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सोमवार, 11 मई 2009

चुनावी चौसर पर रक्तपात


यह घोर विडम्बना है कि राजनीति में नैतिकता के मन्त्र-द्रष्टा महात्मा गांधी के इस देश में बाहुबलियों एवं अपराधियों का जोर बढ रहा है। लोक दिखावे के लिए राजनीति के अपराधीकरण की सभी पार्टियां निन्दा कर चुकी हैं, परन्तु हाथी के दांत खाने और दिखाने के और। नैतिकता की दुहाई देने वाली राजनीतिक पार्टियों को चुनाव में अपराधी गिरोहों का सहयोग लेने में कोई हिचक महसूस नहीं हो रही है। लोकसभा चुनावों में इस बार भी नामी-गिरामी गैंगस्टरों, हिस्ट्रीशीटरों, माफिया डॉनों की भरमार रही। अब तो राजस्थान जैसे शांत प्रदेश में भी खुलकर गोलियां चलीं तथा हथियारों और बाहुबल का जमकर उपयोग और प्रदर्शन हुआ।
आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों की तीन श्रेणियां हैं- वे जो सजायाफ्ता हैं, वे जिनके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल हैं और वे जो आरोपी हैं। कई सजायाफ्ता या आरोपी नेताओं ने इस बार अपनी बीवियों को पार्टियों के टिकट दिला दिए हैं। बिहार इसमें अग्रणी है। वहां बाहुबलियों का बोलबाला है और घोटालों का घटाटोप है। राजद सुप्रीमो लालू स्वयं 950 करोड के चारा घोटाले में फंसे हैं। इसी दल के निवर्तमान सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन सजायाफ्ता होने की वजह से सीवान से चुनाव नहीं लड पाए, तो उन्होंने बेगम हिना शहाब को राजद का टिकट दिलवा दिया। राजद सांसद एवं हत्या के आरोप में वर्षो से जेल में बंद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव फिलहाल जमानत पर रिहा हैं। चुनाव लडने की उन्हें इजाजत नहीं मिली, तो उनकी पत्नी रंजीत रंजन अब कांग्रेस टिकट पर सुपौल से चुनाव मैदान में उतर गई। माफिया डॉन सूरजभान भी चुनावी जंग में उतरने के लिए पूरी तरह से तैयार थे, परन्तु हाईकोर्ट से इजाजत न मिलने पर उन्होंने अपनी पत्नी को लोजपा का टिकट दिलवा दिया। उत्तर प्रदेश भी माफिया डॉनों के लिए कुख्यात है। चौदहवीं लोकसभा में उत्तर प्रदेश के 80 सांसदों में से 23 के खिलाफ आपराधिक मामले लम्बित थे। इस बार भी 30 से अधिक "माफिया डॉन" चुनावी अखाडे में उतरे। समाजवादी पार्टी को गुण्डों का दल कहने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश में आपराधिक छवि वाले नेताओं को जमकर टिकट बांटे। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति सम्बन्धी याचिका उच्चतम न्यायालय में लम्बित है। इसमें उनके पुत्रों- अखिलेश यादव (सांसद) व प्रतीक यादव को भी पक्षकार बनाया गया है। सपा ने भी बाहुबलियों को टिकट से नवाजा है, जिनमें गोंडा से बृजभूषण सिंह, फतेहपुर से राकेश सचान, फैजाबाद से मित्रसेन यादव, धारहारा से ओ.पी. गुप्ता, मिर्जापुर से ददुआ डकैत का भाई बालकुमार प्रमुख हैं।
चुनाव में बाहुबलियों के दखल और धनबल के प्रभाव में नजर आ रही वृद्धि भी केवल "टिप ऑफ द आइसबर्ग" है। स्पष्ट है कि पहले राजनीतिज्ञ बाहुबलियों से धन और बल की मदद लेते थे और बदले में उन्हें संरक्षण देते थे। जब बाहुबलियों ने देखा कि राजनेता उनकी मदद से ही विधायक या सांसद बन रहे हैं तो उन्होंने सोचा कि क्यों न वे स्वयं ही धन और बाहुबल के माध्यम से सीधे चुने जाएं। इसलिए राजनीति की अपराधीकरण के शैशवकाल में जो अपराधी अपने बचाव के लिए राजनीतिज्ञ का दामन थामता था, उसने आज चुनाव प्रक्रिया के द्वारा स्वयं राजमुकुट धारण कर लिया है। आज भ्रष्ट राजनीतिज्ञ, धनलोलुप उद्योगपति, रिश्वतखोर राज्य कर्मचारी एवं माफिया डॉन का गठजोड बन गया है, जो समाज को लील रहा है। एन.एन. वोरा ने अपनी खोजपूर्ण रिपोर्ट में राजनीति के अपराधीकरण एवं अपराधीजगत के राजनीतिकरण का सांगोपांग विवेचन करते हुए लिखा था कि इस गठजोड ने एक "समानान्तर सरकार" स्थापित कर ली है, जो न्याय-व्यवस्था एवं राष्ट्र की सुरक्षा के लिए घातक है, परन्तु आज तो "माफिया" सरकार को ही "हाईजैक" करना चाहता है।
आज राजनीतिक दलों के टिकट बांटने का पैमाना बदल चुका है। बाहुबली, धन कुबेरों, कबीलाई सरदारों को बिन मांगे टिकट मिलने लगा है। जब ऎसे लोग चुनकर आएंगे तो संसद में क्या होगा।

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