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रविवार, 21 जून 2009

स्वीकार्य नहीं गुजकोका

केन्द्र सरकार ने दूसरी बार गुजरात संगठित अपराध नियंत्रण कानून (गुजकोका) को अमान्य कर दिया है। पिछली बार मनमोहन मंत्रिमंडल ने जब इसे राज्य विधानसभा को वापस भेजने की सिफारिश राष्ट्रपति से की थी, तब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने "वोट बैंक राजनीति" और "विरोधी दलों की सरकारों के साथ कांग्रेस के भेदभाव" का आरोप लगाया था, पर शायद इस बार वे ऎसा नहीं कर पाएंगे।
दरअसल केन्द्र व राज्य सरकारों के बीच पत्र व्यवहार का संवेदनशील ब्यौरा उजागर नहीं करने की परम्परा है। शुक्रवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक के बाद "गुजकोका" को वापस भेजने के निर्णय की संवाददाताओं को जानकारी देते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम् ने इस पर तीन आपत्तियां बताईं। इससे मोदी के इस दावे की पोल खुल गई कि संशोधित "गुजकोका" भी कर्नाटक और महाराष्ट्र के आतंक-विरोधी कानूनों की तरह है। हकीकत यह है कि गुजरात सरकार "गुजकोका" के जरिये ऎसे अपरिमित अधिकार चाहती है, जो मानवाधिकारों का सम्मान करने वाली कोई लोकतांत्रिक सरकार स्वीकार नहीं कर सकती।
गुजकोका के प्रावधानों पर केन्द्र की पहली आपत्ति यह है कि इसमें पुलिस अधिकारी के समक्ष इकबालिया बयान को अदालत में स्वीकार्य बनाया गया है। सभी जानते हैं कि पुलिस मामूली चोरी को भी कबूल करवाने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाती है। यही नहीं गुजकोका में एक प्रावधान यह भी किया गया है कि यदि लोक अभियोजक विरोध करे तो अदालत जमानत मंजूर नहीं कर सकती। यह तो हद हो गई! फिर अदालत की जरू रत ही क्या है मुल्जिम को लोक अभियोजक के समक्ष पेश कर ही जमानत पर फैसला करवा लिया जाए। केन्द्र सरकार को गुजकोका की धारा 20 (2) पर भी आपत्ति है। इस धारा में प्रावधान संभवत: इतना "संवेदनशील" है कि चिदम्बरम् को चुप्पी ही साधनी पडी। उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ये तीन संशोधन गुजरात सरकार कर दे, तो केन्द्रीय मंत्रिमंडल उसे राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज सकता है। क्या मोदी अब भी यही दावा करेंगे कि केन्द्र सरकार "भेदभाव" कर रही है भले ही गुंडे, डाकू, उग्रवादी, फिरकापरस्त और आतंककारी मानवाधिकारों की इज्जत नहीं करते, पर लोकतांत्रिक समाज तो उन्हें इनसे कतई वंचित नहीं कर सकता। गुजरात सरकार को भी यह बात माननी ही पडेगी

सोमवार, 1 जून 2009

आरटीआई क्षेत्र में बेहतर काम का मिलेगा पुरस्कार

सूचना अधिकार कानून आजाद भारत में आम आदमी को मिला शायद सबसे धारदार हथियार है। यह ऐसा अधिकार है जो गांव की गली में बिछे खड़ंजे की लागत से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों की माली हैसियत पर भी सवाल पूछने की ताकत देता है। यह कानून जिन लोगों के दम पर चला और दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते बेहाल हुए इंसान के हक की आवाज बन सका, लगन के धनी ऐसे लोगों को अब राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा सकेगा। पब्लिक काज रिसर्च फाउंडेशन (पीसीआरएफ) देश भर के चुनिंदा आरटीआई एक्टीविस्ट को नवंबर में पुरस्कृत करेगी। सूचना का अधिकार कानून को और लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से शुरू सूचना का अधिकार-राष्ट्रीय पुरस्कार 2009 में पहले दो पुरस्कार सरकारी दफ्तरों में तैनात उन जनसूचना अधिकारियों के लिए होंगे, जिन्होंने आवदेक को बिना दौड़ाए उसे जानकारी उपलब्ध करा दी। एक पुरस्कार आवेदनों पर फैसला लेने वाले सूचना आयुक्तों के लिए होगा और दो पुरस्कार सूचना आवेदकों के लिए होंगे। सभी पांचों विजेताओं को दो-दो लाख रुपये नकद, ट्राफी और सम्मान पत्र दिया जाएगा। इन पांच के अलावा अंतिम सूची में स्थान बनाने वाले प्रतिभागियों को भी संस्था एक ट्राफी देगी। देश में अपनी तरह के इन पहले पुरस्कारों के सूत्रधार अरविंद केजरीवाल के मुताबिक सभी आवेदन पहली जून से 30 जून तक स्वीकार किए जाएंगे। प्रविष्टियों पर विचार देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह, इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति, अभिनेता आमिर खान, पूर्व राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियन पुलेला गोपीचंद, नृत्यांगना मल्लिका साराभाई, वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन, दैनिक जागरण के संपादक संजय गुप्त, एनडीटीवी के अध्यक्ष डा. प्रणय राय और वरिष्ठ पत्रकार मधु त्रेहन का निर्णायक मंडल करेगा।अब आते हैं पुरस्कारों के आधार पर। सूचना आयुक्तों और जनसूचना अधिकारियों के लिए मानक का आधार तो उनके दायित्वों का उचित निर्वहन ही होगा। लेकिन सूचना आवेदन करने वालों की दो श्रेणियां होंगी। केजरीवाल के अनुसार पहली श्रेणी उन लोगों की होगी जिनके आवेदन पर दिसंबर 2008 तक कोई बड़ा फैसला आया हो या उसका बड़ा इंपैक्ट हुआ हो। दूसरी श्रेणी में वे लोग होंगे जिनके आवेदन का जवाब तो नहीं आया, लेकिन उस पर असर उतना ही व्यापक हुआ। आशय यह कि कई बार सरकारी विभाग जवाब देने से तो डरते हैं लेकिन चुपचाप वांछित कार्रवाई भी कर देते हैं। सूचना आवेदकों की इन दोनों श्रेणियों को यह छूट भी है कि वे 2005 में सूचना कानून लागू होने से लेकर दिसंबर 2008 तक के अपने आवदेनों का ब्यौरा भेज सकते हैं।

सौ दिन का एजेंडा

इस सूचना से उत्साहित नहीं हुआ जा सकता कि संप्रग सरकार ने सौ दिन का अपना एजेंडा तय कर लिया है। फिलहाल यह जानना कठिन है कि इस एजेंडे में क्या शामिल है और क्या नहीं, लेकिन कोई भी अनुमान लगा सकता है कि उन समस्याओं का समाधान प्राथमिकता के आधार पर खोजने की रूप-रेखा बनाई गई होगी जो राष्ट्र के समक्ष उपस्थित हैं और जिन्हें गंभीर माना जा रहा है। यह भी स्पष्ट है कि मंदी का माहौल को दूर करना और पाकिस्तान से उबर रहे खतरे से बचे रहना इस एजेंडे का हिस्सा का होंगे, लेकिन इन समस्याओं के अतिरिक्त जो अन्य अनेक जटिल मुद्दे सतह पर हैं वे ऐसे नहीं कि केवल सौ दिन में उन्हें सुलझाया जा सके। इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि संप्रग शासन के पास न तो कोई जादू की छड़ी है और न हो सकती है। यह संभव है कि केंद्र सरकार सौ दिन के एजेंडे के बहाने कुछ ऐसी घोषणाएं करने में समर्थ हो जाए जो जनता का ध्यान आकर्षित करने और उसमें उम्मीदों का संचार करने वाली हों, लेकिन यदि संप्रग सरकार दूसरी पारी में वास्तव में कुछ ठोस और बेहतर करना चाहती है तो फिर उसे शासन के तौर-तरीके बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए। भारत की शासन व्यवस्था जिस तरह से चलाई जा रही है उसमें आमूल-चूल परिवर्तन समय की मांग है। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले पांच वर्षो में विभिन्न समस्याओं का समाधान समितियों और आयोगों के जरिये खोजने की जो तरकीब अपनाई गई उससे देश को कुछ हासिल नहीं हुआ। पिछले पांच वर्षो में विभिन्न समितियों और आयोगों की सिफारिशें सामने तो आई, लेकिन वे विचार-विमर्श के बहाने ठंडे बस्ते में चली गई। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिशों को भी ठंडे बस्ते में डालने का काम किया गया। इसी तरह न्यायिक सुधार की बातें तो खूब की गई, लेकिन कुछ ठोस कदम उठाने से इनकार किया गया। कुछ आवश्यक कार्य ऐसे थे जो सत्ता में आते ही किए जाने चाहिए थे, लेकिन उनकी सुधि तब ली गई जब चुनाव सिर पर आ गए। इसी तरह कुछ कार्य तो पूरी तरह भुला ही दिए गए। दरअसल महत्वपूर्ण यह नहीं है कि सरकार ने सौ दिन के लिए क्या एजेंडा तय किया है, बल्कि यह है कि वह अपने कामकाज का रंग-ढंग बदलने जा रही है या नहीं? अच्छा तो यह होगा कि वह सौ दिन के अंदर उन तौर-तरीकों से छुट्टी पा ले जो सिर्फ लालफीताशाही के अस्तित्व में होने की कहानी कहते हैं। केंद्रीय सत्ता को उन अनेक परंपराओं से भी पीछा छुड़ा लेना चाहिए जिनकी आज के युग में कहीं कोई अहमियत नहीं रह गई है। बगैर ऐसा किए केंद्रीय शासन को गतिशील नहीं किया जा सकता और यदि केंद्रीय सत्ता के कामकाज में सुधार नहीं होगा तो राज्य सरकारों की कार्यप्रणाली में शायद ही कोई परिवर्तन आए। भले ही सत्ता में वापसी के आधार पर कांग्रेस और उसके सहयोगी दल यह दावा करें कि यह संप्रग शासन की कार्य कुशलता और दक्षता का परिणाम है, लेकिन समझदारी इसी में है कि पिछले पांच वर्ष के कार्यकाल की नाकामियों पर ध्यान दिया जाए। यदि यह मानकर चला जाएगा कि नरेगा जैसी जन कल्याणकारी योजनाएं सही तरह चल रही हैं तो इसे यथार्थ की अनदेखी ही कहा जाएगा।

शनिवार, 23 मई 2009

अरक्षित दलित


शहरों में सामाजिक बदलाव की बयार के बीच गांवों में अब भी दलित समाज मुख्यधारा में से अलग थलग पडा हुआ है। दलितों की सुरक्षा के लिए कई कानून बनाने के बावजूद उन्हें अब भी सामाजिक समानता हासिल नहीं हो पा रही। भीलवाडा जिले में दलित अत्याचार की बढती घटनाओं ने प्रशासन की चिन्ता बढा दी है। दलित समुदाय में अरक्षा के भाव पनपने से गांवों में सामाजिक सौहार्द का माहौल भी बिगडने का खतरा है। जहाजपुर तहसील के ऊंचा गांव में दलित दूल्हे की बिन्दोली पर तेजाब फेंकने से दूल्हे सहित छह जने झुलस गए। कुछ दिन पूर्व हमीरगढ क्षेत्र के तख्तपुरा गांव में भी एक दलित दूल्हे को घोडी से उतार दिया गया। भीलवाडा जिले में एक यज्ञ में दलितों को शामिल करने को लेकर भी विवाद की स्थिति है। दलितों पर अत्याचार की घटनाएं अन्य जिलों में भी सामने आती रहती हैं। ऎसी घटनाओं पर स्वार्थ की रोटियां सेंकने वाले नेताओं व संगठनों की भी कमी नहीं है। इनसे दलितों को भी सावधान रहना होगा। सरकार को भी यह समझना होगा कि दलित सुरक्षा के कानून बना देने से उनको समाज में व्यावहारिक धरातल पर समानता का हक नहीं हासिल होगा। इसके लिए जरूरत सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की है। दलित समाज की बिन्दोली को रोकने के पीछे के कारणों को खोजना होगा। दलितों को बराबरी का नहीं मानने वाले लोगों को कानून की लाठी से हांकने के बजाय सामाजिक स्तर पर उनकी मानसिकता बदलनी होगी। गांव में दलितों को बराबरी का हक नहीं देने वालों को भी अब समझ लेना होगा कि जमाना बदल चुका। अब किसी जाति या व्यक्ति को अछूत या नीचे के स्तर का नहीं माना जा सकता। दलितों में सुरक्षा का भाव जागृत करने के लिए प्रशासन के साथ गांव के प्रभावशाली तबकों को भी पहल करनी होगी।

मंगलवार, 19 मई 2009

भटकती भाजपा


इस बार लोकसभा चुनावों में भी भाजपा की वैसी ही स्थिति उभरकर सामने आई, जैसी कि पिछले लोकसभा चुनाव में आई थी। शायनिंग इण्डिया का नारा अंधेरे में दबकर रह गया था। अपनी इतनी बड़ी हार से भाजपा में बौखलाहट का बड़ा वातावरण भी दिखाई दिया। इस बार भी दावे तो आसमान से नीचे ही नहीं उतरे, किन्तु भाजपा चारों खाने चित्त हो गई। लालजी ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी कि यदि मैं पी.एम. नहीं बना तो घर लौट जाऊंगा।

न पी.एम. ही बने, न घर ही लौटे। भाजपा की यह सबसे बड़ी भूल साबित हुई कि उनको इतना पहले से ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। इस सम्मान को पचा सकना उनके लिए असंभव हो गया। इस पूरे काल में उनके तेवर भी प्रधानमंत्री जैसे ही रहे। अन्तत: जनता ने ही उनके नेतृत्व को नकार दिया। चुनाव प्रचार के दौरान ही एक और समझदार नेता ने अपने पिटारे से मोदी का नाम छोड़ दिया। इसका एक अर्थ यह था भाजपा के एक धड़े को भी आडवाणी का नेतृत्व स्वीकार नहीं है और वह भी ऎन चुनाव के पहले। भाजपा का इससे बड़ा नुकसान तो कांग्रेस ने भी नहीं किया। इस घोषणा से नरेन्द्र मोदी भी फुफकारने लग गए। सभी नेताओं की वाणी से विष उगला जा रहा था। इसका परिणाम भी वही होना था। भाजपा के सहयोगी दलों ने भी मोदी को नकार दिया।

दिल्ली के गढ़ में भाजपा का एक संतरी भी नहीं बचा। उत्तराखण्ड में भी भाजपा को बैरंग लौटना पड़ा। राजस्थान में अकाल पड़ गया। मात्र चार सीटों पर संतोष करना पड़ा। चुनाव प्रचार में यहां भी बयानबाजी का बड़ा दौर चला था। गुलाब चन्द कटारिया की रथ यात्रा आगे बढ़ती गई और पीछे-पीछे भाजपा की चादर सिमटती चली गई। पहले ही दिन से उदयपुर की पांच सीटें कांग्रेस को जाती दिखाई दे रही थीं, राजसमन्द को छोड़कर। भाजपा के लोग इस बात को मानने को तैयार नहीं थे। राजस्थान में हम इन चुनावों के आंकड़ों को पिछले चुनाव के आंकड़ों से मिलाएं तो पता चल जाएगा कि भाजपा का मतदाता उदासीन होता जा रहा है। सन् 2003 में विधानसभा और सन् 2008 के विधानसभा में कांग्रेस के पक्ष का मतदान मात्र 1 प्रतिशत बढ़ा था, जबकि भाजपा के पक्ष में लगभग 5 प्रतिशत मतदाता घटे थे। सन् 2004 के और सन् 2009 के लोकसभा चुनाव कहानी को और आगे ले गए। कांग्रेस के पक्ष में 5.75 प्रतिशत वोट बढ़े, किन्तु भाजपा के पक्ष में टूट 12.44 प्रतिशत की हुई। शेष मतदाता वोट डालने नहीं आए।

कांग्रेस के हारे हुए विधायक सी.पी. जोशी और लालचन्द कटारिया सांसद चुने गए, जबकि भाजपा के जीते हुए विधायक घनश्याम तिवाड़ी, किरण माहेश्वरी और राव राजेन्द्र सिंह चुनाव हार गए। एक बात और भी है कि गांवों में रोजगार गारण्टी योजना का प्रभाव भी दिखाई पड़ा। भाजपा की कई योजनाएं लागू ही नहीं हो पाई।

किसी की नहीं मानना भी भाजपा के लिए शान की बात हो गई है। चाहे राजनाथ सिंह हो, चाहे आडवाणी, सुषमा स्वराज या वसुन्धरा राजे। इनके लिए तो सही उतना ही है जो इनको सही लगता है। इस पर भी जातिवाद का भूत भीतर इतना उतर गया है कि लोगों को राष्ट्रवाद छोटा सा जान पड़ता है। लोग अपनी-अपनी जाति के बाहर नेतृत्व देने को ही तैयार नहीं है। प्रचार के दौरान भाजपा की छवि गिरती चली गई और किसी के भी कान खड़े नहीं हुए। भ्रष्टाचार और अपराधियों को शरण देने में भी किसी पार्टी से पीछे नहीं रही। आज भी भाजपा अपनी साम्प्रदायिक छवि से उबर नहीं पाई है। नई पीढ़ी का मतदाता शान्ति चाहता है।

राजनीति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका क्या हो, इस पर वह सोचे। आज भाजपा से न कार्यकर्ता संतुष्ट है, न ही देश। भाजपा ही देश की दूसरी बड़ी राजनीतिक पार्टी भी है। हर बार इसी तरह मार खानी हो तो इसकी मर्जी, किन्तु कुछ करने लायक बनना है तो पार्टी का पुनर्गठन एवं नीतियों का आकलन करना होगा। सभी पुराने चेहरों को सलाहकार का दर्जा देकर पीछे की सीट पर बिठा देना चाहिए। कांग्रेस में भी ऎसे ही लोग "घुण" का कार्य कर रहे हैं। वहां तो नीचे पोल ही पोल है। भाजपा में तो ऎसा नहीं है। केवल अहंकार है।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि दो बड़े दलों में से एक पटरी से उतर गया है। वरना तीसरे मोर्चे की जरूरत ही देश को नहीं पड़ती। सब जानते हैं कि तीसरा और चौथा मोर्चा किन लोगों का गठबन्धन है और देश को क्या दे सकता है। भाजपा में यदि आवश्यक सुधार नहीं हुआ तो ये लोग ही लोकतंत्र के नायक होंगे।

मंगलवार, 12 मई 2009

चुनाव में मीडिया की संदिग्ध भूमिका पर नागरिकों का मत

हम नागरिक, लोक सभा चुनाव २००९ के दौरान राजनीतिक पार्टियों एवं चुनाव प्रत्याशियों द्वारा किये गए मीडिया के दुरूपयोग से, बहुत चिंतित हैं. हमें इस बात से भी आपत्ति है कि मीडिया ने अपना दुरूपयोग होने दिया है. यह पाठक के उस मूल विश्वास को तोड़ता है जिसके आधार पर निष्पक्ष एवं संतुलित खबर पढ़ने के लिए पाठक पैसा दे कर समाचार पत्र खरीदता है. मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में माना गया है परन्तु मीडिया के द्वारा प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया की चुनाव के दौरान पत्रकारिता हेतु मार्गनिर्देश (१९९६) के निरंतर होते उल्लंघन ने उसकी लोकतंत्र में सकारात्मक भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.

समाचार, विचार और प्रचार के बीच भेद ही नहीं रह गया है. पाठक को यह बताने के लिए कि प्रकाशित सामग्री समाचार, विचार या चुनाव प्रचार है, छोटे अक्षरों में 'ए.डी.वी.टी' या 'मार्केटिंग मीडिया इनिशिएटिव' छापना पर्याप्त नहीं है. कुछ समाचार पत्र तो यह भी छापने का कष्ट नहीं उठाते हैं.

मोटे तौर पर कहा जाए तो खबर से सम्बंधित निर्णय लेने में संपादक की भूमिका पर अब मार्केटिंग वाले सहकर्मी हावी हो रहे हैं. छोटे जिलों या शहर-नगर-कस्बों में तो अक्सर जो व्यक्ति संवाददाता होता है उसी को विज्ञापन इकठ्ठा करने की जिम्मेदारी भी दे दी जाती है, जिसके फलस्वरूप वो विज्ञापन-दाताओं की खबर को महत्व देता है और अक्सर विज्ञापन न देने वाले लोगों की खबर को नज़रंदाज़ कर देता है.

विज्ञापन, 'विज्ञापन-जैसे-संपादकीय', 'मार्केटिंग मीडियाइनिशिएटिव' और अन्य ऐसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीकों से जो खबर मीडिया में आती है, उसपर हुआ व्यय, अक्सर चुनाव आयोग द्वारा तय की गई २५ लाख रूपये के अधिकतम चुनाव खर्च सीमा से, अधिक होता है. इसलिए मीडिया अब इन प्रत्याशियों की मिलीभगत से चुनाव के दौरान लागू आचार संहिता का उलंघन कर रही है.

मीडिया में छप रहे विज्ञापनों, विज्ञापन-जैसी-ख़बरों आदि पर हुए पूरे व्यय निर्वाचन अधिकारीयों को नहीं दिए जाते हैं. मीडिया को यह रपट देनी चाहिए जिससे यह पता चल सके कि किस राजनीतिक पार्टी ने और किस चुनाव प्रत्याशी ने मीडिया पर कितना व्यय किया है. 

राजनीतिक पार्टियों के संचालन हेतु कोई भी कानून नहीं है, ऐसा कानून बनना चाहिए। चुनाव में अधिकतम खर्च-सीमा के उलंघन की सज़ा भी अधिक सख्त होनी चाहिए और मौजूदा चुनाव में ही लागू होनी चाहिए. वर्त्तमान में चुनाव में अधिकतम-खर्च सीमा के उलंघन की सज़ा सिर्फ़ अगले चुनाव में ही लागू होती है, जो पर्याप्त अंकुश नहीं है.

इलेक्ट्रोनिक मीडिया (टीवी) के लिए भी प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया जैसी नियामक संस्था होनी चाहिए।

समाचार पत्रों को 'ओम्बुड्समैन' या विश्वसनीय लोकपाल नियुक्त करने के लिए देश-भर में उठ रही मांग का हम समर्थन करते हैं।

मूल रूप से हम नागरिक यह चाहते है कि मीडिया लोकतंत्र में निगरानी करने वाली निष्पक्ष भूमिका को पुन: ग्रहण करे. आर्थिक स्वार्थ के लिए मीडिया को अपनी स्वायत्ता को दाव पर नहीं लगानी चाहिए. जब लोगों का लोकतान्त्रिक संस्थाओं में विश्वास उठ रहा हो, तो मीडिया को इस पतन में शामिल होने के बजाय, लोकतंत्र में नागरिकों के विश्वास को पुनर्स्थापित करना चाहिए.

सोमवार, 11 मई 2009

कैसे लौटे काली कमाई


दिल्ली में बनने वाली नई केन्द्रीय सरकार के समक्ष एक चुनौती यह भी होगी कि स्विट्जरलैंड जैसे देशों की बैंकों में जमा भारतीयों की काली कमाई को कैसे वापस स्वदेश लाया जाए। यह किसी से छिपा नहीं है कि स्वतंत्रता के बाद से ही विश्व के 70 देशों की बैंकों में भारत का कालाधन जमा होता रहा है। समय-समय पर इसके अनुमान तो लगाए जाते हैं, लेकिन उनके सही होने को कोई प्रमाणित नहीं कर सकता। पिछले साल अखबारों में स्विस बैंकर्स एसोसिएशन की 2006 की वार्षिक रिपोर्ट के हवाले से छपा था कि स्विस बैंकों में भारत के नागरिकों के 1.45 खरब अमरीकी डालर जमा हैं। यह रकम किसी अन्य देश के नागरिकों की रकम की तुलना में बहुत ज्यादा है। दरअसल विश्लेषकों ने हिसाब लगाया कि शेष सभी देशों के नागरिकों की वहां कुल जमा रकम से भी यह अधिक है।

अर्थशाçस्त्रयों का मत है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहले चार दशकों में तो आयकर की दरें बहुत अधिक थीं और कर वसूली ढांचा कमजोर, इसलिए कर चोरी की संस्कृति विकसित हुई। आयात पर बेतहाशा करों के कारण तस्करी खूब होती थी, जिससे समानांतर काली अर्थव्यवस्था मजबूत हुई। सरकार के सभी विभागों में भ्रष्टाचार का स्तर बेहद बढ़ने और कर चोरों के लिए स्वर्ग माने जाने वाले देशों में बैंकों से गोपनीयता के नाम पर सुरक्षा मिलने के कारण उनमें भारतीयों द्वारा कालाधन जमा कराने का सिलसिला शुरू हुआ। जैन हवाला कांड में बरामद मोटी रकम और दस्तावेजों से बढ़ते हवाला कारोबार का खुलासा हुआ था। अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और कर की दरें घटने के बाद पिछली सदी के आखिरी दशक में उम्मीद बंधी थी कि कर चोरी और भारत से बाहर कालाधन भेजने की प्रवृत्ति पर लगाम लगेगी। लगता है कि यह उम्मीद पूरी नहीं हुई है। हालांकि करदाता और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों से मिलने वाली रकम में कई गुना बढ़ोतरी हुई है, लेकिन स्पष्ट है कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ करने की जरू रत है। विदेशी मुद्रा विनिमय कानून के उल्लंघनों का पता लगाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) पहले ही बना हुआ है। 

खेद की बात है कि इसका रिकार्ड और उपलब्धियां बहुत खराब रही हैं। यह समय-समय पर विवादों में घिरता रहा है और इसके आला अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोपों में उलझते रहे हैं। इसकी एक बड़ी कमी यह रही है कि इसका प्रमुख कोई आई.ए.एस. ही हो सकता है। मैं इसके कई निदेशक अधिकारियों को व्यक्तिगत रू प से जानता हूं। वे नि:संदेह होशियार, समर्पित और ईमानदार अधिकारी रहे हैं, लेकिन वे इस काले धंधे की गहराई तक नहीं पहुंच पाते। दो वर्ष का कार्यकाल किसी विशिष्ट जांच एजेंसी के प्रमुख के लिए बहुत कम होता है। इस काम को कस्टम, आयकर और पुलिस के अधिकारी ज्यादा बेहतर तरीके से अंजाम दे सकते हैं।

प्रवर्तन निदेशालय के जांचकर्ता के लिए विशेषज्ञता और क्षमता का जो स्तर अपेक्षित है, उसे निर्मित नहीं किया जा सकता। इस बुराई पर काबू पाने में भारतीय रिजर्व बैंक, कस्टम्स, सीबीआई और सेबी की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। नई सरकार को इसके लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति दर्शानी होगी तथा ईडी को मजबूत और सक्षम बनाने के लिए गंभीरता से प्रयास करने होंगे, तभी इस मोटी रकम का एक अंश भारत वापस लाने में सफलता मिल पाएगी। विशेषज्ञों की टोली बनाकर इस काम के लिए ठोस योजना बनानी होगी।

राम जेठमलानी, केपीएसगिल, सुभाष कश्यप आदि ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह मामला उठाया है। इस मामले की सुनवाई के दौरान पुणे के हसन अली खां और उनके सहयोगी कोलकाता के काशीनाथ तापडि़या के मामले का उल्लेख हुआ। वर्ष 2007 में आयकर छापे के दौरान खां के घर से बरामद कम्प्यूटर में स्विट्जरलैंड के यूबीएस बैंक में जमा 70 हजार करोड़ रूपए का ब्यौरा था।

उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने इस तथ्य पर नाराजगी जताई कि खां वगैरह के खिलाफ कालेधन कानून के तहत कार्रवाई क्यों शुरू नहीं की गई। कर चोरी और अवैध तरीकों से जुटाई गई रकम दूसरे देशों के बैंकों में जमा करने का मामला हाल ही जी-20 देशों की बैठक में भी उठा था। सदस्य देशों ने इस प्रवृत्ति पर गहरी चिंता जताते हुए ऎसी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संबद्ध देशों पर गोपनीयता नियमों में संशोधन के वास्ते दबाव बनाने का निर्णय किया था। विभिन्न देशों के कानूनों में संशोधन में लम्बा समय लगेगा, इसलिए सक्रिय पहल के जरिए इस समस्या से निपटा जा सकता है। अमरीका के आंतरिक राजस्व विभाग के अधिकारियों की कोशिशों के चलते अमरीका की एक अदालत ने यूबीएस बैंक पर 78 करोड़ डालर का जुर्माना ठोका है। बैंक जुर्माना देने के साथ ही अपने 47 हजार अमरीकी खातेदारों के नाम बताने को राजी हो गया है। इसके लिए उसने कुछ मोहलत मांगी है। आयरलैंड ने भी जर्मनी की बैंकों से 60 लाख डालर वसूले हैं। यह काम दुष्कर जरू र है लेकिन किसी व्यक्ति की असली परीक्षा तभी होती है जब उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यही बात राष्ट्रों पर भी लागू होती है। यह वक्त ही बताएगा कि क्या नई सरकार अपने इरादे और क्षमता दिखाकर कुछ करती है या इसे भी रोजमर्रा की समस्याओं की तरह मानती है। कई अहम मसलों पर भूतकाल में पूरे मनोयोग से कदम नहीं उठाए गए। उच्चतम न्यायालय में भी इस मामले पर सुनवाई होनी है। हाल के दिनों में देश से जुड़े ऎसे ही महत्वपूर्ण मुद्दों पर अदालत कदम उठा चुकी है। देखते हैं कि इस मामले में वह क्या करती है।