Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

Top Highlights

रविवार, 5 जुलाई 2009

अप्राकृतिक आचरण

समाज मनुष्य की प्राकृतिक जरूरतों को पूरा करने की व्यवस्था करता है। उसके अधिकार और कर्तव्य के रक्षण के लिए ही नियम-उपनियम, कानून और संहिताएं बनती बिगड़ती रही हैं। हमारा समाज कभी रूढ़ नहीं रहा है। यहां तो "आनो भद्रा: Rतवो यन्तु विश्वत:" कहा गया है। अर्थात सभी अंदर से अच्छे विचार आने दें। क्या पता कहां से कोई अच्छी बात, सुखद हवा आ जाए। समाज के स्वस्थ्य विकास के लिए, दूसरों के अनुभव से भी सीखते रहने का निर्देश दिया गया है, परंतु मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं और नियमों के प्रतिकूल जाना वर्जित किया गया है। इन दिनों समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने के सवाल पर बवाल उठ खड़ा हुआ है। दलील यह भी दी जा रही है कि समाज में कुछ प्रतिशत लोग समलैंगिक हैं तो उनकी बात क्यों न मानी जाए अभिप्राय कि कल चोर-डकैत भी छाती पर पट्टा लगाकर सड़कों पर खुल्लमखुल्ला मांग करेंगे- "चोरी-डकैती को वैधता प्रदान की जाए।" हम जानते हैं कि विवाहेतर सम्बन्ध भी चोरी-छुपे होते हैं। कल ऎसे लोग सड़कों पर आकर मांग करें- "हमारे विवाहेतर सम्बन्ध को कानूनी मान्यता मिले।" फिर क्या होगा परिवार का कैसा होगा समाज क्या सारे कानून बदलने नहीं पड़ेंगे सीधी-सी बात है। मनुष्य की प्राकृतिक जरूरत- आहार, निद्रा, भय और मैथुन हैं। ये चारों जन्मजात जरूरतें हैं। ये चारों ही मनुष्य के जीवन की प्रेरणाएं भी हैं। और इन जन्मजात जरूरतों को देखकर समाज में व्यवस्था लाने की दृष्टि से पति-पत्नी की जोड़ी बना दी गई। विवाहोपरांत उस स्त्री-पुरूष के बीच लैंगिक सम्बन्ध वैधानिक कर दिए गए। दोनों के बीच यह सम्बन्ध टूटना भी विवाह विच्छेद का एक कारण बनता है। अर्थात दोनों के बीच लैंगिक सम्बन्ध कायम रहना आवश्यक है। गलत भोजन करने और जरूरत से अधिक या कम नींद भी बीमारी का कारण हो जाती है। स्त्री-पुरूष के बीच लैंगिक सम्बन्ध प्राकृतिक आवश्यकता है। समाज ने अपनी व्यवस्था और सुविधा के लिए पति-पत्नी के बीच सीमित कर दिया है। समलैंगिक सम्बन्ध अप्राकृतिक है। बीमारी है। बीमार मानसिकता की उपज है। समाज की किसी बीमारी को वैधानिक नहीं बनाया जा सकता।
मानवीय शुचिता और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी समलैंगिकता उचित नहीं है। कोई भी धार्मिक सम्प्रदाय इसकी अनुमति नहीं देता है। कहना चाहूंगी कि भारतीय जीवन पद्धति में व्यक्तिगत जीवन में शुचिता पर विशेष ध्यान दिया गया है। दूसरी बात है कि मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुसार आचार संहिता भी बनाई गई हैं। यही मानव धर्म है। मानवीय संस्कृति है। इसे नहीं तोड़ा जा सकता। स्त्री-पुरूष संबंधों में बहुत-सी विद्रूपताएं आ गई हैं। कई बार तो जानवरों के साथ लैंगिक संबंध की खबरें आती हैं। तो क्या इसे वैध माना जाए नहीं! क्योंकि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए यह उचित नहीं। यह बीमारी है। सनकीपन है। सामान्य व्यवहार नहीं! हरेक काल में ऎसी विद्रूपताएं किसी न किसी रूप में विद्यमान रही होंगी। तात्पर्य यह नहीं कि उन विद्रूपताओं को समाज सम्मत मानकर तद्नुकूल कानून बना दिया जाए। आज कुंआरी माताओं को अधिकार देने की बात जोरों से उठी है। "लिविंग टूगेदर" को कानूनी मान्यता प्रदान करने की बात उठ रही है। ये सारी मांगें सनातनी विवाह संस्कार और परिवार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की ओर अग्रसर हैं। समाज की चूल ही चरमरा जाएगी। व्यवस्थाएं समाप्त हो जाएंगी। जंगल राज आ जाएगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें