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शुक्रवार, 8 मई 2009

प्रचंड का पैंतरा


अगर नेपाल के माओवादी प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचण्ड को जरा भी एहसास होता कि सेनाप्रमुख रूकमांगुद कटवाल को बर्खास्त करने से उनकी सरकार का अस्तित्व ही खतरे में पड जाएगा, तो वे ऎसी जल्दबाजी नहीं दिखाते। हालांकि माओवादी सरकार के घटक दलों सहित सभी राजनीतिक दलों ने पहले ही प्रचण्ड को चेता दिया था कि वे जनरल कटवाल को हटाने के खिलाफ हैं, लेकिन उनके विरोध का स्वर इतना मुखर होगा इसका आभास तो प्रचण्ड को नहीं रहा होगा। 

राष्ट्रपति रामबरन यादव ने जनरल कटवाल की बर्खास्तगी पर मुहर लगाने से इनकार कर और सरकार में शामिल सहयोगी दलों ने अपना समर्थन वापस लेकर प्रचण्ड के पास प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के अतिरिक्त कोई भी विकल्प नहीं छोडा था। नेपाल के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम से वहां शांति प्रक्रिया पटरी से उतरने की आशंका बढी है।

वर्तमान संकट की जड में माओवादी सरकार और सेना के बीच गहराता तनाव है। गौरतलब है कि राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने से पहले माओवादियों ने नेपाल की सेना के खिलाफ ही लडाई लडी थी। इसलिए 2006 में शांति प्रक्रिया के बाद से ही माओवादियों और सेना के रिश्ते अत्यन्त असहज रहे हैं। सबसे बडा विवाद माओवादियों की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के विद्रोहियों को सेना में शामिल करने को लेकर है। सेना ने यह तर्क देते हुए करीब 19 हजार माओवादी गुरिल्लों को सेना में भर्ती करने से इनकार कर दिया है कि विशेष राजनीतिक विचारधारा से ओत-प्रोत होने के कारण वे सेना के पेशेवर स्तर में गिरावट लाएंगे।

माओवादी नेताओं का आरोप है कि जनरल कटवाल ने हाल ही में सरकारी आदेशों के विपरीत जाकर करीब तीन हजार नए सैनिकों की भर्ती कर ली। कटवाल पर यह आरोप भी था कि उन्होंने सरकार से सलाह किए बिना ही उन आठ वरिष्ठ सेनाघिकारियों को बहाल कर दिया, जिनको रक्षा मंत्रालय ने बर्खास्त किया था। हालांकि जनरल कटवाल ने यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही किया था। माओवादी किसी भी कीमत पर सेना को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे, क्योंकि ऎसा किए बिना नेपाल की सत्ता पर पूरी तरह कब्जा करना संभव नहीं था। लेकिन अपने वफादार को सेनाप्रमुख बनाने की जल्दबाजी में प्रचण्ड चार महीने का इंतजार तक नहीं कर पाए। 

दरअसल प्रचण्ड पर जनरल कटवाल को हटाने के लिए दबाव लगातार बढ रहा था। 30 अप्रेल को माओवादियों की एक अहम बैठक में प्रचण्ड को इस बारे में काफी आलोचना सहनी पडी। जानकार मानते हैं कि अगर प्रचण्ड सेनाप्रमुख को नहीं हटाते तो अपने दल पर उनका नियंत्रण शिथिल हो जाता।

माओवाद और विवाद का तो पुराना रिश्ता है। शांति प्रक्रिया की शुरूआत से ही माओवादी अपने मनमाने रवैये के कारण विवादों में घिरे रहे हैं। ऎसी उम्मीद थी कि लोकतांत्रिक पद्धति से साथ जुडाव समय गुजरने के साथ माओवादियों की अघिनायकवादी सोच को बदल देगा लेकिन जिस इकतरफा तरीके से सेनाप्रमुख को हटाया गया, उसने न केवल माओवादियों के लिए मुश्किलें बढा दी हैं, बल्कि उससे उपजे घटनाक्रम ने शांति प्रक्रिया पर भी सवालिया निशान लगा दिया है।

आज नेपाल की राजनीति दो खेमों में बंट चुकी है। एक तरफ तो सभी राजनीतिक दल हैं, तो दूसरी तरफ पूरी तरह अलग-थलग पड चुके माओवादी। प्रचण्ड के त्यागपत्र के बाद माओवादियों के समक्ष सबसे बडी चुनौती अंतरिम संसद में अपना बहुमत बरकरार रखने की होगी लेकिन सत्ता का गणित उनके पक्ष में नहीं है।

प्रचण्ड के त्यागपत्र के बाद माओवादियों के समक्ष सबसे बडी चुनौती अंतरिम संसद में अपना बहुमत बरकरार रखने की होगी लेकिन सत्ता का गणित उनके पक्ष में नहीं है

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