Subscribe

RSS Feed (xml)

Powered By

Skin Design:
Free Blogger Skins

Powered by Blogger

Top Highlights

बुधवार, 15 जुलाई 2009

बजट है भविष्य के गर्भ में

दुनिया के सबसे गरीब देश, जिसे गरीबी रेखा मानते हैं, के मुताबिक भारत में दस में से चार भारतीय से भी ज्यादा गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। नासो की मानें तो देश की ग्रामीण आबादी में 19 फीसदी लोग रोजाना 12 रुपए में गुजारा करते हैं। हमारे यहां एक ग्रामीण परिवार एक माह में महज 365 रुपए में प्रति व्यक्ति खर्च कर गुजारा करता है, जबकि शहरी क्षेत्र की २२ फीसदी आबादी प्रति व्यक्ति 19 रुपए खर्च करती है। मसलन एक व्यक्ति महीने भर में 580 रुपए में अपना जीवन गुजारता है। शहरों में खाने पर लोग औसतन 451 रुपए खर्च करते हैं, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में महज २५१-४क्क् रुपए में गुजारा करते हैं।

केंद्र सरकार ने बिजली भले प्राथमिकता सूची में रखी हो, लेकिन देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 42 फीसदी घरों में आज भी बिजली उनके लिए सपना है। कहने को वहां ५६ फीसदी घरों में बिजली उपलब्ध है। लेकिन जब शहरों में 12 से 14 घंटों बिजली न रहती हो, उस हालत में ग्रामीण इलाकों में बिजली की आशा बेमानी है। असल में बिजली तो नगरों-महानगरों में, राजधानियों में माननीयों-महामहिमों और उद्योगों से बचे, तब तो ग्रामीण शहरी इलाकों में पहुंचे।

सच में गावों के 42 फीसदी लोग मिट्टी के तेल से रोशनी पाते हैं, वह भी ब्लैक में खरीदकर। जहां तक खाना बनाने का सवाल है, गांव के 74 फीसदी घरों में तिनके और लकड़ियों से खाना बनता है। भले वहां के नौ फीसदी घरों में रसोई गैस से खाना बनता हो, लेकिन असल में इतनी ही फीसदी लोग उपलों से खाना बनाते हैं। हालत तो यह है कि १७ बड़े राज्यों में से सात राज्यों में १९ फीसदी ग्रामीण कच्चे घरों में रह रहे हैं, वहीं 50 फीसदी लोगों के घर पक्के और 31 फीसदी के घर आधे पक्के थे। यह हमारे गांवों की हकीकत है।

विश्व विकास रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भौगोलिक हिसाब से सबसे ज्यादा बदतर हालात का सामना करने वाले इसी देश के लोग हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत घनी आबादी वाला दुनिया का सबसे पिछड़ा देश है और देश के 60 फीसदी गरीब लोग देश के प्रमुख राज्यों में रहते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि खुशहाली गांव में बैठे-बिठाए यानी एक जगह टिके रहने से नहीं आती। रिपोर्ट के मुताबिक रोजगार की खातिर शहरों-महानगरों की ओर जाने की प्रवृत्ति सकारात्मक है, स्वाभाविक है।

लोगों को निर्धनता से छुटकारा मिलना ही चाहिए। शहरीकरण के अलावा इसका कोई चारा नहीं है। लेकिन खेद है कि शहरी प्रशासन रोजगार की तलाश में आने वालों के प्रति नकारात्मक रवैया रखता है। यही नहीं, उनके बेहतर जीवनयापन के लिए सुविधाएं मुहैया करने के मामले पर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। और तो और वह उनके लिए आवास, स्कूल, सफाई, सड़क, सुरक्षा, बिजली, पानी और आवागमन आदि की व्यवस्था करने में भी आनाकानी और बिना वजह देरी करता है।

नतीजतन लोग अपनी जरूरत और अधिकार पूरे करने की खातिर मजबूरन कानून अपने हाथ में ले लेते हैं। विडंबना यह है कि गांव-देहात से और आदिवासी अंचल से चुनकर आए जनप्रतिनिधि भी इनकी सुध नहीं लेते और हर पल अपनी सुविधाओं तथा वेतन बढ़ाने की जुगत में रहते है। आजकल इस साल के बजट को आजाद भारत का सबसे अच्छा बताया जा रहा है, देखना यह है कि यह इन लोगों का कहां तक भला कर पाएगा। यह तो भविष्य के गर्भ में है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें