्वास है। यह हमें सीमाओं में बांधता है। ऊंचे लोग काम करने की कृत्रिम सीमाओं की परवाह नहीं करते। वे अपनी भावनाओं, अपनी कार्यप्रणाली और अपने प्रत्यनों की गतिशीलता पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

अपने-आप से करें स्पर्धा : काम करने वाले अपने स्पर्धियों को पीछे करने के बजाय पिछले प्रत्यनों से आगे निकलने की कोशिश करते हैं। ऊंचे काम करने वालों की रूचि किसी भी काम को अपनी कसौटी के अनुसार बेहतर ढंग से करने की होती है, इसलिए वे अलग रहने के बजाय मिल-जुलकर काम करते हैं। अपनी प्रतिभा का ज्यादा से ज्यादा सदुपयोग करते हैं।

छोटी शुरूआत, बड़ा नाम


कॉर्पोरेट इतिहास के विश्लेषणकर्ता इस बात को स्वीकार करते हैं कि संसार की महानतम् कंपनियों का प्रारम्भ बहुत छोटे स्तर पर हुआ था। मात्र "साहस" की पूंजी लेकर कुछ व्यक्तियों ने अपना एक छोटा सा व्यवसाय प्रारम्भ किया, जिसमें आय की कोई गारंटी नहीं थी, घर कैसे चलेगा, कुछ पता नहीं था।

उदाहरण के लिए कोलगेट कंपनी के संस्थापक विलियम कोलगेट ने 19वीं शताब्दी में अपने घर के पिछवाड़े में इस टूथपेस्ट को बनाना शुरू किया, जो बाद में पूरे संसार में मशहूर हुआ। इसी तरह 1789 में बनी पियर्स साबुन को बनाने वाली लीवर कंपनी के संस्थापक लीवर बन्धुओं ने भी बहुत छोटे स्तर पर साबुन, डिटरजेंट इत्यादि का निर्माण प्रारम्भ किया, जो आज संसार की सबसे बड़ी कम्पनियों में गिनी जाती है। टोयोटा कार कंपनी के संस्थापक "मि. टोयोडा," जो स्वयं एक टैक्सटाइल मैकेनिक थे, 1930 के आस-पास स्वयं की कार बनाने का सपना देखा था।

वह एक अमरीकन कार खरीद कर उसको डिसेबल करके उसे समझने की दिन-रात कोशिशें करते रहे, परन्तु वे अपने जीते-जी सिर्फ जापान की सेना के लिए "लॉरियों" का निर्माण कर सके। वो कार नहीं बना पाए। द्वितीय विश्व युद्घ की हार के बाद जापान की उन सभी कंपनियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जिन्होंने जापानी सेना की मदद की थी। इसमें टोयोटा भी एक थी। बड़ी मुश्किल से इधर-उधर चक्कर काट कर इस कंपनी ने अपने ऊपर से प्रतिबंध हटवाया और 1951 से एक नई शुरूआत की। इनकी पहली कार 1956 में मार्केट में उतारी गई। यही वो वर्ष है जब भारत की विख्यात एम्बेसडर भी भारत के बाजार में बिड़ला समूह द्वारा उतारी गई थी। 1956 की टोयोटा कार पर सारा अमरीका हंसा। टैक्निकल स्टैंडर्ड के हिसाब से यह कार कुछ भी नहीं थी। लेकिन "टोयोटा" ने हिम्मत नहीं हारी, धीरे-धीरे उन्होंने अपनी कार के दोषों को दूर किया। इस तरह के उदाहरण भारत में भी भरे पड़े हैं।

एसीसी सीमेंट की स्थापना श्रीमान दिनशॉ की प्रेरणा से 1936 में दस सीमेंट कंपनियों के विलय से प्रारम्भ हुई। स्वयं श्रीमान दिनशॉ एसीसी के बनने से कुछ महीनों पहले चल बसे। रिलायंस समूह के संस्थापक धीरूभाई अम्बानी का जन्म गुजरात के गांव में हुआ। उनके पिताजी एक स्कूल अघ्यापक थे। 17 वर्ष की उम्र में ही वे विदेश में "अदन" चले गए और एक पेट्रोल पदार्थ के डिस्ट्रब्यूटर के यहां छोटा-मोटा काम किया। भारत आकर उन्होंने अपनी संस्था प्रारम्भ की। आज इनका समूह भारत के अग्रणी औद्योगिक समूहों में से एक है।

इसी तरह "एयरटेल" के संस्थापक सुनील भारती मित्तल ने अपना कैरियर 1976 में पंजाब में एक स्मॉल स्केल मेन्युफैक्चर के रूप में प्रारम्भ किया था। मैनेजमेंट गुरूओं का कहना है कि ऊपर दिए गए उदाहरणों से आज के मैनेजमेंट विद्यार्थियों को प्रेरणा लेनी चाहिए कि वे भी भविष्य के टाटा, बिरला एवं अम्बानी बन सकते हैं, बशर्ते वे भी कोई छोटा काम स्वयं शुरू करें।

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

प्रेम विवाह पर भारी चौधराहट और परंपराएं


आदमी बेशक चांद पर चहलकदमी कर आया है और मंगल पर आशियाना बनाने के बेहद करीब हो, लेकिन हरियाणा के गोत्र विवाद को देखने से नहीं लगता कि दुनिया में कोई ज्यादा बदलाव आया है। पुरानी परंपराएं और चौधराहट इस कदर हावी है कि इंसान की जिंदगी भी उसके सामने गौण होकर रह गई है। पुरानी परंपराओं का निर्वाहन कर रही पंचायतें (खाप) पुलिस-प्रशासन और सरकार तो दूर, अदालत को भी ठेंगे पर रखती हैं। जींद में वेदपाल की हत्या इस बात को साबित करती है कि मूंछ के लिए चौधरी किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनके लिए सदियों से चले आ रहे रीति रिवाज और मान्यता सर्वोपरि हैं। गोत्र विवाद आए दिन होते हैं, लेकिन सरकार इनका निबटारा करने की बजाए खाप के सामने नतमस्तक होती नजर आती है। हो भी क्यों न, जाट जो नाराज हो जाएंगे? खाप का मतलब कई गांवों का एक बड़ा समूह होता है।

हरियाणा में जो खाप शक्तिशाली मानी जाती हैं उनमें मलिक (गठवाला), पूनिया, श्योराण तथा सांगवान शामिल हैं। खाप में जो मामले विचार के लिए लाए जाते हैं उनमें पुरातन परंपराओं को बहाल रखने की कवायद प्रमुख है। खाप इतनी ज्यादा शक्तिशाली होती है कि बड़े से बड़ा राजनीतिक भी उसके फरमान की अनदेखी नहीं कर सकता है। हाल के वर्षो में खाप जिस चीज के लिए ज्यादा चर्चा में आई हैं उनमें गोत्र प्रमुख है। हर खाप ने सम गोत्र में विवाह निषिद्ध घोषित कर रखा है। श्योराण पच्चीसी के प्रधान बिजेंद्र सिंह कहते हैं कि विवाह के समय अपने साथ मां, दादी के गोत्र को बचाना होता है। बिजेंद्र कहते हैं कि परंपराएं सोच समझकर बनाई गई हैं। सामाजिक विकृतियों को रोकने के लिए ही इन्हें बनाया गया है। झगड़ा उस समय शुरू होता है जब आजाद ख्याल युवक-युवती परंपरा के खिलाफ जाकर अपनी दुनिया बसाने की जुगत भिड़ाते हैं।

पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं कि गोत्र एक हजार से ज्यादा हंैं लिहाजा इसका ख्याल रखना भी मुश्किल होता है। उनका कहना है कि सब कुछ जानने के बाद भी पुलिस व प्रशासन मूक दर्शक ही बना रह जाता है क्योंकि सरकार कोई भी हो, जाट समुदाय के गुस्से से सभी डरते हैं, यही वजह है कि खाप के आगे कानून व्यवस्था पंगु हो जाती है। प्रेम विवाह पर भारी चौधराहट और परंपराएं

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

आखिर कब तक ?


दस साल पहले हमने कारगिल युद्ध का सामना किया था। देश ने लगभग 527 जवान खोकर इस युद्ध में दुश्मन देश पाकिस्तान को परास्त कर दिया था। लेकिन नक्सलवाद के रूप में हम न जाने कितने कारगिल जैसे युद्ध लड़ चुके हैं और हमें कोई सफलता भी नहीं मिली है। वैसे तो देश में नक्सलवाद की लड़ाई दो दशक से भी पुरानी है, लेकिन पिछले पांच सालों पर नजर डालें तो तीन हजार से अधिक लोग इस लड़ाई की भेंट चढ़ चुके हैं। इतना ही नहीं हजार से अधिक जवान भी शहीद हो चुके हैं। सिर्फ इस साल ही अब तक 6 महीनों में 230 जवान समेत लगभग 485 लोगों की मौत हो चुकी है। देश में नक्सलवाद पर पेश है एक खास रिपोर्ट..

इस साल सबसे अधिक

देश में नक्सल प्रॉब्लम दिन पर दिन विकराल रूप लेती जा रही है। वैसे तो यह प्रॉब्लम शुरू हुई थी सत्तार के दशक में लेकिन दो दशक पहले इसका हिंसक रूप सामने आया। पिछले पांच सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस साल सबसे अधिक घटनाएं सामने आई हैं। इस साल के 6 महीनों में ही 1130 घटनाएं हो चुकी हैं। जबकि लास्ट इयर सेम पीरियड में 766 मामले सामने आए थे। इतना ही नहीं इस वर्ष अब तक कुछ 485 लोगों की मौत हो चुकी है जिनमें 230 जवान और 255 आम नागरिक थे।

37000 सोल्जर्स

नक्सलवाद की यह लड़ाई कितनी बड़ी है इस बात का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इस समय लगभग 37 बटालियन पैरामिलिट्री फोर्स यानी 37000 सोल्जर्स जंग से लड़ने के लिए लगाए गए हैं।

छत्ताीसगढ़ में अधि

वैसे तो देश के लगभग 12 स्टेट नक्सलवाद की इस समस्या से जूझ रहे हैं लेकिन छत्ताीसगढ़ में प्रॉब्लम सबसे अधिक सीरियस बनी हुई है। पिछले दिनों में यहां एक नक्सली हमले में एसपी समेत 36 लोगों की जान चली गई थी। यहां की स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पूरे देश में नक्सलवाद से मुकाबले के लिए लगीं कुछ 37 बटालियन में 17 बटालियन यानी 17 हजार जवान अकेले छत्ताीसगढ़ में लगाए गए हैं। साथ ही देश में कुल होने वाली नक्सली घटनाओं में 82 परसेंट घटनाएं छत्ताीसगढ़, बिहार, झारखंड और उड़ीसा में संयुक्त रूप से होती हैं। इसके साथ ही कुल होने वाली कैजुअल्टीज का 77 परसेंट इन्हीं स्टेट्स में हुई हैं।

इतिहास के झरोखे से

नक्सलाइट्स टर्म वेस्ट बंगाल के एक स्माल विलेज नक्सलवारी से आया है। जहां कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया का एक भाग चारू मजूमदार और कानू सांन्याल के नेतृत्व में 1967 में हिंसक हो गया, जिसने सीपीआई लीडरशीप के खिलाफ ही रिवेल्यूशनरी अपोजिशन डेवलप करने की कोशिश की। विद्रोह की शुरुआत 25 मई 1967 में नक्सलबारी विलेज में उस समय हुई जब एक किसान पर भूमि विवाद को लेकर हमला किया गया। मजूमदार चीन के माओ जेडांग से इंस्पायर था और भारतीय किसानों और लोअर क्लास की जमीनों को गिरवी रखने के लिए वह गवर्नमेंट और अपर क्लास को जिम्मेदार ठहराने लगा। इसके बाद नक्सलाइट मूवमेंट का जन्म हुआ। 1967 में नक्सलाइट ने आल इंडिया कोआर्डिनेशन कमेटी आफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज संगठित किया जो बाद में सीपीआई (एम) में बंट गया। 1969 में एआईसीसीसीआर ने कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (मार्सिस्ट-लेनिनिस्ट) को जन्म दिया। प्रेक्टिकली धीरे-धीर सभी नक्सलाइट ग्रुप्स अपने ओरिजिन सीपीआई (एमएल) से पहचाने जाने लगे। 1980 में तीस नक्सलाइट ग्रुप्स 30 हजार कंबाइंड मेंबरशिप के साथ सक्रिय हुआ। भूमि और सामान्तवाद की यह लड़ाई धीरे-धीरे खूनी जंग का रूप लेने लगी। नक्स्लवाड़ी से पूरा वेस्ट बंगाल फिर उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, झारखंड, बिहारी, छत्ताीसगढ़ के साथ देश के लगभग एक दर्जन राज्यों में यह एक समस्या के रूप में सामने आया।

नक्सल का आतंक बढ़ता ही जा रहा है. नक्सली आए दिन अटैक कर रहे हैं. नक्सली अक्सर खाकी वर्दी को अपना निशाना बनाते हैं. वामपंथी नक्सलवाद देश के 630 डिस्ट्रिक्ट में से 180 को अपनी चपेट में ले चुका है। देशभर में इनके करीब 22 हजार कैडर हैं।

झारखंड

पूरा स्टेट माओवाद की चपेट में, लेकिन 24 में से 16 डिस्ट्रिक्ट बुरी तरह पीड़ित हैं. स्टेट में माओवादियों के छह प्रमुख ग्रुप काम कर रहे हैं. तृतीया प्रस्तुति कमेटी, झारखंड प्रस्तुति कमेटी, द पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट आफ इंडिया, झारखंड जनसंघर्ष मुक्ति मोर्चा, संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा वसीपीआई (एम)।

उड़ीसा

यह स्टेट भी अधिकांश लाल रंग में रंग चुका है, लेकिन कुल 30 डिस्ट्रिक्ट्स में से आंध्र प्रदेश व छत्ताीसगढ़ से सटी सीमा के 17 डिस्ट्रिक्ट माओवाद से भयंकर रुप से ग्रस्त हैं। दक्षिणी उड़ीसा के मलकानगिरि, कोरापुट, रायगढ़, गजपति डिस्ट्रिक्ट्स में इनकी मजबूत उपस्थिति है। आदिवासी बहुल्य कंधमाल में भी अच्छा नेटवर्क है। उड़ीसा के डिस्ट्रिक्ट्स सुंदरगढ़, देवगढ़, संभलपुर बौध और अंगुल में तेजी से फैलाव।

बिहार

इस स्टेट के 38 में से 19 डिस्ट्रिक्ट्स में अच्छा खासा प्रभाव, पहले से इनकी मौजूदगी वाले पटना, गया, औरंगाबाद, भभुआ, रोहतास ओर जहानाबाद के अलावा अब इनका फैलाव उत्तार की तरफ हो रहा है। पश्चिमी चंपारण, पू. चंपारण, शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मघुबनी इनके नए विस्तार क्षेत्र हैं. सहरसा, वेगूसराय, वैशाली और उत्तार प्रदेश से सटे एरियाज में भी इनका प्रभाव है।

छत्ताीसगढ़

30 साल से माओवाद समस्या ने खनिज संपदा से धनी इस स्टेट की हालत को बदतर करने में मेन रोल निभाया है। 10 डिस्ट्रिक्ट्स के 150 पुलिस थाने गंभीर रुप से संवेदनशील. दंतेवाड़ा, कांकेर, बस्तर, बलरामपुर ओर सारगुजा डिस्ट्रिक्ट्स में माओवादियों की जड़े मजबूत।

आंध्र प्रदेश

स्टेट के दंडकारण्य एरिया में इनका खतरा बना हुआ है. विशाखापट्नम, विजयानगरम, खम्माम और पूर्वी गोदावरी डिस्ट्रिक्ट्स में मजबूत नेटवर्क।

महाराष्ट्र

गढ़चिरौली इनका गढ़ है जबकि चंद्रपुर गोडिंया, यवतमाल, भंडारा और नांदेड़ जैसे डिस्ट्रिक्ट नक्सलग्रस्त घोषित। ये सभी जिले आंध्र प्रदेश, छत्ताीसगढ़ और मध्य प्रदेश के नक्सल प्रभावित एरियाज से सटे हुए हैं

बुधवार, 15 जुलाई 2009

ज्यादा जीना है तो अपनाएं 10 नुस्खे

सबकी चाह होती है कि वह ज्यादा से ज्यादा उम्र तक जीवित रहे। लेकिन यह संभव नहीं। हम आपको दस ऐसे टिप्स देते हैं, जिन्हें अपना कर आप ज्यादा समय तक स्वस्थ्य जीवन जी सकते हैं।


1
पूरी नींद लें

जी हां अगर आप ज्यादा दिनों तक जीना चाहते हैं तो पूरी नींद लें। विभिन्न शोधों से पता चला है कि जो लोग पर्याप्त नींद नहीं ले पाते उन्हें अपच, रक्तचाप और दिल की बीमारियां होने की संभावना ज्यादा होती हैं। इन सभी बीमारियों के कारण मनुष्य का जीवनकाल कम हो जाता है। सोने को लेकर वैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति को 7-8 घंटे की नींद लेना चाहिए।

2
अपने दोस्तों के साथ बिताएं वक्त

अपने दोस्तों के साथ बिताया गया वक्त आपको ज्यादा दिनों तक जीवित रख सकता है। शोध में पाया गया है कि जिन लोगों के ज्यादा दोस्त होते हैं वे कम दोस्त वाले की अपेक्षा ज्यादा जीते हैं। इसके साथ ही यह भी देखा गया है कि जिनके करीबी दोस्तों की संख्या ज्यादा होती है उनका जीवनकाल ज्यादा होता है।

3 छुट्टियों में करे मौज

अगर अपको ज्यादा जीना है तो छुट्टियां मनाना न भूलें। काम के बोझ के कारण तनाव का हमारे जीवन में घर कर जाना आसान है, तनाव के कारण हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, वजन बढ़ना आदी समस्याएं सामने आती है। इनसे बचने के लिए सबसे पहले तनाव पर काबू करें और इसके लिए छुट्टियों का मजा लें।

4 सेक्स करें और ज्यादा जीएं

शादीशुदा लोगों के लिए सेक्स ज्यादा जीने का साधन हो सकता है। सेक्स से शरीर में कुछ ऐसे हॉर्माेन निकलते हैं जो रोगों से लड़ने में मदद करता है। इसके अलावा जिन लोगों की सेक्स लाइफ अच्छी होती है उनके जीवन में तनाव कम होता है।

5 रेड वाइन भी लाभदायक

रेड वाइन को संतुलित मात्रा में लेने से मनुष्य का जीवनकाल लम्बा हो सकता है। रेड वाइन में एन्टीऑक्सीडेन्ट की मात्रा अधिक होती है, जिससे दिल की बीमारियों को रोकने में मदद मिलती है।

6 जानवर भी दिला सकते हैं लम्बी आयु

पालतु जानवर विशेष कर कुत्ते और बिल्ली को पालना लाभदायक हो सकता है। ये जानवर अपने मालिक को बहुत प्यार देते हैं, इससे व्यक्ति का तनाव दूर होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि प्यार में धोखा खाए या फिर अकेलापन से जूझने वालों के लिए जानवर पालना ज्यादा लाभप्रद होता है।

7 नियमित चेकअप जरूरी

स्वस्थ्य रहने के लिए जरूरी है कि बीमारियों को शुरुआती स्टेज में ही पहचान कर उसका इलाज कराया जाए। इसके लिए मनुष्य को नियमित चेकअप करानी चाहिए, यह चेकअप 40 साल से ज्यादा के लोगों के लिए आवश्यक होती है।

8 सकारात्मक सोच

सकारात्मक सोच व्यक्ति ने सिर्फ करियर में लाभ पहुंचाता है बल्कि यह ज्यादा समय तक जीने में भी मदद करता है। एक शोध में पाया गया कि सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति अन्य की अपेक्षा ज्यादा स्वस्थ्य रहता है और वह ज्यादा दिनों तक जीता है।

9 शादी करें और लम्बे जीवन का आनंद लें

शादीशुदा लोग अविवाहितों की अपेक्षा ज्यादा जीते हैं। एक शोध के अनुसार एक शादीशुदा पुरुष अविवाहित पुरुष की तुलना में 10 साल ज्यादा जीता है। इसी प्रकार अविवाहित महिला की तुलना में विवाहित महिला 4 साल ज्यादा जीती है।

10 शिक्षा से मिलती है मदद

शोध के अनुसार शिक्षित लोग ज्यादा जीते हैं। शिक्षित लोग कम व्यसन करते है और उनका कार्य भी ज्यादा खतरनाक नहीं होता साथ ही वे अपने स्वास्थ्य का ज्यादा खयाल रखते हैं।


बजट है भविष्य के गर्भ में

दुनिया के सबसे गरीब देश, जिसे गरीबी रेखा मानते हैं, के मुताबिक भारत में दस में से चार भारतीय से भी ज्यादा गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। नासो की मानें तो देश की ग्रामीण आबादी में 19 फीसदी लोग रोजाना 12 रुपए में गुजारा करते हैं। हमारे यहां एक ग्रामीण परिवार एक माह में महज 365 रुपए में प्रति व्यक्ति खर्च कर गुजारा करता है, जबकि शहरी क्षेत्र की २२ फीसदी आबादी प्रति व्यक्ति 19 रुपए खर्च करती है। मसलन एक व्यक्ति महीने भर में 580 रुपए में अपना जीवन गुजारता है। शहरों में खाने पर लोग औसतन 451 रुपए खर्च करते हैं, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में महज २५१-४क्क् रुपए में गुजारा करते हैं।

केंद्र सरकार ने बिजली भले प्राथमिकता सूची में रखी हो, लेकिन देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 42 फीसदी घरों में आज भी बिजली उनके लिए सपना है। कहने को वहां ५६ फीसदी घरों में बिजली उपलब्ध है। लेकिन जब शहरों में 12 से 14 घंटों बिजली न रहती हो, उस हालत में ग्रामीण इलाकों में बिजली की आशा बेमानी है। असल में बिजली तो नगरों-महानगरों में, राजधानियों में माननीयों-महामहिमों और उद्योगों से बचे, तब तो ग्रामीण शहरी इलाकों में पहुंचे।

सच में गावों के 42 फीसदी लोग मिट्टी के तेल से रोशनी पाते हैं, वह भी ब्लैक में खरीदकर। जहां तक खाना बनाने का सवाल है, गांव के 74 फीसदी घरों में तिनके और लकड़ियों से खाना बनता है। भले वहां के नौ फीसदी घरों में रसोई गैस से खाना बनता हो, लेकिन असल में इतनी ही फीसदी लोग उपलों से खाना बनाते हैं। हालत तो यह है कि १७ बड़े राज्यों में से सात राज्यों में १९ फीसदी ग्रामीण कच्चे घरों में रह रहे हैं, वहीं 50 फीसदी लोगों के घर पक्के और 31 फीसदी के घर आधे पक्के थे। यह हमारे गांवों की हकीकत है।

विश्व विकास रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भौगोलिक हिसाब से सबसे ज्यादा बदतर हालात का सामना करने वाले इसी देश के लोग हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत घनी आबादी वाला दुनिया का सबसे पिछड़ा देश है और देश के 60 फीसदी गरीब लोग देश के प्रमुख राज्यों में रहते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि खुशहाली गांव में बैठे-बिठाए यानी एक जगह टिके रहने से नहीं आती। रिपोर्ट के मुताबिक रोजगार की खातिर शहरों-महानगरों की ओर जाने की प्रवृत्ति सकारात्मक है, स्वाभाविक है।

लोगों को निर्धनता से छुटकारा मिलना ही चाहिए। शहरीकरण के अलावा इसका कोई चारा नहीं है। लेकिन खेद है कि शहरी प्रशासन रोजगार की तलाश में आने वालों के प्रति नकारात्मक रवैया रखता है। यही नहीं, उनके बेहतर जीवनयापन के लिए सुविधाएं मुहैया करने के मामले पर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। और तो और वह उनके लिए आवास, स्कूल, सफाई, सड़क, सुरक्षा, बिजली, पानी और आवागमन आदि की व्यवस्था करने में भी आनाकानी और बिना वजह देरी करता है।

नतीजतन लोग अपनी जरूरत और अधिकार पूरे करने की खातिर मजबूरन कानून अपने हाथ में ले लेते हैं। विडंबना यह है कि गांव-देहात से और आदिवासी अंचल से चुनकर आए जनप्रतिनिधि भी इनकी सुध नहीं लेते और हर पल अपनी सुविधाओं तथा वेतन बढ़ाने की जुगत में रहते है। आजकल इस साल के बजट को आजाद भारत का सबसे अच्छा बताया जा रहा है, देखना यह है कि यह इन लोगों का कहां तक भला कर पाएगा। यह तो भविष्य के गर्भ में है।

रविवार, 12 जुलाई 2009

मोदी मार्का गुजरात में शराबबंदी जरुरी?

ज़हरीली शराब पीकर मरना भारत में शायद सबसे बुरी मौत है. सिर्फ़ इसलिए नहीं कि बहुत तकलीफ़ होती है, इसलिए भी कि इसके शिकार वैसी सहानुभूति के हक़दार नहीं जो दूसरी दुर्घटनाओं के होते हैं.गुजरात में 100 से ज्यादा लोग ऐसी ही मौत मरे हैं, 150 से ज्यादा मौत से लड़ रहे हैं मगर जनता, मीडिया या प्रशासन की प्रतिक्रिया वैसी नहीं है, मिसाल के तौर पर, जैसी एक बड़ी रेल दुर्घटना के वक़्त होती है.
कुछ लोग तो रेल दुर्घटना से तुलना किए जाने पर ही बिफर सकते हैं, कहेंगे- 'और पियो, ठीक ही हुआ', 'गुजरात में तो नशाबंदी थी, किसने कहा था पीने को,' 'अच्छा हुआ, शराब पीने वालों को इससे सबक़ मिलेगा...' 'रेल में मुसाफ़िरों की क्या ग़लती है, शराबी तो अपनी करनी का फल भुगत रहे हैं'...
ज़्यादातर लोगों का शायद यही मानना है कि ये लोग अकारण नहीं मरे हैं, मरने का कारण है- शराब पीना, जिसके लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार हैं. अनाथ बच्चों का चेहरा भी दिलों को शायद उतना नहीं दुखा रहा है.शराब को लेकर भारत के मध्यवर्ग में जितने पूर्वाग्रह और पाखंड हैं उनके ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कारणों की समीक्षा एक दिलचस्प विषय हो सकता है लेकिन इतना तो साफ़ दिखता है कि उच्च वर्ग और निम्न वर्ग दोनों में यह वर्जित तरल नहीं है.सारी समस्या उस वर्ग की है जिससे मैं ख़ुद आता हूँ. शराब पीकर गँवाने के लिए निम्न वर्ग के लोगों के पास कुछ नहीं होता, अमीर आदमी को शराब पीने के लिए घर-बार बेचना नहीं पड़ता लेकिन मध्य वर्ग शराब को लेकर गहरी चिंता में घुलता जाता है.
मध्यवर्ग की अपनी जायज़ चिंताएँ हो सकती हैं मगर शराब से वह इतना आक्रांत है कि उसका असर उसकी मानवीय संवदेनाओं पर हावी दिखता है. 'शराबी के दो ठिकाने, ठेके जाए या थाने' या 'शराब करे जीवन ख़राब' जैसे स्लोगनों से परे देखने की उसकी क्षमता ख़त्म हो गई है, ठीक एक शराबी की तरह.गुजरात का मामला बाक़ी देश से ज़रा अलग है क्योंकि वहाँ दशकों से नशाबंदी लागू है, बिल्कुल ईरान की तरह. शराब पीने वाले अमीर दमन-दीव, गोवा, महाराष्ट्र जाते हैं या दोगुने दाम वसूलने वाले एजेंटों से मनचाहे माल की सप्लाई लेते हैं. सिर्फ़ ग़रीब ऐसी मौत मरते हैं.
इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा नहीं मिल सकता क्योंकि वे शराब पीने के गुनहगार हैं, अनैतिक लोग हैं. सरकार कह रही है कि दोषी लोगों को पकड़ा जाएगा, पकड़ना ही होगा क्योंकि उन्होंने राज्य का नशाबंदी क़ानून तोड़ा है.लोग कह रहे हैं कि गुजरात में 100 से ज्यादा लोगों की मौत 'नशाबंदी के बावजूद' हो गई जो एक गंभीर बात है, लेकिन इस बात पर बहस के लिए तैयार नहीं हैं कि यह घटना गुजरात में ही क्यों हुई, कहीं नशाबंदी ही इसकी एक वजह तो नहीं?
नशाबंदी कई मायनों में एक विवादास्पद पॉलिसी है. इस पर पूरा अमल नामुमकिन है, सरकारों को राजस्व का नुक़सान होता है, माफ़िया और बेईमान पुलिसवालों को कमाई का ज़ोरदार मौक़ा मिलता है और ज़हरीली शराब का कारोबार फैलता है...ज़ाहिर है कि नशाबंदी के पक्ष में भी अनेक तर्क हैं, यानी एक सार्थक बहस की गुंजाइश है.ये भी मत भूलिए कि शराब पीना कुछ इस्लामी देशों और गुजरात को छोड़कर बाक़ी दुनिया में क़ानूनन अपराध नहीं है.सिगरेट, गांजा, अफ़ीम, चरस बुरी चीज़ें हैं, जुआ भी, वेश्यावृति भी और न जाने कितनी बुराइयाँ जिनकी सूची अनंत है, शराब भी उन्हीं में से एक है.
शराब अगर एक समस्या है तो उससे निबटने के सार्थक और व्यवाहारिक प्रयास होने चाहिए, कोरे नैतिकतावादी-आदर्शवादी रवैए से सबका नुक़सान होगा, लोग सदियों से शराब पीते रहे हैं, आज भी पी रहे हैं और आगे भी पीते रहेंगे, इस तथ्य को स्वीकार किए बिना कोई कारगर नीति नहीं बन सकती.ऊपर जो भी लिखा है उसके बारे में अगर आपका ये निष्कर्ष है कि मैं शराब पीने के पक्ष में हूँ तो मुझे ऐसा ही लगेगा कि आप नशे में हैं. जो लोग बहस के बीच में व्यक्तिगत सवाल उठाने के शौक़ीन हैं उनकी जानकारी के लिए सच बताना ज़रूरी है कि ठंडी बियर मुझे सुकून देती है.अंत में एक सलाह-- गंभीर समस्याओं पर शराब या नैतिकता के नशे में नहीं सोचना चाहिए.

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

आज मैं ऊपर, आसमां नीचे..

रोमांच की तलाश इंसान को कहां-कहां नहीं ले जाती, फिर नीमराना फोर्ट तो दिल्ली से महज सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर है। इस साल जनवरी में जब से फ्लांइंग फोक्स के बारे में सुना था, तब से उसमें हाथ आजमाने का बहुत मन था क्योंकि वह न केवल भारत का अपनी तरह का अकेला जिप टूर है बल्कि इसकी एक जिप लाइन दक्षिण एशिया में सबसे लंबी और समूचे एशिया में दूसरी सबसे बडी है।

जैसी शुरू में मेरे मन में थी, वैसी ही आपके मन में सामान्य जिज्ञासा हो सकती है कि आखिर यह जिप टूर है क्या बला? जिप टूर दरअसल वह सफर है जो लोहे के तारों पर हुक से बंधे होकर (लटककर) किया जाता है। आपने तस्वीरों, फिल्मों या हकीकत में लोगों को नदियां पार करते देखा होगा। ठीक उसी तरह अब यह जिपलाइन किसी जगह को नए अंदाज व नई निगाह से देखने का रोमांच है। पहाड पर आप एक जगह से दूसरी जगह तक का सफर इसी तार के जरिये करते हैं। दिल्ली से सटी अरावली की पहाडियों में राजस्थान की सीमा में घुसते ही स्थित नीमराना फोर्ट भारत के इस अकेले जिपलाइन टूर का मेजबान है। फ्लांइंग फोक्स इसे संचालित करने वाली कंपनी है। फ्लाइंग फोक्स के मेहमान के तौर पर जब मैं नीमराना फोर्ट में ही फ्लाइंग फोक्स के दफ्तर पहुंचा तो वहां मौजूद इंस्ट्रक्टरों ने बडी गर्मजोशी से स्वागत किया। कपडों, उपकरण व सामान की आरंभिक तैयारी के बाद हम पहाडी की चोटी की तरफ चले। हमें पहले ही सीट हारनेस पहना दिया गया था। सीट हारनेस मजबूत बेल्टों का वह जाल होता है जो कमर पर पहन लिया जाता है। शरीर का वजन उठाने में सक्षम यह हारनेस कमरपेटी व जांघ पर कस जाती है, उसमें हुक (जिन्हें कैराबिनर्स कहा जाता है) लगे होते हैं जो शरीर को किसी तार या रस्सी से लटका देते हैं।

रॉक क्लाइंबिंग, रैपलिंग, रिवर क्रासिंग और पर्वतारोहण में भी इसी तरह के उपकरण काम आते हैं। तो ये कमरपेटियां बांधे हुए हमने पहाडी पर चढना शुरू किया। हमारे साथ दो कुशल व काबिल अंग्रेज इंस्ट्रक्टर थे। (आप चाहें तो आपको हिंदीभाषी इंस्ट्रक्टर भी मिल सकते हैं) लगभग बीस मिनट की चढाई के बाद हम चोटी पर आ पहुंचे। वहां से नीमराना फोर्ट पैलेस, जो खुद पहाडी काटकर बनाया गया था, छोटा सा नजर आता है। चोटी पर एक प्लेटफार्म बना हुआ था यह पहली जिपलाइन की शुरुआत थी। यहीं पर एक छोटा सा हिस्सा अभ्यास और सफर की पूरी प्रक्रिया समझाने के लिए भी है। जिपिंग (इसे यही कहा जाता है) को समझने, सारे एहतियात जानने, खुद को तैयार करने में 15-20 मिनट का वक्त लग गया। इंस्ट्रक्टर उस इलाके के इतिहास की भी जानकारी देते हैं। बहरहाल, इसके बाद शुरू हुआ असली रोमांच। दो इंस्ट्रक्टरों में से एक पहले गया, वह दूसरे प्वाइंट पर पहुंचने के बाद वॉकी-टॉकी से पीछे वाले इंस्ट्रक्टर को सब ठीक-ठाक होने की सूचना देता है, तभी बाकी लोग जाना शुरू करते हैं। चूंकि सफर पहाडी की चोटियों पर होता है, इसलिए मौसम का भी ध्यान रखा जाता है। तेज बारिश, हवा या बिजली में जिप टूर को रोकना पडता है। आगे जाने वाला इंस्ट्रक्टर हवा के असर को भी भांप लेता है। हालांकि पहले प्वाइंट पर अभ्यास के दौरान हमें यह बताया गया था कि हवा पीछे से या सामने से आए तो कैसे अपनी गति को नियंत्रित रखना है, कैसे गति बढाएं या ब्रेक लगाएं, हवा तिरछी बह रही हो तो कैसे अपना संतुलन बनाए रखना है, इंस्ट्रक्टर के इशारे दूर से कैसे समझे जाते हैं, वगैरह-वगैरह। जिपिंग की पूरी प्रक्रिया मैकेनिकल है यानी लोहे के तार के झोल से शरीर को मिलने वाली गति से हम एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक पहुंचते हैं। खींचने की कोई मशीनी प्रक्रिया नहीं है। ऐसे में यदि हम किसी बिंदु से थोडा पीछे रह जाते हैं तो सेना के जवानों की तरह अपने हाथों से खींच-खींचकर खुद को प्लेटफार्म तक पहुंचाते हैं। तो इंस्ट्रक्टर के ओके कहने के बाद मैं आगे बढा। हारनेस से दो बेल्ट बंधी होती हैं- एक में पुली लगी होती, जिसके जरिये हम रस्सी पर बढते हैं और दूसरे में अतिरिक्त सुरक्षा के लिए कैराबिनर। हाथों में मजबूत दस्ताने होते हैं। जितनी भी घबराहट होती है, वह पहले जिप के लिए शुरू करते वक्त होती है, क्योंकि अनुभव नया होता है। उसके बाद सिर्फ मजेदार रोमांच है। पहली जिप में थोडी हवा मिली क्योंकि वह पहाडी की चोटी पर ही एक सिरे से दूसरे सिरे तक है। उसकी लंबाई खासी है (350 मीटर) लेकिन सतह से ऊंचाई ज्यादा नहीं है, इसलिए जिपिंग के पहले अनुभव के लिए बिलकुल दुरुस्त है। फ्लाइंग फोक्स ने इन जिपलाइनों के नाम भी बडे रोचक रखे हैं, जैसे कि पहली जिपलाइन का नाम है- टू किला स्लैमर।

पहली जिप जहां उतारती हैं, वहां से दूसरे प्लेटफार्म तक थोडा नीचे पहाडी पर पैदल उतरना होता है। दूसरी जिप (वेयर ईगल्स डेयर) सबसे लंबी है, लगभग चार सौ मीटर। नीचे अरावली पहाडियों के बीच नीमराना फोर्ट और कस्बे के विहंगम और खूबसूरत नजारे के लिए सबसे उपयुक्त। पहली जिप के बाद मन से डर तो भाग चुका था। मजा आने लगा था। मैं अपने भीतर के फोटोग्राफर को रोक न पाया और बीच में रुककर अपने कैमरे से नीचे नीमराना फोर्ट की तस्वीरें खींचने लगा। यह यकीन हो चला था कि बेल्ट मुझे तार से लटकाए रखने में खासी सक्षम है।

इसलिए एक हाथ से बेल्ट को पकडकर अपना संतुलन बनाए रखा तो दूसरे हाथ से कैमरे को थामकर क्लिक करने लगा। एक परिंदे की नजर से नीचे का वह हवाई नजारा अद्भुत था। हालांकि उसका खामियाजा मैंने यह भुगता कि तीसरे प्लेटफार्म तक मुझे अपनी सारी ताकत लगाकर खुद को खींचकर ले जाना पडा। तीसरी जिप (गुडबॉय मिस्टर बॉंड) छोटी सी है, महज नब्बे मीटर, बाकी जिपलाइनों की चमक मैं आप इसे भूल ही जाएंगे। चौथी जिपलाइन (हाई एज ए काइट) भी पहली और दूसरी की तुलना में छोटी, ढाई सौ मीटर ही है लेकिन यह जिपलाइन सतह से सबसे ऊपर (बीच में लगभग सौ फुट से ज्यादा) है। पांचवी जिपलाइन (बिग बी) 175 मीटर ही लंबी है लेकिन यह पांचों में सबसे तेज है, इतनी कि आखिरी प्लेटफार्म तक पहुंचते-पहुंचते हो सकता है आपको सामने इंस्ट्रक्टर यह इशारा करता नजर आए कि अपनी गति धीमी करें और आपको दस्ताने पहने हाथ से तार को रगडकर ब्रेक लगाना पडे। आखिरी प्लेटफार्म महल की ऊपरी चाहरदीवारी पर ही है। इस तरह पांचवी जिप हमें फिर से महल में पहुंचा गई। सफर जहां से शुरू हुआ था, लगभग दो घंटे में वहीं खत्म हुआ। दिल में रोमांच, नीचे जमीन और सैकडों फुट ऊपर परिंदों की तरह हवा में तार से लटका मैं। आजमाइए, मेरी ही तरह आपके लिए भी यह यादगार अनुभव रहेगा।

पूरी हिफाजत

यह तो अफसोस की बात है ही कि भारत में रोमांचक खेलों के नियमन के कोई नियम-कायदे बने हुए नहीं हैं। लेकिन फ्लाइंग फोक्स की जिपिंग इस तरह के रोमांच के लिए नवीनतम यूरोपीय मानकों पर खरी उतरती है। पूरे टूर की डिजाइन व निर्माण स्विस इंजीनियरों ने किया है। सभी उपकरण भी स्विट्जरलैंड व फ्रांस से आयातित हैं। संचालन का काम इस क्षेत्र में 15 साल से ज्यादा का अनुभव रखने वाले ब्रिटिश विशेषज्ञों के हाथ में है। रोज हर उपकरण की बारीकी से जांच होती है। फ्लाइंग फोक्स का कहना है कि तार तो इतना मजबूत है कि अगर इतनी बडी हारनेस मिल जाए तो हम हाथी तक को जिप करा सकते हैं। नीमराना में डेढ हजार से ज्यादा लोग अब तक इस रोमांच का मजा ले चुके हैं। फ्लाइंग फोक्स का लक्ष्य इस साल के लिए पांच हजार का है। अपनी जमी-जमाई नौकरियां छोडकर नीमराना में इस रोमांच की नींव रखने वाले ब्रिटेन के रिचर्ड मैककेलम और जोनाथन वाल्टर अब इस अनुभव को भारत के बाकी हिस्सों में भी ले जाने की योजना बना रहे हैं।

जिप, जैप, जू...

फ्लाइंग फोक्स अभी तो बंद है, आखिर जून की चिलचिलाती गरमी में जिपिंग करना कोई समझदारी नहीं। 10 जुलाई से रोमांच का यह खेल फिर से शुरू होगा। इसके लिए नीमराना फोर्ट पैलेस पहुंचना होता है। फ्लाइंग फोक्स का बेस यहीं है। नीमराना कस्बा राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 पर जयपुर जाते हुए दिल्ली से 125 किलोमीटर दूर है। फोर्ट हाईवे से अंदर लगभग तीन किलोमीटर जाकर है।

14वीं सदी का नीमराना फोर्ट पैलेस एक हैरीटेज होटल है और हैरीटेज होटल के रूप में संचालित हो रही देश की सबसे पुरानी इमारतों में से एक है। दिल्ली व आसपास के लोगों के लिए यह एक वीकेंड डेस्टीनेशन के रूप में या महज दिनभर की सैर व पिकनिक के लिए भी लोकप्रिय है।

दस साल से ज्यादा उम्र, 4 फुट 7 इंच से ज्यादा लंबाई, 43 इंच से कम कमर और 127 किलो से कम वजन वाला कोई भी व्यक्ति यहां जिपिंग कर सकता है।

किराया है वयस्क के लिए 1495 रुपये और बच्चों के लिए 1195 रुपये। लेकिन एडवांस बुकिंग कराने पर इसमें 15 फीसदी तक छूट मिल जाती है। इसके अलावा समूह और परिवारों के लिए टिकटों में अलग से रियायत है। एक खास बात यह भी कि फ्लाइंग फोक्स का टिकट लेने पर नीमराना फोर्ट पैलेस में प्रवेश का शुल्क नहीं लगता, जो आम तौर पर 12 साल से ज्यादा उम्र के लोगों के लिए 500 रुपये है (केवल होटल में नहीं ठहरने वालों के लिए)। आप सीधे नीमराना जाकर भी टिकट ले सकते हैं लेकिन तब सीट मिलने की गारंटी नहीं रहती।

फोर्ट से रवाना होने के बाद पांचों जिप लाइन करके वापस पहुंचने में लगभग दो से ढाई घंटे का समय लगता है। बहुत कुछ हवा, ग्रुप की संख्या और हिम्मत पर भी निर्भर करता है। एक ग्रुप में अधिकतम 10 लोग होते हैं। सामान्य दिनों में जिपिंग टूर सवेरे 9, 10 व 11 बजे और दोपहर बद 1, 2 व 3 बजे शुरू होते हैं।


रविवार, 5 जुलाई 2009

महिलाओं की पोशाक संहिता

पिछले दिनों कानपुर के महिला महाविद्यालयों में लड़कियों को जीन्स पहनकर पढ़ने आने पर रोक लगाने की बात पर बवाल उठ खड़ा हुआ। सरकार को बीच में आना पड़ा। "ड्रेस कोड लागू नहीं किया जाएगा" का आदेश हुआ। सरकार की सराहना हुई है। समाज में बहुत लोग ड्रेस कोड लगाने के पक्षधर थे, तो बहुत लोग विरोधी।

मैं भी इस बात से सहमत हूं कि महाविद्यालयों में पढ़ने जा रही लड़कियों पर "ड्रेस कोड" नहीं लगना चाहिए। पर सवाल तो यह उठता है कि आखिर प्राचार्यो के मन में ड्रेस कोड लगाने की बात उठी क्यों हमारी बच्चियां कैसे कपड़े पहनें, यह निश्चित करना सरकार या समाज (विद्यालय- महाविद्यालयों) का काम नहीं है, परन्तु कपड़ों पर ध्यान तो देना ही है।
बेटियां-बहुएं वही ड्रेस पहनती हैं जो बाजार में बिकते हैं या फैशन शो में दिखाए जाते हैं। इसलिए यह तो मानना होगा कि उनकी अपनी रूचि का सवाल नहीं है। फैशन शो वाले तय करते हैं कि हमारी बेटियां अर्द्धनग्न दिखें, बेटों का पूरा शरीर ढका हो।

चलिए। मान लेते हैं कि शरीर का प्रदर्शन भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अन्दर आता है, पर कितनी स्वतन्त्रता कैसी स्वतन्त्रता क्या एक सामाजिक प्राणी होते हुए हम इतने स्वतन्त्र हैं कि जो मन में आए, वैसा करें जहां मन में आए, वहां जाएं जिसे मन में आए, उसे गोली मार दें नहीं न! फिर वस्त्र के मामले में इतनी स्वच्छंदता क्यों
जल-थल-नभ पर पांव रखने वाली बेटी-बहुओं से यह अपेक्षा करना भूल ही नहीं, अपराध होगा कि वे साड़ी में लिपटी रहें। परन्तु जब भड़काऊ भाषण पर प्रतिबंध लगता है तो भड़काऊ ड्रेस पर क्यों नहीं यह नहीं कहती कि बेटियां जीन्स पहने ही नहीं। हमारे जमाने में जीन्स थी ही नहीं तो हम पहनती कैसे

अर्द्धनग्नता बर्दाश्त नहीं होनी चाहिए। बेटियों को एहसास कराने भर की बात है। कहां कैसा वस्त्र पहनकर जाएं, इतनी सज्ञानता होनी चाहिए। मां-बाप जिस वेश में स्वयं अपनी बेटियों को पूरी नजर नहीं देख सकें, कम से कम वैसे वस्त्र पहनकर तो बाहर न निकलें बेटियां।

यह नसीहत नहीं है। स्वयं एहसास करने की जरू रत है। हर माता-पिता की इच्छा होती है कि उनकी बेटियां सुन्दर दिखें। अर्द्धनग्नता सौंदर्य बढ़ा ही नहीं सकती। फिर तो वस्त्र की जरूरत ही नहीं होती। इन सामाजिक समस्याओं को भी कुछ लोग पारम्परिकता और आधुनिकता के विवाद में फंसा ले जाते हैं। नाहक समाज दो खेमों में बंट जाता है। यह वाद-विवाद का विषय नहीं है। बात इतनी-सी है कि शिक्षालयों में युवतियां शिक्षा और संस्कार ग्रहण करने जाती हैं। वहां शालीन वस्त्र, संयमित व्यवहार और हावभाव होना चाहिए। यह अपेक्षा मात्र लड़कियों से नहीं लड़कों से भी है। अंतर्मन से आधुनिक होना चाहिए। आधुनिकता की प्रतिद्वंद्विता से बचना चाहिए। हमारे वस्त्र हमें आधुनिक नहीं बनाते।

अप्राकृतिक आचरण

समाज मनुष्य की प्राकृतिक जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्था करता है। उसके अधिकार और कर्तव्य के रक्षण के लिए ही नियम-उपनियम, कानून और संहिताएं बनती बिगड़ती रही हैं। हमारा समाज कभी रूढ़ नहीं रहा है। यहां तो "आनो भद्रा: Rतवो यन्तु विश्वत:" कहा गया है। अर्थात सभी अंदर से अच्छे विचार आने दें। क्या पता कहां से कोई अच्छी बात, सुखद हवा आ जाए। समाज के स्वस्थ्य विकास के लिए, दूसरों के अनुभव से भी सीखते रहने का निर्देश दिया गया है, परंतु मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं और नियमों के प्रतिकूल जाना वर्जित किया गया है। इन दिनों समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने के सवाल पर बवाल उठ खड़ा हुआ है। दलील यह भी दी जा रही है कि समाज में कुछ प्रतिशत लोग समलैंगिक हैं तो उनकी बात क्यों न मानी जाए अभिप्राय कि कल चोर-डकैत भी छाती पर पट्टा लगाकर सड़कों पर खुल्लमखुल्ला मांग करेंगे- "चोरी-डकैती को वैधता प्रदान की जाए।" हम जानते हैं कि विवाहेतर सम्बन्ध भी चोरी-छुपे होते हैं। कल ऎसे लोग सड़कों पर आकर मांग करें- "हमारे विवाहेतर सम्बन्ध को कानूनी मान्यता मिले।" फिर क्या होगा परिवार का कैसा होगा समाज क्या सारे कानून बदलने नहीं पड़ेंगे सीधी-सी बात है। मनुष्य की प्राकृतिक जरूरत- आहार, निद्रा, भय और मैथुन हैं। ये चारों जन्मजात जरूरतें हैं। ये चारों ही मनुष्य के जीवन की प्रेरणाएं भी हैं। और इन जन्मजात जरूरतों को देखकर समाज में व्यवस्था लाने की दृष्टि से पति-पत्नी की जोड़ी बना दी गई। विवाहोपरांत उस स्त्री-पुरूष के बीच लैंगिक सम्बन्ध वैधानिक कर दिए गए। दोनों के बीच यह सम्बन्ध टूटना भी विवाह विच्छेद का एक कारण बनता है। अर्थात दोनों के बीच लैंगिक सम्बन्ध कायम रहना आवश्यक है। गलत भोजन करने और जरूरत से अधिक या कम नींद भी बीमारी का कारण हो जाती है। स्त्री-पुरूष के बीच लैंगिक सम्बन्ध प्राकृतिक आवश्यकता है। समाज ने अपनी व्यवस्था और सुविधा के लिए पति-पत्नी के बीच सीमित कर दिया है। समलैंगिक सम्बन्ध अप्राकृतिक है। बीमारी है। बीमार मानसिकता की उपज है। समाज की किसी बीमारी को वैधानिक नहीं बनाया जा सकता।
मानवीय शुचिता और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी समलैंगिकता उचित नहीं है। कोई भी धार्मिक सम्प्रदाय इसकी अनुमति नहीं देता है। कहना चाहूंगी कि भारतीय जीवन पद्धति में व्यक्तिगत जीवन में शुचिता पर विशेष ध्यान दिया गया है। दूसरी बात है कि मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुसार आचार संहिता भी बनाई गई हैं। यही मानव धर्म है। मानवीय संस्कृति है। इसे नहीं तोड़ा जा सकता। स्त्री-पुरूष संबंधों में बहुत-सी विद्रूपताएं आ गई हैं। कई बार तो जानवरों के साथ लैंगिक संबंध की खबरें आती हैं। तो क्या इसे वैध माना जाए नहीं! क्योंकि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए यह उचित नहीं। यह बीमारी है। सनकीपन है। सामान्य व्यवहार नहीं! हरेक काल में ऎसी विद्रूपताएं किसी न किसी रूप में विद्यमान रही होंगी। तात्पर्य यह नहीं कि उन विद्रूपताओं को समाज सम्मत मानकर तद्नुकूल कानून बना दिया जाए। आज कुंआरी माताओं को अधिकार देने की बात जोरों से उठी है। "लिविंग टूगेदर" को कानूनी मान्यता प्रदान करने की बात उठ रही है। ये सारी मांगें सनातनी विवाह संस्कार और परिवार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ओर अग्रसर हैं। समाज की चूल ही चरमरा जाएगी। व्यवस्थाएं समाप्त हो जाएंगी। जंगल राज आ जाएगा।

रविवार, 21 जून 2009

स्वीकार्य नहीं गुजकोका

केन्द्र सरकार ने दूसरी बार गुजरात संगठित अपराध नियंत्रण कानून (गुजकोका) को अमान्य कर दिया है। पिछली बार मनमोहन मंत्रिमंडल ने जब इसे राज्य विधानसभा को वापस भेजने की सिफारिश राष्ट्रपति से की थी, तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने "वोट बैंक राजनीति" और "विरोधी दलों की सरकारों के साथ कांग्रेस के भेदभाव" का आरोप लगाया था, पर शायद इस बार वे ऎसा नहीं कर पाएंगे।
दरअसल केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच पत्र व्यवहार का संवेदनशील ब्यौरा उजागर नहीं करने की परम्परा है। शुक्रवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक के बाद "गुजकोका" को वापस भेजने के निर्णय की संवाददाताओं को जानकारी देते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम् ने इस पर तीन आपत्तियां बताईं। इससे मोदी के इस दावे की पोल खुल गई कि संशोधित "गुजकोका" भी कर्नाटक और महाराष्ट्र के आतंक-विरोधी कानूनों की तरह है। हकीकत यह है कि गुजरात सरकार "गुजकोका" के जरिये ऎसे अपरिमित अधिकार चाहती है, जो मानवाधिकारों का सम्मान करने वाली कोई लोकतांत्रिक सरकार स्वीकार नहीं कर सकती।
गुजकोका के प्रावधानों पर केन्द्र की पहली आपत्ति यह है कि इसमें पुलिस अधिकारी के समक्ष इकबालिया बयान को अदालत में स्वीकार्य बनाया गया है। सभी जानते हैं कि पुलिस मामूली चोरी को भी कबूल करवाने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाती है। यही नहीं गुजकोका में एक प्रावधान यह भी किया गया है कि यदि लोक अभियोजक विरोध करे तो अदालत जमानत मंजूर नहीं कर सकती। यह तो हद हो गई! फिर अदालत की जरू रत ही क्या है मुल्जिम को लोक अभियोजक के समक्ष पेश कर ही जमानत पर फैसला करवा लिया जाए। केन्द्र सरकार को गुजकोका की धारा 20 (2) पर भी आपत्ति है। इस धारा में प्रावधान संभवत: इतना "संवेदनशील" है कि चिदम्बरम् को चुप्पी ही साधनी पडी। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ये तीन संशोधन गुजरात सरकार कर दे, तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल उसे राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज सकता है। क्या मोदी अब भी यही दावा करेंगे कि केन्द्र सरकार "भेदभाव" कर रही है भले ही गुंडे, डाकू, उग्रवादी, फिरकापरस्त और आतंककारी मानवाधिकारों की इज्जत नहीं करते, पर लोकतांत्रिक समाज तो उन्हें इनसे कतई वंचित नहीं कर सकता। गुजरात सरकार को भी यह बात माननी ही पडेगी

सोमवार, 1 जून 2009

आरटीआई क्षेत्र में बेहतर काम का मिलेगा पुरस्कार

सूचना अधिकार कानून आजाद भारत में आम आदमी को मिला शायद सबसे धारदार हथियार है। यह ऐसा अधिकार है जो गांव की गली में बिछे खड़ंजे की लागत से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों की माली हैसियत पर भी सवाल पूछने की ताकत देता है। यह कानून जिन लोगों के दम पर चला और दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते बेहाल हुए इंसान के हक की आवाज बन सका, लगन के धनी ऐसे लोगों को अब राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा सकेगा। पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन (पीसीआरएफ) देश भर के चुनिंदा आरटीआई एक्टीविस्ट को नवंबर में पुरस्कृत करेगी। सूचना का अधिकार कानून को और लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से शुरू सूचना का अधिकार-राष्ट्रीय पुरस्कार 2009 में पहले दो पुरस्कार सरकारी दफ्तरों में तैनात उन जनसूचना अधिकारियों के लिए होंगे, जिन्होंने आवदेक को बिना दौड़ाए उसे जानकारी उपलब्ध करा दी। एक पुरस्कार आवेदनों पर फैसला लेने वाले सूचना आयुक्तों के लिए होगा और दो पुरस्कार सूचना आवेदकों के लिए होंगे। सभी पांचों विजेताओं को दो-दो लाख रुपये नकद, ट्राफी और सम्मान पत्र दिया जाएगा। इन पांच के अलावा अंतिम सूची में स्थान बनाने वाले प्रतिभागियों को भी संस्था एक ट्राफी देगी। देश में अपनी तरह के इन पहले पुरस्कारों के सूत्रधार अरविंद केजरीवाल के मुताबिक सभी आवेदन पहली जून से 30 जून तक स्वीकार किए जाएंगे। प्रविष्टियों पर विचार देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह, इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति, अभिनेता आमिर खान, पूर्व राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियन पुलेला गोपीचंद, नृत्यांगना मल्लिका साराभाई, वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन, दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्त, एनडीटीवी के अध्यक्ष डा. प्रणय राय और वरिष्ठ पत्रकार मधु त्रेहन का निर्णायक मंडल करेगा।अब आते हैं पुरस्कारों के आधार पर। सूचना आयुक्तों और जनसूचना अधिकारियों के लिए मानक का आधार तो उनके दायित्वों का उचित निर्वहन ही होगा। लेकिन सूचना आवेदन करने वालों की दो श्रेणियां होंगी। केजरीवाल के अनुसार पहली श्रेणी उन लोगों की होगी जिनके आवेदन पर दिसंबर 2008 तक कोई बड़ा फैसला आया हो या उसका बड़ा इंपैक्ट हुआ हो। दूसरी श्रेणी में वे लोग होंगे जिनके आवेदन का जवाब तो नहीं आया, लेकिन उस पर असर उतना ही व्यापक हुआ। आशय यह कि कई बार सरकारी विभाग जवाब देने से तो डरते हैं लेकिन चुपचाप वांछित कार्रवाई भी कर देते हैं। सूचना आवेदकों की इन दोनों श्रेणियों को यह छूट भी है कि वे 2005 में सूचना कानून लागू होने से लेकर दिसंबर 2008 तक के अपने आवदेनों का ब्यौरा भेज सकते हैं।

सौ दिन का एजेंडा

इस सूचना से उत्साहित नहीं हुआ जा सकता कि संप्रग सरकार ने सौ दिन का अपना एजेंडा तय कर लिया है। फिलहाल यह जानना कठिन है कि इस एजेंडे में क्या शामिल है और क्या नहीं, लेकिन कोई भी अनुमान लगा सकता है कि उन समस्याओं का समाधान प्राथमिकता के आधार पर खोजने की रूप-रेखा बनाई गई होगी जो राष्ट्र के समक्ष उपस्थित हैं और जिन्हें गंभीर माना जा रहा है। यह भी स्पष्ट है कि मंदी का माहौल को दूर करना और पाकिस्तान से उबर रहे खतरे से बचे रहना इस एजेंडे का हिस्सा का होंगे, लेकिन इन समस्याओं के अतिरिक्त जो अन्य अनेक जटिल मुद्दे सतह पर हैं वे ऐसे नहीं कि केवल सौ दिन में उन्हें सुलझाया जा सके। इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि संप्रग शासन के पास न तो कोई जादू की छड़ी है और न हो सकती है। यह संभव है कि केंद्र सरकार सौ दिन के एजेंडे के बहाने कुछ ऐसी घोषणाएं करने में समर्थ हो जाए जो जनता का ध्यान आकर्षित करने और उसमें उम्मीदों का संचार करने वाली हों, लेकिन यदि संप्रग सरकार दूसरी पारी में वास्तव में कुछ ठोस और बेहतर करना चाहती है तो फिर उसे शासन के तौर-तरीके बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। भारत की शासन व्यवस्था जिस तरह से चलाई जा रही है उसमें आमूल-चूल परिवर्तन समय की मांग है। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले पांच वर्षो में विभिन्न समस्याओं का समाधान समितियों और आयोगों के जरिये खोजने की जो तरकीब अपनाई गई उससे देश को कुछ हासिल नहीं हुआ। पिछले पांच वर्षो में विभिन्न समितियों और आयोगों की सिफारिशें सामने तो आई, लेकिन वे विचार-विमर्श के बहाने ठंडे बस्ते में चली गई। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को भी ठंडे बस्ते में डालने का काम किया गया। इसी तरह न्यायिक सुधार की बातें तो खूब की गई, लेकिन कुछ ठोस कदम उठाने से इनकार किया गया। कुछ आवश्यक कार्य ऐसे थे जो सत्ता में आते ही किए जाने चाहिए थे, लेकिन उनकी सुधि तब ली गई जब चुनाव सिर पर आ गए। इसी तरह कुछ कार्य तो पूरी तरह भुला ही दिए गए। दरअसल महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरकार ने सौ दिन के लिए क्या एजेंडा तय किया है, बल्कि यह है कि वह अपने कामकाज का रंग-ढंग बदलने जा रही है या नहीं? अच्छा तो यह होगा कि वह सौ दिन के अंदर उन तौर-तरीकों से छुट्टी पा ले जो सिर्फ लालफीताशाही के अस्तित्व में होने की कहानी कहते हैं। केंद्रीय सत्ता को उन अनेक परंपराओं से भी पीछा छुड़ा लेना चाहिए जिनकी आज के युग में कहीं कोई अहमियत नहीं रह गई है। बगैर ऐसा किए केंद्रीय शासन को गतिशील नहीं किया जा सकता और यदि केंद्रीय सत्ता के कामकाज में सुधार नहीं होगा तो राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली में शायद ही कोई परिवर्तन आए। भले ही सत्ता में वापसी के आधार पर कांग्रेस और उसके सहयोगी दल यह दावा करें कि यह संप्रग शासन की कार्य कुशलता और दक्षता का परिणाम है, लेकिन समझदारी इसी में है कि पिछले पांच वर्ष के कार्यकाल की नाकामियों पर ध्यान दिया जाए। यदि यह मानकर चला जाएगा कि नरेगा जैसी जन कल्याणकारी योजनाएं सही तरह चल रही हैं तो इसे यथार्थ की अनदेखी ही कहा जाएगा।

शनिवार, 23 मई 2009

अरक्षित दलित


शहरों में सामाजिक बदलाव की बयार के बीच गांवों में अब भी दलित समाज मुख्यधारा में से अलग थलग पडा हुआ है। दलितों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाने के बावजूद उन्हें अब भी सामाजिक समानता हासिल नहीं हो पा रही। भीलवाडा जिले में दलित अत्याचार की बढती घटनाओं ने प्रशासन की चिन्ता बढा दी है। दलित समुदाय में अरक्षा के भाव पनपने से गांवों में सामाजिक सौहार्द का माहौल भी बिगडने का खतरा है। जहाजपुर तहसील के ऊंचा गांव में दलित दूल्हे की बिन्दोली पर तेजाब फेंकने से दूल्हे सहित छह जने झुलस गए। कुछ दिन पूर्व हमीरगढ क्षेत्र के तख्तपुरा गांव में भी एक दलित दूल्हे को घोडी से उतार दिया गया। भीलवाडा जिले में एक यज्ञ में दलितों को शामिल करने को लेकर भी विवाद की स्थिति है। दलितों पर अत्याचार की घटनाएं अन्य जिलों में भी सामने आती रहती हैं। ऎसी घटनाओं पर स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले नेताओं व संगठनों की भी कमी नहीं है। इनसे दलितों को भी सावधान रहना होगा। सरकार को भी यह समझना होगा कि दलित सुरक्षा के कानून बना देने से उनको समाज में व्यावहारिक धरातल पर समानता का हक नहीं हासिल होगा। इसके लिए जरूरत सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की है। दलित समाज की बिन्दोली को रोकने के पीछे के कारणों को खोजना होगा। दलितों को बराबरी का नहीं मानने वाले लोगों को कानून की लाठी से हांकने के बजाय सामाजिक स्तर पर उनकी मानसिकता बदलनी होगी। गांव में दलितों को बराबरी का हक नहीं देने वालों को भी अब समझ लेना होगा कि जमाना बदल चुका। अब किसी जाति या व्यक्ति को अछूत या नीचे के स्तर का नहीं माना जा सकता। दलितों में सुरक्षा का भाव जागृत करने के लिए प्रशासन के साथ गांव के प्रभावशाली तबकों को भी पहल करनी होगी।

मंगलवार, 19 मई 2009

भटकती भाजपा


इस बार लोकसभा चुनावों में भी भाजपा की वैसी ही स्थिति उभरकर सामने आई, जैसी कि पिछले लोकसभा चुनाव में आई थी। शायनिंग इण्डिया का नारा अंधेरे में दबकर रह गया था। अपनी इतनी बड़ी हार से भाजपा में बौखलाहट का बड़ा वातावरण भी दिखाई दिया। इस बार भी दावे तो आसमान से नीचे ही नहीं उतरे, किन्तु भाजपा चारों खाने चित्त हो गई। लालजी ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि यदि मैं पी.एम. नहीं बना तो घर लौट जाऊंगा।

न पी.एम. ही बने, न घर ही लौटे। भाजपा की यह सबसे बड़ी भूल साबित हुई कि उनको इतना पहले से ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस सम्मान को पचा सकना उनके लिए असंभव हो गया। इस पूरे काल में उनके तेवर भी प्रधानमंत्री जैसे ही रहे। अन्तत: जनता ने ही उनके नेतृत्व को नकार दिया। चुनाव प्रचार के दौरान ही एक और समझदार नेता ने अपने पिटारे से मोदी का नाम छोड़ दिया। इसका एक अर्थ यह था भाजपा के एक धड़े को भी आडवाणी का नेतृत्व स्वीकार नहीं है और वह भी ऎन चुनाव के पहले। भाजपा का इससे बड़ा नुकसान तो कांग्रेस ने भी नहीं किया। इस घोषणा से नरेन्द्र मोदी भी फुफकारने लग गए। सभी नेताओं की वाणी से विष उगला जा रहा था। इसका परिणाम भी वही होना था। भाजपा के सहयोगी दलों ने भी मोदी को नकार दिया।

दिल्ली के गढ़ में भाजपा का एक संतरी भी नहीं बचा। उत्तराखण्ड में भी भाजपा को बैरंग लौटना पड़ा। राजस्थान में अकाल पड़ गया। मात्र चार सीटों पर संतोष करना पड़ा। चुनाव प्रचार में यहां भी बयानबाजी का बड़ा दौर चला था। गुलाब चन्द कटारिया की रथ यात्रा आगे बढ़ती गई और पीछे-पीछे भाजपा की चादर सिमटती चली गई। पहले ही दिन से उदयपुर की पांच सीटें कांग्रेस को जाती दिखाई दे रही थीं, राजसमन्द को छोड़कर। भाजपा के लोग इस बात को मानने को तैयार नहीं थे। राजस्थान में हम इन चुनावों के आंकड़ों को पिछले चुनाव के आंकड़ों से मिलाएं तो पता चल जाएगा कि भाजपा का मतदाता उदासीन होता जा रहा है। सन् 2003 में विधानसभा और सन् 2008 के विधानसभा में कांग्रेस के पक्ष का मतदान मात्र 1 प्रतिशत बढ़ा था, जबकि भाजपा के पक्ष में लगभग 5 प्रतिशत मतदाता घटे थे। सन् 2004 के और सन् 2009 के लोकसभा चुनाव कहानी को और आगे ले गए। कांग्रेस के पक्ष में 5.75 प्रतिशत वोट बढ़े, किन्तु भाजपा के पक्ष में टूट 12.44 प्रतिशत की हुई। शेष मतदाता वोट डालने नहीं आए।

कांग्रेस के हारे हुए विधायक सी.पी. जोशी और लालचन्द कटारिया सांसद चुने गए, जबकि भाजपा के जीते हुए विधायक घनश्याम तिवाड़ी, किरण माहेश्वरी और राव राजेन्द्र सिंह चुनाव हार गए। एक बात और भी है कि गांवों में रोजगार गारण्टी योजना का प्रभाव भी दिखाई पड़ा। भाजपा की कई योजनाएं लागू ही नहीं हो पाई।

किसी की नहीं मानना भी भाजपा के लिए शान की बात हो गई है। चाहे राजनाथ सिंह हो, चाहे आडवाणी, सुषमा स्वराज या वसुन्धरा राजे। इनके लिए तो सही उतना ही है जो इनको सही लगता है। इस पर भी जातिवाद का भूत भीतर इतना उतर गया है कि लोगों को राष्ट्रवाद छोटा सा जान पड़ता है। लोग अपनी-अपनी जाति के बाहर नेतृत्व देने को ही तैयार नहीं है। प्रचार के दौरान भाजपा की छवि गिरती चली गई और किसी के भी कान खड़े नहीं हुए। भ्रष्टाचार और अपराधियों को शरण देने में भी किसी पार्टी से पीछे नहीं रही। आज भी भाजपा अपनी साम्प्रदायिक छवि से उबर नहीं पाई है। नई पीढ़ी का मतदाता शान्ति चाहता है।

राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका क्या हो, इस पर वह सोचे। आज भाजपा से न कार्यकर्ता संतुष्ट है, न ही देश। भाजपा ही देश की दूसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी भी है। हर बार इसी तरह मार खानी हो तो इसकी मर्जी, किन्तु कुछ करने लायक बनना है तो पार्टी का पुनर्गठन एवं नीतियों का आकलन करना होगा। सभी पुराने चेहरों को सलाहकार का दर्जा देकर पीछे की सीट पर बिठा देना चाहिए। कांग्रेस में भी ऎसे ही लोग "घुण" का कार्य कर रहे हैं। वहां तो नीचे पोल ही पोल है। भाजपा में तो ऎसा नहीं है। केवल अहंकार है।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि दो बड़े दलों में से एक पटरी से उतर गया है। वरना तीसरे मोर्चे की जरूरत ही देश को नहीं पड़ती। सब जानते हैं कि तीसरा और चौथा मोर्चा किन लोगों का गठबन्धन है और देश को क्या दे सकता है। भाजपा में यदि आवश्यक सुधार नहीं हुआ तो ये लोग ही लोकतंत्र के नायक होंगे।

मंगलवार, 12 मई 2009

चुनाव में मीडिया की संदिग्ध भूमिका पर नागरिकों का मत

हम नागरिक, लोक सभा चुनाव २००९ के दौरान राजनीतिक पार्टियों एवं चुनाव प्रत्याशियों द्वारा किये गए मीडिया के दुरूपयोग से, बहुत चिंतित हैं. हमें इस बात से भी आपत्ति है कि मीडिया ने अपना दुरूपयोग होने दिया है. यह पाठक के उस मूल विश्वास को तोड़ता है जिसके आधार पर निष्पक्ष एवं संतुलित खबर पढ़ने के लिए पाठक पैसा दे कर समाचार पत्र खरीदता है. मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में माना गया है परन्तु मीडिया के द्वारा प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया की चुनाव के दौरान पत्रकारिता हेतु मार्गनिर्देश (१९९६) के निरंतर होते उल्लंघन ने उसकी लोकतंत्र में सकारात्मक भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.

समाचार, विचार और प्रचार के बीच भेद ही नहीं रह गया है. पाठक को यह बताने के लिए कि प्रकाशित सामग्री समाचार, विचार या चुनाव प्रचार है, छोटे अक्षरों में 'ए.डी.वी.टी' या 'मार्केटिंग मीडिया इनिशिएटिव' छापना पर्याप्त नहीं है. कुछ समाचार पत्र तो यह भी छापने का कष्ट नहीं उठाते हैं.

मोटे तौर पर कहा जाए तो खबर से सम्बंधित निर्णय लेने में संपादक की भूमिका पर अब मार्केटिंग वाले सहकर्मी हावी हो रहे हैं. छोटे जिलों या शहर-नगर-कस्बों में तो अक्सर जो व्यक्ति संवाददाता होता है उसी को विज्ञापन इकठ्ठा करने की जिम्मेदारी भी दे दी जाती है, जिसके फलस्वरूप वो विज्ञापन-दाताओं की खबर को महत्व देता है और अक्सर विज्ञापन न देने वाले लोगों की खबर को नज़रंदाज़ कर देता है.

विज्ञापन, 'विज्ञापन-जैसे-संपादकीय', 'मार्केटिंग मीडियाइनिशिएटिव' और अन्य ऐसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीकों से जो खबर मीडिया में आती है, उसपर हुआ व्यय, अक्सर चुनाव आयोग द्वारा तय की गई २५ लाख रूपये के अधिकतम चुनाव खर्च सीमा से, अधिक होता है. इसलिए मीडिया अब इन प्रत्याशियों की मिलीभगत से चुनाव के दौरान लागू आचार संहिता का उलंघन कर रही है.

मीडिया में छप रहे विज्ञापनों, विज्ञापन-जैसी-ख़बरों आदि पर हुए पूरे व्यय निर्वाचन अधिकारीयों को नहीं दिए जाते हैं. मीडिया को यह रपट देनी चाहिए जिससे यह पता चल सके कि किस राजनीतिक पार्टी ने और किस चुनाव प्रत्याशी ने मीडिया पर कितना व्यय किया है. 

राजनीतिक पार्टियों के संचालन हेतु कोई भी कानून नहीं है, ऐसा कानून बनना चाहिए। चुनाव में अधिकतम खर्च-सीमा के उलंघन की सज़ा भी अधिक सख्त होनी चाहिए और मौजूदा चुनाव में ही लागू होनी चाहिए. वर्त्तमान में चुनाव में अधिकतम-खर्च सीमा के उलंघन की सज़ा सिर्फ़ अगले चुनाव में ही लागू होती है, जो पर्याप्त अंकुश नहीं है.

इलेक्ट्रोनिक मीडिया (टीवी) के लिए भी प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी नियामक संस्था होनी चाहिए।

समाचार पत्रों को 'ओम्बुड्समैन' या विश्वसनीय लोकपाल नियुक्त करने के लिए देश-भर में उठ रही मांग का हम समर्थन करते हैं।

मूल रूप से हम नागरिक यह चाहते है कि मीडिया लोकतंत्र में निगरानी करने वाली निष्पक्ष भूमिका को पुन: ग्रहण करे. आर्थिक स्वार्थ के लिए मीडिया को अपनी स्वायत्ता को दाव पर नहीं लगानी चाहिए. जब लोगों का लोकतान्त्रिक संस्थाओं में विश्वास उठ रहा हो, तो मीडिया को इस पतन में शामिल होने के बजाय, लोकतंत्र में नागरिकों के विश्वास को पुनर्स्थापित करना चाहिए.

सोमवार, 11 मई 2009

कैसे लौटे काली कमाई


दिल्ली में बनने वाली नई केन्द्रीय सरकार के समक्ष एक चुनौती यह भी होगी कि स्विट्जरलैंड जैसे देशों की बैंकों में जमा भारतीयों की काली कमाई को कैसे वापस स्वदेश लाया जाए। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्वतंत्रता के बाद से ही विश्व के 70 देशों की बैंकों में भारत का कालाधन जमा होता रहा है। समय-समय पर इसके अनुमान तो लगाए जाते हैं, लेकिन उनके सही होने को कोई प्रमाणित नहीं कर सकता। पिछले साल अखबारों में स्विस बैंकर्स एसोसिएशन की 2006 की वार्षिक रिपोर्ट के हवाले से छपा था कि स्विस बैंकों में भारत के नागरिकों के 1.45 खरब अमरीकी डालर जमा हैं। यह रकम किसी अन्य देश के नागरिकों की रकम की तुलना में बहुत ज्यादा है। दरअसल विश्लेषकों ने हिसाब लगाया कि शेष सभी देशों के नागरिकों की वहां कुल जमा रकम से भी यह अधिक है।

अर्थशाçस्त्रयों का मत है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहले चार दशकों में तो आयकर की दरें बहुत अधिक थीं और कर वसूली ढांचा कमजोर, इसलिए कर चोरी की संस्कृति विकसित हुई। आयात पर बेतहाशा करों के कारण तस्करी खूब होती थी, जिससे समानांतर काली अर्थव्यवस्था मजबूत हुई। सरकार के सभी विभागों में भ्रष्टाचार का स्तर बेहद बढ़ने और कर चोरों के लिए स्वर्ग माने जाने वाले देशों में बैंकों से गोपनीयता के नाम पर सुरक्षा मिलने के कारण उनमें भारतीयों द्वारा कालाधन जमा कराने का सिलसिला शुरू हुआ। जैन हवाला कांड में बरामद मोटी रकम और दस्तावेजों से बढ़ते हवाला कारोबार का खुलासा हुआ था। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और कर की दरें घटने के बाद पिछली सदी के आखिरी दशक में उम्मीद बंधी थी कि कर चोरी और भारत से बाहर कालाधन भेजने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगी। लगता है कि यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है। हालांकि करदाता और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों से मिलने वाली रकम में कई गुना बढ़ोतरी हुई है, लेकिन स्पष्ट है कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ करने की जरू रत है। विदेशी मुद्रा विनिमय कानून के उल्लंघनों का पता लगाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) पहले ही बना हुआ है। 

खेद की बात है कि इसका रिकार्ड और उपलब्धियां बहुत खराब रही हैं। यह समय-समय पर विवादों में घिरता रहा है और इसके आला अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोपों में उलझते रहे हैं। इसकी एक बड़ी कमी यह रही है कि इसका प्रमुख कोई आई.ए.एस. ही हो सकता है। मैं इसके कई निदेशक अधिकारियों को व्यक्तिगत रू प से जानता हूं। वे नि:संदेह होशियार, समर्पित और ईमानदार अधिकारी रहे हैं, लेकिन वे इस काले धंधे की गहराई तक नहीं पहुंच पाते। दो वर्ष का कार्यकाल किसी विशिष्ट जांच एजेंसी के प्रमुख के लिए बहुत कम होता है। इस काम को कस्टम, आयकर और पुलिस के अधिकारी ज्यादा बेहतर तरीके से अंजाम दे सकते हैं।

प्रवर्तन निदेशालय के जांचकर्ता के लिए विशेषज्ञता और क्षमता का जो स्तर अपेक्षित है, उसे निर्मित नहीं किया जा सकता। इस बुराई पर काबू पाने में भारतीय रिजर्व बैंक, कस्टम्स, सीबीआई और सेबी की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। नई सरकार को इसके लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति दर्शानी होगी तथा ईडी को मजबूत और सक्षम बनाने के लिए गंभीरता से प्रयास करने होंगे, तभी इस मोटी रकम का एक अंश भारत वापस लाने में सफलता मिल पाएगी। विशेषज्ञों की टोली बनाकर इस काम के लिए ठोस योजना बनानी होगी।

राम जेठमलानी, केपीएसगिल, सुभाष कश्यप आदि ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह मामला उठाया है। इस मामले की सुनवाई के दौरान पुणे के हसन अली खां और उनके सहयोगी कोलकाता के काशीनाथ तापडि़या के मामले का उल्लेख हुआ। वर्ष 2007 में आयकर छापे के दौरान खां के घर से बरामद कम्प्यूटर में स्विट्जरलैंड के यूबीएस बैंक में जमा 70 हजार करोड़ रूपए का ब्यौरा था।

उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने इस तथ्य पर नाराजगी जताई कि खां वगैरह के खिलाफ कालेधन कानून के तहत कार्रवाई क्यों शुरू नहीं की गई। कर चोरी और अवैध तरीकों से जुटाई गई रकम दूसरे देशों के बैंकों में जमा करने का मामला हाल ही जी-20 देशों की बैठक में भी उठा था। सदस्य देशों ने इस प्रवृत्ति पर गहरी चिंता जताते हुए ऎसी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संबद्ध देशों पर गोपनीयता नियमों में संशोधन के वास्ते दबाव बनाने का निर्णय किया था। विभिन्न देशों के कानूनों में संशोधन में लम्बा समय लगेगा, इसलिए सक्रिय पहल के जरिए इस समस्या से निपटा जा सकता है। अमरीका के आंतरिक राजस्व विभाग के अधिकारियों की कोशिशों के चलते अमरीका की एक अदालत ने यूबीएस बैंक पर 78 करोड़ डालर का जुर्माना ठोका है। बैंक जुर्माना देने के साथ ही अपने 47 हजार अमरीकी खातेदारों के नाम बताने को राजी हो गया है। इसके लिए उसने कुछ मोहलत मांगी है। आयरलैंड ने भी जर्मनी की बैंकों से 60 लाख डालर वसूले हैं। यह काम दुष्कर जरू र है लेकिन किसी व्यक्ति की असली परीक्षा तभी होती है जब उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यही बात राष्ट्रों पर भी लागू होती है। यह वक्त ही बताएगा कि क्या नई सरकार अपने इरादे और क्षमता दिखाकर कुछ करती है या इसे भी रोजमर्रा की समस्याओं की तरह मानती है। कई अहम मसलों पर भूतकाल में पूरे मनोयोग से कदम नहीं उठाए गए। उच्चतम न्यायालय में भी इस मामले पर सुनवाई होनी है। हाल के दिनों में देश से जुड़े ऎसे ही महत्वपूर्ण मुद्दों पर अदालत कदम उठा चुकी है। देखते हैं कि इस मामले में वह क्या करती है।

चुनावी चौसर पर रक्तपात


यह घोर विडम्बना है कि राजनीति में नैतिकता के मन्त्र-द्रष्टा महात्मा गांधी के इस देश में बाहुबलियों एवं अपराधियों का जोर बढ रहा है। लोक दिखावे के लिए राजनीति के अपराधीकरण की सभी पार्टियां निन्दा कर चुकी हैं, परन्तु हाथी के दांत खाने और दिखाने के और। नैतिकता की दुहाई देने वाली राजनीतिक पार्टियों को चुनाव में अपराधी गिरोहों का सहयोग लेने में कोई हिचक महसूस नहीं हो रही है। लोकसभा चुनावों में इस बार भी नामी-गिरामी गैंगस्टरों, हिस्ट्रीशीटरों, माफिया डॉनों की भरमार रही। अब तो राजस्थान जैसे शांत प्रदेश में भी खुलकर गोलियां चलीं तथा हथियारों और बाहुबल का जमकर उपयोग और प्रदर्शन हुआ।
आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों की तीन श्रेणियां हैं- वे जो सजायाफ्ता हैं, वे जिनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल हैं और वे जो आरोपी हैं। कई सजायाफ्ता या आरोपी नेताओं ने इस बार अपनी बीवियों को पार्टियों के टिकट दिला दिए हैं। बिहार इसमें अग्रणी है। वहां बाहुबलियों का बोलबाला है और घोटालों का घटाटोप है। राजद सुप्रीमो लालू स्वयं 950 करोड के चारा घोटाले में फंसे हैं। इसी दल के निवर्तमान सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन सजायाफ्ता होने की वजह से सीवान से चुनाव नहीं लड पाए, तो उन्होंने बेगम हिना शहाब को राजद का टिकट दिलवा दिया। राजद सांसद एवं हत्या के आरोप में वर्षो से जेल में बंद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव फिलहाल जमानत पर रिहा हैं। चुनाव लडने की उन्हें इजाजत नहीं मिली, तो उनकी पत्नी रंजीत रंजन अब कांग्रेस टिकट पर सुपौल से चुनाव मैदान में उतर गई। माफिया डॉन सूरजभान भी चुनावी जंग में उतरने के लिए पूरी तरह से तैयार थे, परन्तु हाईकोर्ट से इजाजत न मिलने पर उन्होंने अपनी पत्नी को लोजपा का टिकट दिलवा दिया। उत्तर प्रदेश भी माफिया डॉनों के लिए कुख्यात है। चौदहवीं लोकसभा में उत्तर प्रदेश के 80 सांसदों में से 23 के खिलाफ आपराधिक मामले लम्बित थे। इस बार भी 30 से अधिक "माफिया डॉन" चुनावी अखाडे में उतरे। समाजवादी पार्टी को गुण्डों का दल कहने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश में आपराधिक छवि वाले नेताओं को जमकर टिकट बांटे। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति सम्बन्धी याचिका उच्चतम न्यायालय में लम्बित है। इसमें उनके पुत्रों- अखिलेश यादव (सांसद) व प्रतीक यादव को भी पक्षकार बनाया गया है। सपा ने भी बाहुबलियों को टिकट से नवाजा है, जिनमें गोंडा से बृजभूषण सिंह, फतेहपुर से राकेश सचान, फैजाबाद से मित्रसेन यादव, धारहारा से ओ.पी. गुप्ता, मिर्जापुर से ददुआ डकैत का भाई बालकुमार प्रमुख हैं।
चुनाव में बाहुबलियों के दखल और धनबल के प्रभाव में नजर आ रही वृद्धि भी केवल "टिप ऑफ द आइसबर्ग" है। स्पष्ट है कि पहले राजनीतिज्ञ बाहुबलियों से धन और बल की मदद लेते थे और बदले में उन्हें संरक्षण देते थे। जब बाहुबलियों ने देखा कि राजनेता उनकी मदद से ही विधायक या सांसद बन रहे हैं तो उन्होंने सोचा कि क्यों न वे स्वयं ही धन और बाहुबल के माध्यम से सीधे चुने जाएं। इसलिए राजनीति की अपराधीकरण के शैशवकाल में जो अपराधी अपने बचाव के लिए राजनीतिज्ञ का दामन थामता था, उसने आज चुनाव प्रक्रिया के द्वारा स्वयं राजमुकुट धारण कर लिया है। आज भ्रष्ट राजनीतिज्ञ, धनलोलुप उद्योगपति, रिश्वतखोर राज्य कर्मचारी एवं माफिया डॉन का गठजोड बन गया है, जो समाज को लील रहा है। एन.एन. वोरा ने अपनी खोजपूर्ण रिपोर्ट में राजनीति के अपराधीकरण एवं अपराधीजगत के राजनीतिकरण का सांगोपांग विवेचन करते हुए लिखा था कि इस गठजोड ने एक "समानान्तर सरकार" स्थापित कर ली है, जो न्याय-व्यवस्था एवं राष्ट्र की सुरक्षा के लिए घातक है, परन्तु आज तो "माफिया" सरकार को ही "हाईजैक" करना चाहता है।
आज राजनीतिक दलों के टिकट बांटने का पैमाना बदल चुका है। बाहुबली, धन कुबेरों, कबीलाई सरदारों को बिन मांगे टिकट मिलने लगा है। जब ऎसे लोग चुनकर आएंगे तो संसद में क्या होगा।

शुक्रवार, 8 मई 2009

संसदीय प्रणाली कितनी सफल


इंग्लैण्ड में अभी तक अलिखित संविधान के कारण परम्पराओं पर वहां का प्रशासन चल रहा है। उसके विपरीत भारत में बहुत विचार-विमर्श के बाद विधान निर्मात्री सभा ने लिखित संविधान का निर्माण किया। उनसठ वर्ष पहले हमने संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया था। अब समय आ गया है कि हम इस प्रणाली के परिणामों पर गंभीरता से विचार करें और तय करें कि क्या भारतीय जनतंत्र को मजबूत करने वाली और भी कोई प्रणाली देश में लागू की जा सकती है। ब्रिटेन में इस प्रणाली की सफलता का बहुत बडा कारण है कि वह छोटा सा देश है, जिसमें भारत जैसी समस्याएं नहीं हैं। अपने देश में अनेक भाषाएं, अनेक पंथ, अनेक जातियां हैं। पर्वतीय प्रदेशों में सर्दी, देश के उत्तर-दक्षिणी हिस्सों में गर्मी और पूर्वोत्तर प्रदेशों में वर्षा होती एक साथ देखी जा सकती है। इसलिए भारत में इस प्रणाली का सबसे बुरा असर देश की राजनीति पर हुआ, जो दिन-प्रतिदिन ह्रासोन्मुख है। प्रजातंत्र को कमजोर करने वाली प्रवृत्तियों ने राजनीतिक हलकों में घर कर लिया है। राजनीतिक पार्टियों में प्रजातंत्र समाप्त होकर तानाशाही प्रवृत्ति बढ रही है। पार्टियों पर एक या एक से अधिक व्यक्ति का अधिकार होता जा रहा है। प्रजातांत्रिक तरीकों के बजाय पार्टी के नेता मनमाने ढंग से नियुक्तियां करते हैं। पार्टियों में चुनाव होते ही नहीं हैं। यदि दिखावे के लिए होते भी हैं तो आंतरिक चुनावों का केवल ढोंग किया जाता है। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों का भी चुनाव नहीं होता, उनकी नियुक्तियां पार्टी के एकछत्र नेता की इच्छानुसार होती है। राजनीतिक पार्टियां अपनी ही पार्टी के विधान का पालन नहीं करती हैं।
चुनावों में खंडित जनादेश आ रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों की दुर्दशा हो रही है। व्यक्तिवाद व परिवारवाद पनपने के साथ ही राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है। जातिवाद पनपाने में सभी राजनीतिक दल लगे हैं, जिससे प्रजातंत्र के बजाय भीडतंत्र उभर रहा है। खंडित जनादेशों के कारण केंद्र में भी अस्थिर सरकारें बन-बिगड रही हैं। आम मतदाताओं की समस्याओं का समाधान नहीं होने से उनका प्रजातंत्र से मोह भंग हो रहा है। इस कारण मतदान का प्रतिशत घटता जा रहा है। अस्थिर सरकारें विकास के कार्य पूरे नहीं करवा सकतीं, इसलिए देश में विकास धीमी गति से हो रहा है। देश में राष्ट्रीय भावना व देशभक्ति की भावनाओं के बजाय क्षेत्रीय व जातिवादी भावनाओं का जोर बढ रहा है। 
दूसरी ओर अमरीका को 4 जुलाई 1775 को ब्रिटिश साम्राज्य से छुटकारा मिला। वहां सभी यूरोपीय देशों के प्रवासी रहते हैं, जिनकी अपनी-अपनी भाषाएं हैं। अमरीका के संविधान के निर्माण में 10 वर्ष लगे और संविधान 1787 में लागू हुआ। अमरीका के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी जार्ज वाशिंगटन ने ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली को अमरीका जैसे बडे देश में अनुपयुक्त बताया तथा अध्यक्षीय प्रणाली की वकालत की। उनका तर्क था कि ब्रिटेन एक छोटा देश है, वहां संसदीय प्रणाली सफल हो सकती है, परन्तु अमरीका जैसे बडे देश में संसदीय प्रणाली सफल नहीं हो सकती, अमरीका में अब तक 41 राष्ट्रपति हुए हैं, उनमें केवल एक राष्ट्रपति निक्सन को त्यागपत्र देना पडा था। शेष सभी राष्ट्रपतियों ने अपना कार्यकाल पूरा किया। इस कारण विकास की गति में अवरोध उत्पन्न नहीं हुआ और अमरीका एक विकसित देश बना। इतना ही नहीं विभिन्न यूरोपीय देशों के प्रवासियों व अमरीका के मूल निवासियों में मजबूत राष्ट्रीय भावना पनपी, जिसके कारण देश मजबूत हुआ।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि संसदीय प्रणाली को स्वीकार करने पर भी भारत ने उतनी प्रगति नहीं की जितनी की आवश्यकता है। इस प्रणाली के कारण देश प्रगति के बजाय या तो स्थिर है या अधोगति की ओर जा रहा है। इसलिए समय आ गया है कि हम इस विषय पर गंभीरता से विचार करें एवं देश की परिस्थितियों के अनुकूल प्रणाली की खोज करें, ताकि देश त्वरित गति से आगे बढे।

बुराइयां पहले


ये बुराइयां पहले की अपेक्षा कम नहीं हुई हैं, बल्कि बढी हैं। इनके रू प, प्रकार और किस्मों में अन्तर आया है। द्यूत अब कई रू पों में देखने को मिलता है। लॉटरी आदि के जरिए सरकार खुद इस तरह के उपक्रम करती है। टीवी के कई चैनल भी इस तरह के इनामी प्रोग्राम संचालित करते हैं। मांस उत्पादन के कई प्रांतों में कारखाने लगे हुए हैं। इसकी खपत को देखते हुए सरकार कत्लखानों की संख्या बढाने पर विचार कर रही है। वेश्यावृति का धंधा करने वालों की बडे शहरों में एक पूरी कॉलोनी बस गई है। आज की भाषा में इसे "रैड लाइट एरिया" कहते हैं। देश में यौन रोगों के और असाध्य रोगों के लिए सर्वाधिक उत्तरदायी ये ही हैं। शराब के बारे में कुछ न कहना ही ठीक है। सरकार द्वारा कानूनी मान्यता प्राप्त हो जाने के बाद इसकी खपत शहरों और गांवों में समान रू प से है। समाज में अपराध और हिंसा को सर्वाधिक बढावा इस नशीले पदार्थ से ही मिला है। बहुधा ऎसा होता है कि हमारे गांव में प्रवेश करने से पूर्व स्वागत द्वार के पहले "देशी शराब की दुकान" का बोर्ड दिखाई देता है। राजस्थान में कहावत है- "गांव की साख बाडां भरै।" बाड गांव का पहला दरवाजा या प्रवेश द्वार होती है। गांव में शराब का ठेका है तो सच्चरित्रता और नैतिकता को वहां कितना महत्व मिलेगा, यह सोचने की बात है। अभी इन दिनों में एक-दो सप्ताह के बीच हम गांवों में गए तो वहां मेरे पास कुछ बहिनें आई, कुछ भाई भी आए। उनकी ओर से प्रार्थना की गई कि महाराज! जैसे भी हो, शराब की लत से छुटकारा दिलाएं। मैंने कहा- "क्या हुआ उन बहनों ने बताया कि शराब पीकर घर में उत्पात करना और हम लोगों की, बच्चों की पिटाई करना रोज की बात है। घर जैसे नरक बन गया है।"