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मैं भी इस बात से सहमत हूं कि महाविद्यालयों में पढ़ने जा रही लड़कियों पर "ड्रेस कोड" नहीं लगना चाहिए। पर सवाल तो यह उठता है कि आखिर प्राचार्यो के मन में ड्रेस कोड लगाने की बात उठी क्यों हमारी बच्चियां कैसे कपड़े पहनें, यह निश्चित करना सरकार या समाज (विद्यालय- महाविद्यालयों) का काम नहीं है, परन्तु कपड़ों पर ध्यान तो देना ही है।
बेटियां-बहुएं वही ड्रेस पहनती हैं जो बाजार में बिकते हैं या फैशन शो में दिखाए जाते हैं। इसलिए यह तो मानना होगा कि उनकी अपनी रूचि का सवाल नहीं है। फैशन शो वाले तय करते हैं कि हमारी बेटियां अर्द्धनग्न दिखें, बेटों का पूरा शरीर ढका हो।
चलिए। मान लेते हैं कि शरीर का प्रदर्शन भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अन्दर आता है, पर कितनी स्वतन्त्रता कैसी स्वतन्त्रता क्या एक सामाजिक प्राणी होते हुए हम इतने स्वतन्त्र हैं कि जो मन में आए, वैसा करें जहां मन में आए, वहां जाएं जिसे मन में आए, उसे गोली मार दें नहीं न! फिर वस्त्र के मामले में इतनी स्वच्छंदता क्यों
जल-थल-नभ पर पांव रखने वाली बेटी-बहुओं से यह अपेक्षा करना भूल ही नहीं, अपराध होगा कि वे साड़ी में लिपटी रहें। परन्तु जब भड़काऊ भाषण पर प्रतिबंध लगता है तो भड़काऊ ड्रेस पर क्यों नहीं यह नहीं कहती कि बेटियां जीन्स पहने ही नहीं। हमारे जमाने में जीन्स थी ही नहीं तो हम पहनती कैसे
अर्द्धनग्नता बर्दाश्त नहीं होनी चाहिए। बेटियों को एहसास कराने भर की बात है। कहां कैसा वस्त्र पहनकर जाएं, इतनी सज्ञानता होनी चाहिए। मां-बाप जिस वेश में स्वयं अपनी बेटियों को पूरी नजर नहीं देख सकें, कम से कम वैसे वस्त्र पहनकर तो बाहर न निकलें बेटियां।
यह नसीहत नहीं है। स्वयं एहसास करने की जरू रत है। हर माता-पिता की इच्छा होती है कि उनकी बेटियां सुन्दर दिखें। अर्द्धनग्नता सौंदर्य बढ़ा ही नहीं सकती। फिर तो वस्त्र की जरूरत ही नहीं होती। इन सामाजिक समस्याओं को भी कुछ लोग पारम्परिकता और आधुनिकता के विवाद में फंसा ले जाते हैं। नाहक समाज दो खेमों में बंट जाता है। यह वाद-विवाद का विषय नहीं है। बात इतनी-सी है कि शिक्षालयों में युवतियां शिक्षा और संस्कार ग्रहण करने जाती हैं। वहां शालीन वस्त्र, संयमित व्यवहार और हावभाव होना चाहिए। यह अपेक्षा मात्र लड़कियों से नहीं लड़कों से भी है। अंतर्मन से आधुनिक होना चाहिए। आधुनिकता की प्रतिद्वंद्विता से बचना चाहिए। हमारे वस्त्र हमें आधुनिक नहीं बनाते।
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