ज़हरीली शराब पीकर मरना भारत में शायद सबसे बुरी मौत है. सिर्फ़ इसलिए नहीं कि बहुत तकलीफ़ होती है, इसलिए भी कि इसके शिकार वैसी सहानुभूति के हक़दार नहीं जो दूसरी दुर्घटनाओं के होते हैं.गुजरात में 100 से ज्यादा लोग ऐसी ही मौत मरे हैं, 150 से ज्यादा मौत से लड़ रहे हैं मगर जनता, मीडिया या प्रशासन की प्रतिक्रिया वैसी नहीं है, मिसाल के तौर पर, जैसी एक बड़ी रेल दुर्घटना के वक़्त होती है.
कुछ लोग तो रेल दुर्घटना से तुलना किए जाने पर ही बिफर सकते हैं, कहेंगे- 'और पियो, ठीक ही हुआ', 'गुजरात में तो नशाबंदी थी, किसने कहा था पीने को,' 'अच्छा हुआ, शराब पीने वालों को इससे सबक़ मिलेगा...' 'रेल में मुसाफ़िरों की क्या ग़लती है, शराबी तो अपनी करनी का फल भुगत रहे हैं'...
ज़्यादातर लोगों का शायद यही मानना है कि ये लोग अकारण नहीं मरे हैं, मरने का कारण है- शराब पीना, जिसके लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार हैं. अनाथ बच्चों का चेहरा भी दिलों को शायद उतना नहीं दुखा रहा है.शराब को लेकर भारत के मध्यवर्ग में जितने पूर्वाग्रह और पाखंड हैं उनके ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक कारणों की समीक्षा एक दिलचस्प विषय हो सकता है लेकिन इतना तो साफ़ दिखता है कि उच्च वर्ग और निम्न वर्ग दोनों में यह वर्जित तरल नहीं है.सारी समस्या उस वर्ग की है जिससे मैं ख़ुद आता हूँ. शराब पीकर गँवाने के लिए निम्न वर्ग के लोगों के पास कुछ नहीं होता, अमीर आदमी को शराब पीने के लिए घर-बार बेचना नहीं पड़ता लेकिन मध्य वर्ग शराब को लेकर गहरी चिंता में घुलता जाता है.
मध्यवर्ग की अपनी जायज़ चिंताएँ हो सकती हैं मगर शराब से वह इतना आक्रांत है कि उसका असर उसकी मानवीय संवदेनाओं पर हावी दिखता है. 'शराबी के दो ठिकाने, ठेके जाए या थाने' या 'शराब करे जीवन ख़राब' जैसे स्लोगनों से परे देखने की उसकी क्षमता ख़त्म हो गई है, ठीक एक शराबी की तरह.गुजरात का मामला बाक़ी देश से ज़रा अलग है क्योंकि वहाँ दशकों से नशाबंदी लागू है, बिल्कुल ईरान की तरह. शराब पीने वाले अमीर दमन-दीव, गोवा, महाराष्ट्र जाते हैं या दोगुने दाम वसूलने वाले एजेंटों से मनचाहे माल की सप्लाई लेते हैं. सिर्फ़ ग़रीब ऐसी मौत मरते हैं.
इन लोगों के परिजनों को मुआवज़ा नहीं मिल सकता क्योंकि वे शराब पीने के गुनहगार हैं, अनैतिक लोग हैं. सरकार कह रही है कि दोषी लोगों को पकड़ा जाएगा, पकड़ना ही होगा क्योंकि उन्होंने राज्य का नशाबंदी क़ानून तोड़ा है.लोग कह रहे हैं कि गुजरात में 100 से ज्यादा लोगों की मौत 'नशाबंदी के बावजूद' हो गई जो एक गंभीर बात है, लेकिन इस बात पर बहस के लिए तैयार नहीं हैं कि यह घटना गुजरात में ही क्यों हुई, कहीं नशाबंदी ही इसकी एक वजह तो नहीं?
नशाबंदी कई मायनों में एक विवादास्पद पॉलिसी है. इस पर पूरा अमल नामुमकिन है, सरकारों को राजस्व का नुक़सान होता है, माफ़िया और बेईमान पुलिसवालों को कमाई का ज़ोरदार मौक़ा मिलता है और ज़हरीली शराब का कारोबार फैलता है...ज़ाहिर है कि नशाबंदी के पक्ष में भी अनेक तर्क हैं, यानी एक सार्थक बहस की गुंजाइश है.ये भी मत भूलिए कि शराब पीना कुछ इस्लामी देशों और गुजरात को छोड़कर बाक़ी दुनिया में क़ानूनन अपराध नहीं है.सिगरेट, गांजा, अफ़ीम, चरस बुरी चीज़ें हैं, जुआ भी, वेश्यावृति भी और न जाने कितनी बुराइयाँ जिनकी सूची अनंत है, शराब भी उन्हीं में से एक है.
शराब अगर एक समस्या है तो उससे निबटने के सार्थक और व्यवाहारिक प्रयास होने चाहिए, कोरे नैतिकतावादी-आदर्शवादी रवैए से सबका नुक़सान होगा, लोग सदियों से शराब पीते रहे हैं, आज भी पी रहे हैं और आगे भी पीते रहेंगे, इस तथ्य को स्वीकार किए बिना कोई कारगर नीति नहीं बन सकती.ऊपर जो भी लिखा है उसके बारे में अगर आपका ये निष्कर्ष है कि मैं शराब पीने के पक्ष में हूँ तो मुझे ऐसा ही लगेगा कि आप नशे में हैं. जो लोग बहस के बीच में व्यक्तिगत सवाल उठाने के शौक़ीन हैं उनकी जानकारी के लिए सच बताना ज़रूरी है कि ठंडी बियर मुझे सुकून देती है.अंत में एक सलाह-- गंभीर समस्याओं पर शराब या नैतिकता के नशे में नहीं सोचना चाहिए.
छंद त्रिभंगी
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छंद त्रिभंगी
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टाइप करवंता,नित्य नचंता,
आखर आता,छळकंता।
मनड़ौ मुस्काता,टुन टणकाता,
झन झनकाता,आ पड़ता।
मैसेज घणेरै, तेरे मेरे,
सांझ सवेरे,दिख जा...
9 वर्ष पहले
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