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गुरुवार, 23 जुलाई 2009

प्रेम विवाह पर भारी चौधराहट और परंपराएं


आदमी बेशक चांद पर चहलकदमी कर आया है और मंगल पर आशियाना बनाने के बेहद करीब हो, लेकिन हरियाणा के गोत्र विवाद को देखने से नहीं लगता कि दुनिया में कोई ज्यादा बदलाव आया है। पुरानी परंपराएं और चौधराहट इस कदर हावी है कि इंसान की जिंदगी भी उसके सामने गौण होकर रह गई है। पुरानी परंपराओं का निर्वाहन कर रही पंचायतें (खाप) पुलिस-प्रशासन और सरकार तो दूर, अदालत को भी ठेंगे पर रखती हैं। जींद में वेदपाल की हत्या इस बात को साबित करती है कि मूंछ के लिए चौधरी किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनके लिए सदियों से चले आ रहे रीति रिवाज और मान्यता सर्वोपरि हैं। गोत्र विवाद आए दिन होते हैं, लेकिन सरकार इनका निबटारा करने की बजाए खाप के सामने नतमस्तक होती नजर आती है। हो भी क्यों न, जाट जो नाराज हो जाएंगे? खाप का मतलब कई गांवों का एक बड़ा समूह होता है।

हरियाणा में जो खाप शक्तिशाली मानी जाती हैं उनमें मलिक (गठवाला), पूनिया, श्योराण तथा सांगवान शामिल हैं। खाप में जो मामले विचार के लिए लाए जाते हैं उनमें पुरातन परंपराओं को बहाल रखने की कवायद प्रमुख है। खाप इतनी ज्यादा शक्तिशाली होती है कि बड़े से बड़ा राजनीतिक भी उसके फरमान की अनदेखी नहीं कर सकता है। हाल के वर्षो में खाप जिस चीज के लिए ज्यादा चर्चा में आई हैं उनमें गोत्र प्रमुख है। हर खाप ने सम गोत्र में विवाह निषिद्ध घोषित कर रखा है। श्योराण पच्चीसी के प्रधान बिजेंद्र सिंह कहते हैं कि विवाह के समय अपने साथ मां, दादी के गोत्र को बचाना होता है। बिजेंद्र कहते हैं कि परंपराएं सोच समझकर बनाई गई हैं। सामाजिक विकृतियों को रोकने के लिए ही इन्हें बनाया गया है। झगड़ा उस समय शुरू होता है जब आजाद ख्याल युवक-युवती परंपरा के खिलाफ जाकर अपनी दुनिया बसाने की जुगत भिड़ाते हैं।

पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं कि गोत्र एक हजार से ज्यादा हंैं लिहाजा इसका ख्याल रखना भी मुश्किल होता है। उनका कहना है कि सब कुछ जानने के बाद भी पुलिस व प्रशासन मूक दर्शक ही बना रह जाता है क्योंकि सरकार कोई भी हो, जाट समुदाय के गुस्से से सभी डरते हैं, यही वजह है कि खाप के आगे कानून व्यवस्था पंगु हो जाती है। प्रेम विवाह पर भारी चौधराहट और परंपराएं

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

आखिर कब तक ?


दस साल पहले हमने कारगिल युद्ध का सामना किया था। देश ने लगभग 527 जवान खोकर इस युद्ध में दुश्मन देश पाकिस्तान को परास्त कर दिया था। लेकिन नक्सलवाद के रूप में हम न जाने कितने कारगिल जैसे युद्ध लड़ चुके हैं और हमें कोई सफलता भी नहीं मिली है। वैसे तो देश में नक्सलवाद की लड़ाई दो दशक से भी पुरानी है, लेकिन पिछले पांच सालों पर नजर डालें तो तीन हजार से अधिक लोग इस लड़ाई की भेंट चढ़ चुके हैं। इतना ही नहीं हजार से अधिक जवान भी शहीद हो चुके हैं। सिर्फ इस साल ही अब तक 6 महीनों में 230 जवान समेत लगभग 485 लोगों की मौत हो चुकी है। देश में नक्सलवाद पर पेश है एक खास रिपोर्ट..

इस साल सबसे अधिक

देश में नक्सल प्रॉब्लम दिन पर दिन विकराल रूप लेती जा रही है। वैसे तो यह प्रॉब्लम शुरू हुई थी सत्तार के दशक में लेकिन दो दशक पहले इसका हिंसक रूप सामने आया। पिछले पांच सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस साल सबसे अधिक घटनाएं सामने आई हैं। इस साल के 6 महीनों में ही 1130 घटनाएं हो चुकी हैं। जबकि लास्ट इयर सेम पीरियड में 766 मामले सामने आए थे। इतना ही नहीं इस वर्ष अब तक कुछ 485 लोगों की मौत हो चुकी है जिनमें 230 जवान और 255 आम नागरिक थे।

37000 सोल्जर्स

नक्सलवाद की यह लड़ाई कितनी बड़ी है इस बात का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इस समय लगभग 37 बटालियन पैरामिलिट्री फोर्स यानी 37000 सोल्जर्स जंग से लड़ने के लिए लगाए गए हैं।

छत्ताीसगढ़ में अधि

वैसे तो देश के लगभग 12 स्टेट नक्सलवाद की इस समस्या से जूझ रहे हैं लेकिन छत्ताीसगढ़ में प्रॉब्लम सबसे अधिक सीरियस बनी हुई है। पिछले दिनों में यहां एक नक्सली हमले में एसपी समेत 36 लोगों की जान चली गई थी। यहां की स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पूरे देश में नक्सलवाद से मुकाबले के लिए लगीं कुछ 37 बटालियन में 17 बटालियन यानी 17 हजार जवान अकेले छत्ताीसगढ़ में लगाए गए हैं। साथ ही देश में कुल होने वाली नक्सली घटनाओं में 82 परसेंट घटनाएं छत्ताीसगढ़, बिहार, झारखंड और उड़ीसा में संयुक्त रूप से होती हैं। इसके साथ ही कुल होने वाली कैजुअल्टीज का 77 परसेंट इन्हीं स्टेट्स में हुई हैं।

इतिहास के झरोखे से

नक्सलाइट्स टर्म वेस्ट बंगाल के एक स्माल विलेज नक्सलवारी से आया है। जहां कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया का एक भाग चारू मजूमदार और कानू सांन्याल के नेतृत्व में 1967 में हिंसक हो गया, जिसने सीपीआई लीडरशीप के खिलाफ ही रिवेल्यूशनरी अपोजिशन डेवलप करने की कोशिश की। विद्रोह की शुरुआत 25 मई 1967 में नक्सलबारी विलेज में उस समय हुई जब एक किसान पर भूमि विवाद को लेकर हमला किया गया। मजूमदार चीन के माओ जेडांग से इंस्पायर था और भारतीय किसानों और लोअर क्लास की जमीनों को गिरवी रखने के लिए वह गवर्नमेंट और अपर क्लास को जिम्मेदार ठहराने लगा। इसके बाद नक्सलाइट मूवमेंट का जन्म हुआ। 1967 में नक्सलाइट ने आल इंडिया कोआर्डिनेशन कमेटी आफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरीज संगठित किया जो बाद में सीपीआई (एम) में बंट गया। 1969 में एआईसीसीसीआर ने कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया (मार्सिस्ट-लेनिनिस्ट) को जन्म दिया। प्रेक्टिकली धीरे-धीर सभी नक्सलाइट ग्रुप्स अपने ओरिजिन सीपीआई (एमएल) से पहचाने जाने लगे। 1980 में तीस नक्सलाइट ग्रुप्स 30 हजार कंबाइंड मेंबरशिप के साथ सक्रिय हुआ। भूमि और सामान्तवाद की यह लड़ाई धीरे-धीरे खूनी जंग का रूप लेने लगी। नक्स्लवाड़ी से पूरा वेस्ट बंगाल फिर उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, झारखंड, बिहारी, छत्ताीसगढ़ के साथ देश के लगभग एक दर्जन राज्यों में यह एक समस्या के रूप में सामने आया।

नक्सल का आतंक बढ़ता ही जा रहा है. नक्सली आए दिन अटैक कर रहे हैं. नक्सली अक्सर खाकी वर्दी को अपना निशाना बनाते हैं. वामपंथी नक्सलवाद देश के 630 डिस्ट्रिक्ट में से 180 को अपनी चपेट में ले चुका है। देशभर में इनके करीब 22 हजार कैडर हैं।

झारखंड

पूरा स्टेट माओवाद की चपेट में, लेकिन 24 में से 16 डिस्ट्रिक्ट बुरी तरह पीड़ित हैं. स्टेट में माओवादियों के छह प्रमुख ग्रुप काम कर रहे हैं. तृतीया प्रस्तुति कमेटी, झारखंड प्रस्तुति कमेटी, द पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट आफ इंडिया, झारखंड जनसंघर्ष मुक्ति मोर्चा, संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा वसीपीआई (एम)।

उड़ीसा

यह स्टेट भी अधिकांश लाल रंग में रंग चुका है, लेकिन कुल 30 डिस्ट्रिक्ट्स में से आंध्र प्रदेश व छत्ताीसगढ़ से सटी सीमा के 17 डिस्ट्रिक्ट माओवाद से भयंकर रुप से ग्रस्त हैं। दक्षिणी उड़ीसा के मलकानगिरि, कोरापुट, रायगढ़, गजपति डिस्ट्रिक्ट्स में इनकी मजबूत उपस्थिति है। आदिवासी बहुल्य कंधमाल में भी अच्छा नेटवर्क है। उड़ीसा के डिस्ट्रिक्ट्स सुंदरगढ़, देवगढ़, संभलपुर बौध और अंगुल में तेजी से फैलाव।

बिहार

इस स्टेट के 38 में से 19 डिस्ट्रिक्ट्स में अच्छा खासा प्रभाव, पहले से इनकी मौजूदगी वाले पटना, गया, औरंगाबाद, भभुआ, रोहतास ओर जहानाबाद के अलावा अब इनका फैलाव उत्तार की तरफ हो रहा है। पश्चिमी चंपारण, पू. चंपारण, शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मघुबनी इनके नए विस्तार क्षेत्र हैं. सहरसा, वेगूसराय, वैशाली और उत्तार प्रदेश से सटे एरियाज में भी इनका प्रभाव है।

छत्ताीसगढ़

30 साल से माओवाद समस्या ने खनिज संपदा से धनी इस स्टेट की हालत को बदतर करने में मेन रोल निभाया है। 10 डिस्ट्रिक्ट्स के 150 पुलिस थाने गंभीर रुप से संवेदनशील. दंतेवाड़ा, कांकेर, बस्तर, बलरामपुर ओर सारगुजा डिस्ट्रिक्ट्स में माओवादियों की जड़े मजबूत।

आंध्र प्रदेश

स्टेट के दंडकारण्य एरिया में इनका खतरा बना हुआ है. विशाखापट्नम, विजयानगरम, खम्माम और पूर्वी गोदावरी डिस्ट्रिक्ट्स में मजबूत नेटवर्क।

महाराष्ट्र

गढ़चिरौली इनका गढ़ है जबकि चंद्रपुर गोडिंया, यवतमाल, भंडारा और नांदेड़ जैसे डिस्ट्रिक्ट नक्सलग्रस्त घोषित। ये सभी जिले आंध्र प्रदेश, छत्ताीसगढ़ और मध्य प्रदेश के नक्सल प्रभावित एरियाज से सटे हुए हैं

बुधवार, 15 जुलाई 2009

ज्यादा जीना है तो अपनाएं 10 नुस्खे

सबकी चाह होती है कि वह ज्यादा से ज्यादा उम्र तक जीवित रहे। लेकिन यह संभव नहीं। हम आपको दस ऐसे टिप्स देते हैं, जिन्हें अपना कर आप ज्यादा समय तक स्वस्थ्य जीवन जी सकते हैं।


1
पूरी नींद लें

जी हां अगर आप ज्यादा दिनों तक जीना चाहते हैं तो पूरी नींद लें। विभिन्न शोधों से पता चला है कि जो लोग पर्याप्त नींद नहीं ले पाते उन्हें अपच, रक्तचाप और दिल की बीमारियां होने की संभावना ज्यादा होती हैं। इन सभी बीमारियों के कारण मनुष्य का जीवनकाल कम हो जाता है। सोने को लेकर वैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति को 7-8 घंटे की नींद लेना चाहिए।

2
अपने दोस्तों के साथ बिताएं वक्त

अपने दोस्तों के साथ बिताया गया वक्त आपको ज्यादा दिनों तक जीवित रख सकता है। शोध में पाया गया है कि जिन लोगों के ज्यादा दोस्त होते हैं वे कम दोस्त वाले की अपेक्षा ज्यादा जीते हैं। इसके साथ ही यह भी देखा गया है कि जिनके करीबी दोस्तों की संख्या ज्यादा होती है उनका जीवनकाल ज्यादा होता है।

3 छुट्टियों में करे मौज

अगर अपको ज्यादा जीना है तो छुट्टियां मनाना न भूलें। काम के बोझ के कारण तनाव का हमारे जीवन में घर कर जाना आसान है, तनाव के कारण हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, वजन बढ़ना आदी समस्याएं सामने आती है। इनसे बचने के लिए सबसे पहले तनाव पर काबू करें और इसके लिए छुट्टियों का मजा लें।

4 सेक्स करें और ज्यादा जीएं

शादीशुदा लोगों के लिए सेक्स ज्यादा जीने का साधन हो सकता है। सेक्स से शरीर में कुछ ऐसे हॉर्माेन निकलते हैं जो रोगों से लड़ने में मदद करता है। इसके अलावा जिन लोगों की सेक्स लाइफ अच्छी होती है उनके जीवन में तनाव कम होता है।

5 रेड वाइन भी लाभदायक

रेड वाइन को संतुलित मात्रा में लेने से मनुष्य का जीवनकाल लम्बा हो सकता है। रेड वाइन में एन्टीऑक्सीडेन्ट की मात्रा अधिक होती है, जिससे दिल की बीमारियों को रोकने में मदद मिलती है।

6 जानवर भी दिला सकते हैं लम्बी आयु

पालतु जानवर विशेष कर कुत्ते और बिल्ली को पालना लाभदायक हो सकता है। ये जानवर अपने मालिक को बहुत प्यार देते हैं, इससे व्यक्ति का तनाव दूर होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि प्यार में धोखा खाए या फिर अकेलापन से जूझने वालों के लिए जानवर पालना ज्यादा लाभप्रद होता है।

7 नियमित चेकअप जरूरी

स्वस्थ्य रहने के लिए जरूरी है कि बीमारियों को शुरुआती स्टेज में ही पहचान कर उसका इलाज कराया जाए। इसके लिए मनुष्य को नियमित चेकअप करानी चाहिए, यह चेकअप 40 साल से ज्यादा के लोगों के लिए आवश्यक होती है।

8 सकारात्मक सोच

सकारात्मक सोच व्यक्ति ने सिर्फ करियर में लाभ पहुंचाता है बल्कि यह ज्यादा समय तक जीने में भी मदद करता है। एक शोध में पाया गया कि सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति अन्य की अपेक्षा ज्यादा स्वस्थ्य रहता है और वह ज्यादा दिनों तक जीता है।

9 शादी करें और लम्बे जीवन का आनंद लें

शादीशुदा लोग अविवाहितों की अपेक्षा ज्यादा जीते हैं। एक शोध के अनुसार एक शादीशुदा पुरुष अविवाहित पुरुष की तुलना में 10 साल ज्यादा जीता है। इसी प्रकार अविवाहित महिला की तुलना में विवाहित महिला 4 साल ज्यादा जीती है।

10 शिक्षा से मिलती है मदद

शोध के अनुसार शिक्षित लोग ज्यादा जीते हैं। शिक्षित लोग कम व्यसन करते है और उनका कार्य भी ज्यादा खतरनाक नहीं होता साथ ही वे अपने स्वास्थ्य का ज्यादा खयाल रखते हैं।


बजट है भविष्य के गर्भ में

दुनिया के सबसे गरीब देश, जिसे गरीबी रेखा मानते हैं, के मुताबिक भारत में दस में से चार भारतीय से भी ज्यादा गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। नासो की मानें तो देश की ग्रामीण आबादी में 19 फीसदी लोग रोजाना 12 रुपए में गुजारा करते हैं। हमारे यहां एक ग्रामीण परिवार एक माह में महज 365 रुपए में प्रति व्यक्ति खर्च कर गुजारा करता है, जबकि शहरी क्षेत्र की २२ फीसदी आबादी प्रति व्यक्ति 19 रुपए खर्च करती है। मसलन एक व्यक्ति महीने भर में 580 रुपए में अपना जीवन गुजारता है। शहरों में खाने पर लोग औसतन 451 रुपए खर्च करते हैं, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में महज २५१-४क्क् रुपए में गुजारा करते हैं।

केंद्र सरकार ने बिजली भले प्राथमिकता सूची में रखी हो, लेकिन देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 42 फीसदी घरों में आज भी बिजली उनके लिए सपना है। कहने को वहां ५६ फीसदी घरों में बिजली उपलब्ध है। लेकिन जब शहरों में 12 से 14 घंटों बिजली न रहती हो, उस हालत में ग्रामीण इलाकों में बिजली की आशा बेमानी है। असल में बिजली तो नगरों-महानगरों में, राजधानियों में माननीयों-महामहिमों और उद्योगों से बचे, तब तो ग्रामीण शहरी इलाकों में पहुंचे।

सच में गावों के 42 फीसदी लोग मिट्टी के तेल से रोशनी पाते हैं, वह भी ब्लैक में खरीदकर। जहां तक खाना बनाने का सवाल है, गांव के 74 फीसदी घरों में तिनके और लकड़ियों से खाना बनता है। भले वहां के नौ फीसदी घरों में रसोई गैस से खाना बनता हो, लेकिन असल में इतनी ही फीसदी लोग उपलों से खाना बनाते हैं। हालत तो यह है कि १७ बड़े राज्यों में से सात राज्यों में १९ फीसदी ग्रामीण कच्चे घरों में रह रहे हैं, वहीं 50 फीसदी लोगों के घर पक्के और 31 फीसदी के घर आधे पक्के थे। यह हमारे गांवों की हकीकत है।

विश्व विकास रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भौगोलिक हिसाब से सबसे ज्यादा बदतर हालात का सामना करने वाले इसी देश के लोग हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत घनी आबादी वाला दुनिया का सबसे पिछड़ा देश है और देश के 60 फीसदी गरीब लोग देश के प्रमुख राज्यों में रहते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि खुशहाली गांव में बैठे-बिठाए यानी एक जगह टिके रहने से नहीं आती। रिपोर्ट के मुताबिक रोजगार की खातिर शहरों-महानगरों की ओर जाने की प्रवृत्ति सकारात्मक है, स्वाभाविक है।

लोगों को निर्धनता से छुटकारा मिलना ही चाहिए। शहरीकरण के अलावा इसका कोई चारा नहीं है। लेकिन खेद है कि शहरी प्रशासन रोजगार की तलाश में आने वालों के प्रति नकारात्मक रवैया रखता है। यही नहीं, उनके बेहतर जीवनयापन के लिए सुविधाएं मुहैया करने के मामले पर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। और तो और वह उनके लिए आवास, स्कूल, सफाई, सड़क, सुरक्षा, बिजली, पानी और आवागमन आदि की व्यवस्था करने में भी आनाकानी और बिना वजह देरी करता है।

नतीजतन लोग अपनी जरूरत और अधिकार पूरे करने की खातिर मजबूरन कानून अपने हाथ में ले लेते हैं। विडंबना यह है कि गांव-देहात से और आदिवासी अंचल से चुनकर आए जनप्रतिनिधि भी इनकी सुध नहीं लेते और हर पल अपनी सुविधाओं तथा वेतन बढ़ाने की जुगत में रहते है। आजकल इस साल के बजट को आजाद भारत का सबसे अच्छा बताया जा रहा है, देखना यह है कि यह इन लोगों का कहां तक भला कर पाएगा। यह तो भविष्य के गर्भ में है।

रविवार, 12 जुलाई 2009

मोदी मार्का गुजरात में शराबबंदी जरुरी?

ज़हरीली शराब पीकर मरना भारत में शायद सबसे बुरी मौत है. सिर्फ़ इसलिए नहीं कि बहुत तकलीफ़ होती है, इसलिए भी कि इसके शिकार वैसी सहानुभूति के हक़दार नहीं जो दूसरी दुर्घटनाओं के होते हैं.गुजरात में 100 से ज्यादा लोग ऐसी ही मौत मरे हैं, 150 से ज्यादा मौत से लड़ रहे हैं मगर जनता, मीडिया या प्रशासन की प्रतिक्रिया वैसी नहीं है, मिसाल के तौर पर, जैसी एक बड़ी रेल दुर्घटना के वक़्त होती है.
कुछ लोग तो रेल दुर्घटना से तुलना किए जाने पर ही बिफर सकते हैं, कहेंगे- 'और पियो, ठीक ही हुआ', 'गुजरात में तो नशाबंदी थी, किसने कहा था पीने को,' 'अच्छा हुआ, शराब पीने वालों को इससे सबक़ मिलेगा...' 'रेल में मुसाफ़िरों की क्या ग़लती है, शराबी तो अपनी करनी का फल भुगत रहे हैं'...
ज़्यादातर लोगों का शायद यही मानना है कि ये लोग अकारण नहीं मरे हैं, मरने का कारण है- शराब पीना, जिसके लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार हैं. अनाथ बच्चों का चेहरा भी दिलों को शायद उतना नहीं दुखा रहा है.शराब को लेकर भारत के मध्यवर्ग में जितने पूर्वाग्रह और पाखंड हैं उनके ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कारणों की समीक्षा एक दिलचस्प विषय हो सकता है लेकिन इतना तो साफ़ दिखता है कि उच्च वर्ग और निम्न वर्ग दोनों में यह वर्जित तरल नहीं है.सारी समस्या उस वर्ग की है जिससे मैं ख़ुद आता हूँ. शराब पीकर गँवाने के लिए निम्न वर्ग के लोगों के पास कुछ नहीं होता, अमीर आदमी को शराब पीने के लिए घर-बार बेचना नहीं पड़ता लेकिन मध्य वर्ग शराब को लेकर गहरी चिंता में घुलता जाता है.
मध्यवर्ग की अपनी जायज़ चिंताएँ हो सकती हैं मगर शराब से वह इतना आक्रांत है कि उसका असर उसकी मानवीय संवदेनाओं पर हावी दिखता है. 'शराबी के दो ठिकाने, ठेके जाए या थाने' या 'शराब करे जीवन ख़राब' जैसे स्लोगनों से परे देखने की उसकी क्षमता ख़त्म हो गई है, ठीक एक शराबी की तरह.गुजरात का मामला बाक़ी देश से ज़रा अलग है क्योंकि वहाँ दशकों से नशाबंदी लागू है, बिल्कुल ईरान की तरह. शराब पीने वाले अमीर दमन-दीव, गोवा, महाराष्ट्र जाते हैं या दोगुने दाम वसूलने वाले एजेंटों से मनचाहे माल की सप्लाई लेते हैं. सिर्फ़ ग़रीब ऐसी मौत मरते हैं.
इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा नहीं मिल सकता क्योंकि वे शराब पीने के गुनहगार हैं, अनैतिक लोग हैं. सरकार कह रही है कि दोषी लोगों को पकड़ा जाएगा, पकड़ना ही होगा क्योंकि उन्होंने राज्य का नशाबंदी क़ानून तोड़ा है.लोग कह रहे हैं कि गुजरात में 100 से ज्यादा लोगों की मौत 'नशाबंदी के बावजूद' हो गई जो एक गंभीर बात है, लेकिन इस बात पर बहस के लिए तैयार नहीं हैं कि यह घटना गुजरात में ही क्यों हुई, कहीं नशाबंदी ही इसकी एक वजह तो नहीं?
नशाबंदी कई मायनों में एक विवादास्पद पॉलिसी है. इस पर पूरा अमल नामुमकिन है, सरकारों को राजस्व का नुक़सान होता है, माफ़िया और बेईमान पुलिसवालों को कमाई का ज़ोरदार मौक़ा मिलता है और ज़हरीली शराब का कारोबार फैलता है...ज़ाहिर है कि नशाबंदी के पक्ष में भी अनेक तर्क हैं, यानी एक सार्थक बहस की गुंजाइश है.ये भी मत भूलिए कि शराब पीना कुछ इस्लामी देशों और गुजरात को छोड़कर बाक़ी दुनिया में क़ानूनन अपराध नहीं है.सिगरेट, गांजा, अफ़ीम, चरस बुरी चीज़ें हैं, जुआ भी, वेश्यावृति भी और न जाने कितनी बुराइयाँ जिनकी सूची अनंत है, शराब भी उन्हीं में से एक है.
शराब अगर एक समस्या है तो उससे निबटने के सार्थक और व्यवाहारिक प्रयास होने चाहिए, कोरे नैतिकतावादी-आदर्शवादी रवैए से सबका नुक़सान होगा, लोग सदियों से शराब पीते रहे हैं, आज भी पी रहे हैं और आगे भी पीते रहेंगे, इस तथ्य को स्वीकार किए बिना कोई कारगर नीति नहीं बन सकती.ऊपर जो भी लिखा है उसके बारे में अगर आपका ये निष्कर्ष है कि मैं शराब पीने के पक्ष में हूँ तो मुझे ऐसा ही लगेगा कि आप नशे में हैं. जो लोग बहस के बीच में व्यक्तिगत सवाल उठाने के शौक़ीन हैं उनकी जानकारी के लिए सच बताना ज़रूरी है कि ठंडी बियर मुझे सुकून देती है.अंत में एक सलाह-- गंभीर समस्याओं पर शराब या नैतिकता के नशे में नहीं सोचना चाहिए.

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

आज मैं ऊपर, आसमां नीचे..

रोमांच की तलाश इंसान को कहां-कहां नहीं ले जाती, फिर नीमराना फोर्ट तो दिल्ली से महज सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर है। इस साल जनवरी में जब से फ्लांइंग फोक्स के बारे में सुना था, तब से उसमें हाथ आजमाने का बहुत मन था क्योंकि वह न केवल भारत का अपनी तरह का अकेला जिप टूर है बल्कि इसकी एक जिप लाइन दक्षिण एशिया में सबसे लंबी और समूचे एशिया में दूसरी सबसे बडी है।

जैसी शुरू में मेरे मन में थी, वैसी ही आपके मन में सामान्य जिज्ञासा हो सकती है कि आखिर यह जिप टूर है क्या बला? जिप टूर दरअसल वह सफर है जो लोहे के तारों पर हुक से बंधे होकर (लटककर) किया जाता है। आपने तस्वीरों, फिल्मों या हकीकत में लोगों को नदियां पार करते देखा होगा। ठीक उसी तरह अब यह जिपलाइन किसी जगह को नए अंदाज व नई निगाह से देखने का रोमांच है। पहाड पर आप एक जगह से दूसरी जगह तक का सफर इसी तार के जरिये करते हैं। दिल्ली से सटी अरावली की पहाडियों में राजस्थान की सीमा में घुसते ही स्थित नीमराना फोर्ट भारत के इस अकेले जिपलाइन टूर का मेजबान है। फ्लांइंग फोक्स इसे संचालित करने वाली कंपनी है। फ्लाइंग फोक्स के मेहमान के तौर पर जब मैं नीमराना फोर्ट में ही फ्लाइंग फोक्स के दफ्तर पहुंचा तो वहां मौजूद इंस्ट्रक्टरों ने बडी गर्मजोशी से स्वागत किया। कपडों, उपकरण व सामान की आरंभिक तैयारी के बाद हम पहाडी की चोटी की तरफ चले। हमें पहले ही सीट हारनेस पहना दिया गया था। सीट हारनेस मजबूत बेल्टों का वह जाल होता है जो कमर पर पहन लिया जाता है। शरीर का वजन उठाने में सक्षम यह हारनेस कमरपेटी व जांघ पर कस जाती है, उसमें हुक (जिन्हें कैराबिनर्स कहा जाता है) लगे होते हैं जो शरीर को किसी तार या रस्सी से लटका देते हैं।

रॉक क्लाइंबिंग, रैपलिंग, रिवर क्रासिंग और पर्वतारोहण में भी इसी तरह के उपकरण काम आते हैं। तो ये कमरपेटियां बांधे हुए हमने पहाडी पर चढना शुरू किया। हमारे साथ दो कुशल व काबिल अंग्रेज इंस्ट्रक्टर थे। (आप चाहें तो आपको हिंदीभाषी इंस्ट्रक्टर भी मिल सकते हैं) लगभग बीस मिनट की चढाई के बाद हम चोटी पर आ पहुंचे। वहां से नीमराना फोर्ट पैलेस, जो खुद पहाडी काटकर बनाया गया था, छोटा सा नजर आता है। चोटी पर एक प्लेटफार्म बना हुआ था यह पहली जिपलाइन की शुरुआत थी। यहीं पर एक छोटा सा हिस्सा अभ्यास और सफर की पूरी प्रक्रिया समझाने के लिए भी है। जिपिंग (इसे यही कहा जाता है) को समझने, सारे एहतियात जानने, खुद को तैयार करने में 15-20 मिनट का वक्त लग गया। इंस्ट्रक्टर उस इलाके के इतिहास की भी जानकारी देते हैं। बहरहाल, इसके बाद शुरू हुआ असली रोमांच। दो इंस्ट्रक्टरों में से एक पहले गया, वह दूसरे प्वाइंट पर पहुंचने के बाद वॉकी-टॉकी से पीछे वाले इंस्ट्रक्टर को सब ठीक-ठाक होने की सूचना देता है, तभी बाकी लोग जाना शुरू करते हैं। चूंकि सफर पहाडी की चोटियों पर होता है, इसलिए मौसम का भी ध्यान रखा जाता है। तेज बारिश, हवा या बिजली में जिप टूर को रोकना पडता है। आगे जाने वाला इंस्ट्रक्टर हवा के असर को भी भांप लेता है। हालांकि पहले प्वाइंट पर अभ्यास के दौरान हमें यह बताया गया था कि हवा पीछे से या सामने से आए तो कैसे अपनी गति को नियंत्रित रखना है, कैसे गति बढाएं या ब्रेक लगाएं, हवा तिरछी बह रही हो तो कैसे अपना संतुलन बनाए रखना है, इंस्ट्रक्टर के इशारे दूर से कैसे समझे जाते हैं, वगैरह-वगैरह। जिपिंग की पूरी प्रक्रिया मैकेनिकल है यानी लोहे के तार के झोल से शरीर को मिलने वाली गति से हम एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक पहुंचते हैं। खींचने की कोई मशीनी प्रक्रिया नहीं है। ऐसे में यदि हम किसी बिंदु से थोडा पीछे रह जाते हैं तो सेना के जवानों की तरह अपने हाथों से खींच-खींचकर खुद को प्लेटफार्म तक पहुंचाते हैं। तो इंस्ट्रक्टर के ओके कहने के बाद मैं आगे बढा। हारनेस से दो बेल्ट बंधी होती हैं- एक में पुली लगी होती, जिसके जरिये हम रस्सी पर बढते हैं और दूसरे में अतिरिक्त सुरक्षा के लिए कैराबिनर। हाथों में मजबूत दस्ताने होते हैं। जितनी भी घबराहट होती है, वह पहले जिप के लिए शुरू करते वक्त होती है, क्योंकि अनुभव नया होता है। उसके बाद सिर्फ मजेदार रोमांच है। पहली जिप में थोडी हवा मिली क्योंकि वह पहाडी की चोटी पर ही एक सिरे से दूसरे सिरे तक है। उसकी लंबाई खासी है (350 मीटर) लेकिन सतह से ऊंचाई ज्यादा नहीं है, इसलिए जिपिंग के पहले अनुभव के लिए बिलकुल दुरुस्त है। फ्लाइंग फोक्स ने इन जिपलाइनों के नाम भी बडे रोचक रखे हैं, जैसे कि पहली जिपलाइन का नाम है- टू किला स्लैमर।

पहली जिप जहां उतारती हैं, वहां से दूसरे प्लेटफार्म तक थोडा नीचे पहाडी पर पैदल उतरना होता है। दूसरी जिप (वेयर ईगल्स डेयर) सबसे लंबी है, लगभग चार सौ मीटर। नीचे अरावली पहाडियों के बीच नीमराना फोर्ट और कस्बे के विहंगम और खूबसूरत नजारे के लिए सबसे उपयुक्त। पहली जिप के बाद मन से डर तो भाग चुका था। मजा आने लगा था। मैं अपने भीतर के फोटोग्राफर को रोक न पाया और बीच में रुककर अपने कैमरे से नीचे नीमराना फोर्ट की तस्वीरें खींचने लगा। यह यकीन हो चला था कि बेल्ट मुझे तार से लटकाए रखने में खासी सक्षम है।

इसलिए एक हाथ से बेल्ट को पकडकर अपना संतुलन बनाए रखा तो दूसरे हाथ से कैमरे को थामकर क्लिक करने लगा। एक परिंदे की नजर से नीचे का वह हवाई नजारा अद्भुत था। हालांकि उसका खामियाजा मैंने यह भुगता कि तीसरे प्लेटफार्म तक मुझे अपनी सारी ताकत लगाकर खुद को खींचकर ले जाना पडा। तीसरी जिप (गुडबॉय मिस्टर बॉंड) छोटी सी है, महज नब्बे मीटर, बाकी जिपलाइनों की चमक मैं आप इसे भूल ही जाएंगे। चौथी जिपलाइन (हाई एज ए काइट) भी पहली और दूसरी की तुलना में छोटी, ढाई सौ मीटर ही है लेकिन यह जिपलाइन सतह से सबसे ऊपर (बीच में लगभग सौ फुट से ज्यादा) है। पांचवी जिपलाइन (बिग बी) 175 मीटर ही लंबी है लेकिन यह पांचों में सबसे तेज है, इतनी कि आखिरी प्लेटफार्म तक पहुंचते-पहुंचते हो सकता है आपको सामने इंस्ट्रक्टर यह इशारा करता नजर आए कि अपनी गति धीमी करें और आपको दस्ताने पहने हाथ से तार को रगडकर ब्रेक लगाना पडे। आखिरी प्लेटफार्म महल की ऊपरी चाहरदीवारी पर ही है। इस तरह पांचवी जिप हमें फिर से महल में पहुंचा गई। सफर जहां से शुरू हुआ था, लगभग दो घंटे में वहीं खत्म हुआ। दिल में रोमांच, नीचे जमीन और सैकडों फुट ऊपर परिंदों की तरह हवा में तार से लटका मैं। आजमाइए, मेरी ही तरह आपके लिए भी यह यादगार अनुभव रहेगा।

पूरी हिफाजत

यह तो अफसोस की बात है ही कि भारत में रोमांचक खेलों के नियमन के कोई नियम-कायदे बने हुए नहीं हैं। लेकिन फ्लाइंग फोक्स की जिपिंग इस तरह के रोमांच के लिए नवीनतम यूरोपीय मानकों पर खरी उतरती है। पूरे टूर की डिजाइन व निर्माण स्विस इंजीनियरों ने किया है। सभी उपकरण भी स्विट्जरलैंड व फ्रांस से आयातित हैं। संचालन का काम इस क्षेत्र में 15 साल से ज्यादा का अनुभव रखने वाले ब्रिटिश विशेषज्ञों के हाथ में है। रोज हर उपकरण की बारीकी से जांच होती है। फ्लाइंग फोक्स का कहना है कि तार तो इतना मजबूत है कि अगर इतनी बडी हारनेस मिल जाए तो हम हाथी तक को जिप करा सकते हैं। नीमराना में डेढ हजार से ज्यादा लोग अब तक इस रोमांच का मजा ले चुके हैं। फ्लाइंग फोक्स का लक्ष्य इस साल के लिए पांच हजार का है। अपनी जमी-जमाई नौकरियां छोडकर नीमराना में इस रोमांच की नींव रखने वाले ब्रिटेन के रिचर्ड मैककेलम और जोनाथन वाल्टर अब इस अनुभव को भारत के बाकी हिस्सों में भी ले जाने की योजना बना रहे हैं।

जिप, जैप, जू...

फ्लाइंग फोक्स अभी तो बंद है, आखिर जून की चिलचिलाती गरमी में जिपिंग करना कोई समझदारी नहीं। 10 जुलाई से रोमांच का यह खेल फिर से शुरू होगा। इसके लिए नीमराना फोर्ट पैलेस पहुंचना होता है। फ्लाइंग फोक्स का बेस यहीं है। नीमराना कस्बा राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 पर जयपुर जाते हुए दिल्ली से 125 किलोमीटर दूर है। फोर्ट हाईवे से अंदर लगभग तीन किलोमीटर जाकर है।

14वीं सदी का नीमराना फोर्ट पैलेस एक हैरीटेज होटल है और हैरीटेज होटल के रूप में संचालित हो रही देश की सबसे पुरानी इमारतों में से एक है। दिल्ली व आसपास के लोगों के लिए यह एक वीकेंड डेस्टीनेशन के रूप में या महज दिनभर की सैर व पिकनिक के लिए भी लोकप्रिय है।

दस साल से ज्यादा उम्र, 4 फुट 7 इंच से ज्यादा लंबाई, 43 इंच से कम कमर और 127 किलो से कम वजन वाला कोई भी व्यक्ति यहां जिपिंग कर सकता है।

किराया है वयस्क के लिए 1495 रुपये और बच्चों के लिए 1195 रुपये। लेकिन एडवांस बुकिंग कराने पर इसमें 15 फीसदी तक छूट मिल जाती है। इसके अलावा समूह और परिवारों के लिए टिकटों में अलग से रियायत है। एक खास बात यह भी कि फ्लाइंग फोक्स का टिकट लेने पर नीमराना फोर्ट पैलेस में प्रवेश का शुल्क नहीं लगता, जो आम तौर पर 12 साल से ज्यादा उम्र के लोगों के लिए 500 रुपये है (केवल होटल में नहीं ठहरने वालों के लिए)। आप सीधे नीमराना जाकर भी टिकट ले सकते हैं लेकिन तब सीट मिलने की गारंटी नहीं रहती।

फोर्ट से रवाना होने के बाद पांचों जिप लाइन करके वापस पहुंचने में लगभग दो से ढाई घंटे का समय लगता है। बहुत कुछ हवा, ग्रुप की संख्या और हिम्मत पर भी निर्भर करता है। एक ग्रुप में अधिकतम 10 लोग होते हैं। सामान्य दिनों में जिपिंग टूर सवेरे 9, 10 व 11 बजे और दोपहर बद 1, 2 व 3 बजे शुरू होते हैं।


रविवार, 5 जुलाई 2009

महिलाओं की पोशाक संहिता

पिछले दिनों कानपुर के महिला महाविद्यालयों में लड़कियों को जीन्स पहनकर पढ़ने आने पर रोक लगाने की बात पर बवाल उठ खड़ा हुआ। सरकार को बीच में आना पड़ा। "ड्रेस कोड लागू नहीं किया जाएगा" का आदेश हुआ। सरकार की सराहना हुई है। समाज में बहुत लोग ड्रेस कोड लगाने के पक्षधर थे, तो बहुत लोग विरोधी।

मैं भी इस बात से सहमत हूं कि महाविद्यालयों में पढ़ने जा रही लड़कियों पर "ड्रेस कोड" नहीं लगना चाहिए। पर सवाल तो यह उठता है कि आखिर प्राचार्यो के मन में ड्रेस कोड लगाने की बात उठी क्यों हमारी बच्चियां कैसे कपड़े पहनें, यह निश्चित करना सरकार या समाज (विद्यालय- महाविद्यालयों) का काम नहीं है, परन्तु कपड़ों पर ध्यान तो देना ही है।
बेटियां-बहुएं वही ड्रेस पहनती हैं जो बाजार में बिकते हैं या फैशन शो में दिखाए जाते हैं। इसलिए यह तो मानना होगा कि उनकी अपनी रूचि का सवाल नहीं है। फैशन शो वाले तय करते हैं कि हमारी बेटियां अर्द्धनग्न दिखें, बेटों का पूरा शरीर ढका हो।

चलिए। मान लेते हैं कि शरीर का प्रदर्शन भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अन्दर आता है, पर कितनी स्वतन्त्रता कैसी स्वतन्त्रता क्या एक सामाजिक प्राणी होते हुए हम इतने स्वतन्त्र हैं कि जो मन में आए, वैसा करें जहां मन में आए, वहां जाएं जिसे मन में आए, उसे गोली मार दें नहीं न! फिर वस्त्र के मामले में इतनी स्वच्छंदता क्यों
जल-थल-नभ पर पांव रखने वाली बेटी-बहुओं से यह अपेक्षा करना भूल ही नहीं, अपराध होगा कि वे साड़ी में लिपटी रहें। परन्तु जब भड़काऊ भाषण पर प्रतिबंध लगता है तो भड़काऊ ड्रेस पर क्यों नहीं यह नहीं कहती कि बेटियां जीन्स पहने ही नहीं। हमारे जमाने में जीन्स थी ही नहीं तो हम पहनती कैसे

अर्द्धनग्नता बर्दाश्त नहीं होनी चाहिए। बेटियों को एहसास कराने भर की बात है। कहां कैसा वस्त्र पहनकर जाएं, इतनी सज्ञानता होनी चाहिए। मां-बाप जिस वेश में स्वयं अपनी बेटियों को पूरी नजर नहीं देख सकें, कम से कम वैसे वस्त्र पहनकर तो बाहर न निकलें बेटियां।

यह नसीहत नहीं है। स्वयं एहसास करने की जरू रत है। हर माता-पिता की इच्छा होती है कि उनकी बेटियां सुन्दर दिखें। अर्द्धनग्नता सौंदर्य बढ़ा ही नहीं सकती। फिर तो वस्त्र की जरूरत ही नहीं होती। इन सामाजिक समस्याओं को भी कुछ लोग पारम्परिकता और आधुनिकता के विवाद में फंसा ले जाते हैं। नाहक समाज दो खेमों में बंट जाता है। यह वाद-विवाद का विषय नहीं है। बात इतनी-सी है कि शिक्षालयों में युवतियां शिक्षा और संस्कार ग्रहण करने जाती हैं। वहां शालीन वस्त्र, संयमित व्यवहार और हावभाव होना चाहिए। यह अपेक्षा मात्र लड़कियों से नहीं लड़कों से भी है। अंतर्मन से आधुनिक होना चाहिए। आधुनिकता की प्रतिद्वंद्विता से बचना चाहिए। हमारे वस्त्र हमें आधुनिक नहीं बनाते।

अप्राकृतिक आचरण

समाज मनुष्य की प्राकृतिक जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्था करता है। उसके अधिकार और कर्तव्य के रक्षण के लिए ही नियम-उपनियम, कानून और संहिताएं बनती बिगड़ती रही हैं। हमारा समाज कभी रूढ़ नहीं रहा है। यहां तो "आनो भद्रा: Rतवो यन्तु विश्वत:" कहा गया है। अर्थात सभी अंदर से अच्छे विचार आने दें। क्या पता कहां से कोई अच्छी बात, सुखद हवा आ जाए। समाज के स्वस्थ्य विकास के लिए, दूसरों के अनुभव से भी सीखते रहने का निर्देश दिया गया है, परंतु मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं और नियमों के प्रतिकूल जाना वर्जित किया गया है। इन दिनों समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने के सवाल पर बवाल उठ खड़ा हुआ है। दलील यह भी दी जा रही है कि समाज में कुछ प्रतिशत लोग समलैंगिक हैं तो उनकी बात क्यों न मानी जाए अभिप्राय कि कल चोर-डकैत भी छाती पर पट्टा लगाकर सड़कों पर खुल्लमखुल्ला मांग करेंगे- "चोरी-डकैती को वैधता प्रदान की जाए।" हम जानते हैं कि विवाहेतर सम्बन्ध भी चोरी-छुपे होते हैं। कल ऎसे लोग सड़कों पर आकर मांग करें- "हमारे विवाहेतर सम्बन्ध को कानूनी मान्यता मिले।" फिर क्या होगा परिवार का कैसा होगा समाज क्या सारे कानून बदलने नहीं पड़ेंगे सीधी-सी बात है। मनुष्य की प्राकृतिक जरूरत- आहार, निद्रा, भय और मैथुन हैं। ये चारों जन्मजात जरूरतें हैं। ये चारों ही मनुष्य के जीवन की प्रेरणाएं भी हैं। और इन जन्मजात जरूरतों को देखकर समाज में व्यवस्था लाने की दृष्टि से पति-पत्नी की जोड़ी बना दी गई। विवाहोपरांत उस स्त्री-पुरूष के बीच लैंगिक सम्बन्ध वैधानिक कर दिए गए। दोनों के बीच यह सम्बन्ध टूटना भी विवाह विच्छेद का एक कारण बनता है। अर्थात दोनों के बीच लैंगिक सम्बन्ध कायम रहना आवश्यक है। गलत भोजन करने और जरूरत से अधिक या कम नींद भी बीमारी का कारण हो जाती है। स्त्री-पुरूष के बीच लैंगिक सम्बन्ध प्राकृतिक आवश्यकता है। समाज ने अपनी व्यवस्था और सुविधा के लिए पति-पत्नी के बीच सीमित कर दिया है। समलैंगिक सम्बन्ध अप्राकृतिक है। बीमारी है। बीमार मानसिकता की उपज है। समाज की किसी बीमारी को वैधानिक नहीं बनाया जा सकता।
मानवीय शुचिता और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी समलैंगिकता उचित नहीं है। कोई भी धार्मिक सम्प्रदाय इसकी अनुमति नहीं देता है। कहना चाहूंगी कि भारतीय जीवन पद्धति में व्यक्तिगत जीवन में शुचिता पर विशेष ध्यान दिया गया है। दूसरी बात है कि मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुसार आचार संहिता भी बनाई गई हैं। यही मानव धर्म है। मानवीय संस्कृति है। इसे नहीं तोड़ा जा सकता। स्त्री-पुरूष संबंधों में बहुत-सी विद्रूपताएं आ गई हैं। कई बार तो जानवरों के साथ लैंगिक संबंध की खबरें आती हैं। तो क्या इसे वैध माना जाए नहीं! क्योंकि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए यह उचित नहीं। यह बीमारी है। सनकीपन है। सामान्य व्यवहार नहीं! हरेक काल में ऎसी विद्रूपताएं किसी न किसी रूप में विद्यमान रही होंगी। तात्पर्य यह नहीं कि उन विद्रूपताओं को समाज सम्मत मानकर तद्नुकूल कानून बना दिया जाए। आज कुंआरी माताओं को अधिकार देने की बात जोरों से उठी है। "लिविंग टूगेदर" को कानूनी मान्यता प्रदान करने की बात उठ रही है। ये सारी मांगें सनातनी विवाह संस्कार और परिवार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ओर अग्रसर हैं। समाज की चूल ही चरमरा जाएगी। व्यवस्थाएं समाप्त हो जाएंगी। जंगल राज आ जाएगा।