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मानवीय शुचिता और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी समलैंगिकता उचित नहीं है। कोई भी धार्मिक सम्प्रदाय इसकी अनुमति नहीं देता है। कहना चाहूंगी कि भारतीय जीवन पद्धति में व्यक्तिगत जीवन में शुचिता पर विशेष ध्यान दिया गया है। दूसरी बात है कि मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुसार आचार संहिता भी बनाई गई हैं। यही मानव धर्म है। मानवीय संस्कृति है। इसे नहीं तोड़ा जा सकता। स्त्री-पुरूष संबंधों में बहुत-सी विद्रूपताएं आ गई हैं। कई बार तो जानवरों के साथ लैंगिक संबंध की खबरें आती हैं। तो क्या इसे वैध माना जाए नहीं! क्योंकि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए यह उचित नहीं। यह बीमारी है। सनकीपन है। सामान्य व्यवहार नहीं! हरेक काल में ऎसी विद्रूपताएं किसी न किसी रूप में विद्यमान रही होंगी। तात्पर्य यह नहीं कि उन विद्रूपताओं को समाज सम्मत मानकर तद्नुकूल कानून बना दिया जाए। आज कुंआरी माताओं को अधिकार देने की बात जोरों से उठी है। "लिविंग टूगेदर" को कानूनी मान्यता प्रदान करने की बात उठ रही है। ये सारी मांगें सनातनी विवाह संस्कार और परिवार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ओर अग्रसर हैं। समाज की चूल ही चरमरा जाएगी। व्यवस्थाएं समाप्त हो जाएंगी। जंगल राज आ जाएगा।
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