राहुल गांधी शायद बोलने में कुछ जल्दबाजी कर गए। उन्हें घटनाक्रम के राह पकड़ने तक इंतजार करना चाहिए था या कम से कम मतदान की प्रक्रिया तो पूरी हो जाने देते। राजनीति में धीरज रखने का फायदा मिलता है और दस दिन का समय कोई ज्यादा नहीं होता। वामपंथियों और विशेष रू प से माकपा से बार-बार समर्थन मांगना उनकी घबराहट दर्शाता है। साथ ही वे नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू के रू प में नए दोस्त बनाना चाहते हैं। उन्हें नीतीश से दो टूक जवाब भी मिल गया है। उन्हें वामपंथियों और नीतीश कुमार से सहयोग मांगने में इतनी बेताबी नहीं दिखानी चाहिए थी।
जमीनी हकीकत यह है कि माक्र्सवादी पश्चिम बंगाल और केरल में अपनी सीटें घटने को लेकर आशंकित हैं। यह साफ नजर आ रहा है कि प्रकाश कारत के डींगें हांकने के बावजूद वे लोकसभा में अपनी मौजूद सदस्य संख्या बरकरार नहीं रख पाएंगे। वे कितने भी आशावादी हों तथाकथित तीसरा मोर्चा या गैर -कांग्रेस, गैर- भाजपा मोर्चा ठोस स्वरू प नहीं ले पाया है। यदि तीसरा मोर्चा आगे भी आ जाए तो प्रधानमंत्री के सवाल पर उनमें घमासान मच जाएगा। मायावती पहले ही कह चुकी हैं कि प्रधानमंत्री के लिए वे सबसे अधिक योग्य हैं। यदि नेता का मसला सुलट भी जाए तो किसी को नहीं लगता कि कोई गैर -कांग्रेस गैर- भाजपा सरकार एक साल से ज्यादा चल पाएगी। इसके अलावा माकपा नेतृत्व में चुनाव के बाद कांग्रेस को समर्थन देने के मसले पर तीखे मतभेद हैं। माकपा की प. बंगाल इकाई और विशेष रू प से मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और सीताराम येचुरी भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए जरू रत पड़ने पर कांग्रेस को समर्थन देने के पक्षधर हैं। दूसरी ओर कारत अड़े हुए हैं कि कांग्रेस से कोई सम्बन्ध नहीं रखा जाएगा।
चुनाव प्रक्रिया अंतिम चरण में पहुंचने के साथ ही कई पार्टियों ने चुनाव के बाद होने वाले समझौतों के लिए एकाधिक विकल्प खुले रखे हैं। राहुल को नीतीश कुमार की ओर सार्वजनिक रू प से दोस्ती का हाथ बढ़ाने के बजाय पर्दे के पीछे प्रारम्भिक बातचीत करनी चाहिए थी और उसमें उनका मूड भांपकर अगला कदम उठाना चाहिए था। उन्होंने समर्थन मांगा तो नीतीश के पास यह कहने के अलावा कोई विकल्प नहीं था कि इन अफवाहों में कोई दम नहीं है कि वे राजग छोड़कर चुनावों के बाद संप्रग में शामिल हो सकते हैं।
नायडू की तारीफ के पुल बांधकर राहुल ने मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी को मुश्किल में डाल दिया है, जो तेदेपा के अपने इस प्रबल प्रतिद्वंद्वी से कड़ी और लम्बी लड़ाई लड़े हैं। रेड्डी का इन चुनावों में बहुत कुछ दांव पर है क्योंकि आंघ्रप्रदेश में लोकसभा के साथ ही विधानसभा के चुनाव भी हो रहे हैं।
राहुल की मंगलवार को दिल्ली में हुई प्रेस कांफ्रेस से साफ है कि वे अब कांग्रेस का चेहरा बनने के साथ उसके रणनीतिकार के रू प में उभर रहे हैं। वे अपनी पार्टी के पहले ऎसे नेता हैं जो अपने प्रतिद्वंद्वियों (नीतीश और चन्द्रबाबू) की प्रशंसा कर रहे हैं, साथ ही कांग्रेस पार्टी का वामपंथियों के साथ समान धरातल तलाश रहे हैं। यह भाजपा को अलग-थलग करने, तीसरे मोर्चे की हवा निकालने और 16 मई को नतीजे आने के बाद कांग्रेस को गठबंधन का केंद्रबिन्दु बनाने का स्पष्ट प्रयास है।
उनके शब्दों में "राजग तो धरातल पर कहीं है नहीं, उसका अस्तित्व तो केवल भाजपा के दिमाग में है"। इस टिप्पणी के बाद उन्होंने नीतीश और नायडू की प्रशंसा की। उन्होंने अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता का भी उल्लेख किया, जिन्होंने कहा था कि चुनावों के बाद कांग्रेस को कुछ नए सहयोगी मिल सकते हैं।
राहुल ने वामपंथियों की शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी अवधारणाओं से तो सहमति जताई, लेकिन साथ ही कहा कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मनमोहन सिंह ही हैं, वे सर्वश्रेष्ठ दावेदार हैं, उन्हें बदलने का प्रश्न ही नहीं उठता। वामपंथियों ने संप्रग को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने की सम्भावना से स्पष्ट इनकार किया है। कारत का कहना है कि सवाल अकेले वामपंथियों का नहीं है। वामपंथियों का अन्य दलों के साथ गठबंधन है। हम अन्य सभी सहयोगियों के साथ गैर-कांग्रेस गैर- भाजपा सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं।
राहुल ने उत्तर प्रदेश के बारे में कहा कि वहां लोग बसपा, सपा और भाजपा से ऊब चुके हैं। अगले तीन साल में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर एक बड़ी शक्ति बन जाएगी।
चुनाव बाद के परिदृश्य पर वामपंथी दलों में गहरे मतभेद हैं। कारत और उनके साथी जमीनी हकीकत से दूर हैं। वे मानते हैं कि पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को ज्यादा नुकसान नहीं होगा। वामपंथी दलों को देश भर में 42 से 48 सीटें मिल जाएंगी। येचुरी ज्यादा व्यवहारिक दिखते हैं। उन्होंने कारत के साथ एक तरह से असहमति जताते हुए कहा है कि चुनाव के बाद क्या होगा, इस बारे में अभी अटकलें लगाना ठीक नहीं है।
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